क्या मुस्कान सकारात्मकता का चेहरा मात्र है, या दिल के भीतर छिपे दर्द का मुखौटा?

हमेशा मुस्कराना ज़रूरी नहीं होता
— जब पॉजिटिविटी भी बोझ बन जाती है
“सब ठीक हो जाएगा।”
“कम से कम ऐसा तो नहीं हुआ।”
“सोचो, इससे बुरा भी हो सकता था।”
“मुस्कुराओ, सब अच्छा है।”
“ईश्वर जो करता है वह अच्छा करता है।”
“ना मालूम आज की बुराई में आने वाले भविष्य में कितनी अच्छाइयाँ छिपी हों।”
“तुम तो बहुत बोल्ड हो यार, बस इतनी सी परेशानी में रो रहे हो?”
“तुम तो लोगों का सहारा हो, हमें सहारा देते हो — आज खुद ही टूट गए?”
“ईश्वर ने तुम्हें बहुत सक्षम बनाया है।”
“तुम खुद रिसोर्सफुल हो। तुम्हारा इतना बड़ा सर्किल है — फिर किस बात की परेशानी?”
लेकिन शायद लोग यह भूल जाते हैं कि ऊपर कही गई सारी बातें मात्र एक दिखावा हैं — जिसे अंग्रेज़ी में कहते हैं “आई शैडो”।
यह एक ऐसी भूल-भुलैया है कि लोग तकलीफ़ में आने पर अक्सर साथ छोड़ देते हैं, या साथ नहीं देते, या साथ देना नहीं चाहते, और कोई न कोई बहाना बना लेते हैं। ऐसे लोगों को पहचानना हमारे लिए ज़रूरी है।
आज लगभग सभी को आवश्यकता है एक ऐसे भरोसेमंद दोस्त या साथी की, जिससे वह अपनी बातें विश्वास के साथ साझा कर सके, तकलीफ़ में सलाह-मशवरा कर सके, और उसके अनुसार भविष्य में निर्णय लेने की क्षमता को और बेहतर बना सके। लेकिन दुख इसी बात का है कि आज जीवन में यही चीज़ सबसे ज़्यादा कमी की बन गई है।
आज आप जिस दोस्त को अपनी कमी बता दोगे, सलाह लेते समय — तो यह मान कर चलिए कि आने वाले समय में वही शायद आपका सबसे बड़ा दुश्मन बन जाए, तो कोई बड़ी बात नहीं होगी।
लोगों का चरित्र, ईमान, और संवेदनाएं इतनी सस्ती हो गई हैं कि लोग छोटी-छोटी बातों पर, चंद रुपयों के लिए या अपने ईगो की संतुष्टि के लिए, वर्षों पुराने संबंध और साथ को तोड़ने में एक क्षण भी नहीं लगाते।
अब समय ऐसा आ गया है कि रिश्तों या दोस्ती को लंबा निभाने के बजाय, जब भी किसी से जुड़ाव हो — कुछ दिन बाद ही कोई काम कहकर देख लीजिए। यदि वह काम कर दें तो एक अर्थ निकलेगा, और न करें तो आप उनसे दूरी बना लें।
कितनी बार ये वाक्य हमारे कानों में पड़े हैं — दोस्त से, रिश्तेदार से, या कभी खुद से भी।
पहली नज़र में ये वाक्य सहारा लगते हैं — जैसे डूबते को शब्दों की लकड़ी मिल गई हो।
लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि ये शब्द, ये ‘पॉजिटिविटी’, किसी दिन हमारे लिए एक बोझ बन जाएँ?
हाँ, पॉजिटिविटी भी टॉक्सिक हो सकती है। अजीब लगता है, लेकिन यह सच है।
हम इंसान हैं। हमारे भीतर दुख, ग़ुस्सा, असंतोष, थकान, भय — ये सब भावनाएँ होती हैं। इनका बाहर आना, महसूस किया जाना और रिश्तों में जगह पाना ज़रूरी है।
लेकिन जब समाज या हमारे अपने ही हमसे यह अपेक्षा करने लगते हैं कि हम हर हाल में ‘सकारात्मक’ रहें — तब यह उम्मीद एक बोझ बन जाती है। और यही बोझ धीरे-धीरे हमें हमारी सच्ची भावनाओं से काट देता है।
किसी को खो देने पर, दिल टूटने पर, नौकरी छूटने पर, या सिर्फ थक कर बैठने की इच्छा में भी यदि हमें सिर्फ “पॉजिटिव रहो” की सलाह मिलती है — तो यह हमारी टूटन को अस्वीकार करना होता है।
नकारात्मक सोच हावी होने की एक और वजह है — न्यूक्लियर फैमिली।
पति-पत्नी अकेले रहते हैं। बच्चे पैदा किए तो ठीक है, नहीं किए तो भी ठीक है। अगर बच्चे हैं भी, तो वे हॉस्टल में पढ़ रहे होते हैं।
ज़रा सी भी तकरार हो जाए, या पत्नी के पास कोई कार्य करने लायक अवसर न हो — वैसे भी आजकल घरों में कुछ ख़ास करने को नहीं बचा है।
जिन घरों में सिर्फ दो कमरों का फ्लैट है, वहाँ भी यदि महिला काम नहीं कर रही है तो दिन भर सोशल मीडिया और टीवी पर ही समय बितता है। ऐसी स्थिति में नकारात्मक ऊर्जा का प्रवेश होना स्वाभाविक है।
आज के इस तकनीकी युग की सबसे बड़ी खराबी यह है कि यह सकारात्मकता का उतना तेज़ी से प्रसार नहीं कर पा रही, लेकिन नकारात्मकता का बहुत तेज़ प्रचार-प्रसार हो रहा है — और वह दिलों-दिमाग पर हावी हो जाती है।
“टॉक्सिक पॉजिटिविटी” वही है — जब किसी की सच्ची तकलीफ़ को, उनके दर्द और कमज़ोरी को यह कहकर ढांपने की कोशिश की जाती है कि:
“तुम्हें तो खुश रहना चाहिए।”
“इसमें भी कुछ अच्छा देखो।”
“कम से कम तुम ज़िंदा तो हो।”
इसे समझिए ऐसे — जैसे किसी गहरे ज़ख्म पर फूल चिपका देना।
बाहर से सुंदर दिखेगा, लेकिन भीतर से रिसता खून अब भी वहीं होगा।
रिश्तों में यह और भी खतरनाक हो जाता है।
जब कोई अपना टूट रहा हो, और हम उसे उसकी भावनाओं को जीने की जगह सिर्फ ‘सकारात्मक सोचने’ की सीख दे रहे हों — तब वह स्वयं को अकेला महसूस करने लगता है।
उसे लगता है कि उसका दुख स्वीकार्य नहीं है, वह स्वयं ‘कमज़ोर’ है।
कभी-कभी तो हम खुद अपने भीतर यह टॉक्सिक पॉजिटिविटी पाल लेते हैं।
अपने आप से कहते हैं —
“रोना नहीं है।”
“मज़बूत बनो।”
“मैं फील नहीं कर सकता।”
“जो बीत गया, सो गया।”
लेकिन दिल रोना चाहता है।
मन सिसकना चाहता है।
शरीर थक कर रुकना चाहता है।
क्या होगा, अगर हम कुछ पल के लिए ‘असली’ हो जाएं?
अगर हम अपने आँसुओं को बहने दें?
अगर किसी अपने से कहें — “मैं आज टूट रहा हूँ”, और वो बस गले लगा ले — बिना कोई सलाह दिए?
हमारे रिश्तों की गहराई वहीं से शुरू होती है — जब हम एक-दूसरे को सुनते हैं, महसूस करते हैं, और यह अधिकार देते हैं कि “तुम आज कमज़ोर हो सकते हो।”
हम यह क्यों भूल जाते हैं कि प्रकाश की अहमियत तभी है जब अंधेरे को भी जगह दी जाए?
सकारात्मक सोच अच्छी बात है,
लेकिन जब यह हमारी संवेदनाओं, थकान और असलियत को दबा देती है — तब यह एक मुखौटा बन जाती है।
एक ऐसा नकाब, जिसे उतारते-उतारते लोग थक जाते हैं।
हमें अपने अपनों को, बच्चों को, और साथियों को यह बताना ज़रूरी है कि जीवन में सब कुछ ‘ठीक’ होना आवश्यक नहीं।
कभी-कभी ‘ठीक नहीं होना’ भी ठीक होता है।
तो अगली बार जब कोई अपने दुख के साथ आपके पास आए —
तो बस चुपचाप बैठिए, उसका हाथ थामिए और कहिए —
“मैं सुन रहा हूँ। रो लो। मैं यहाँ हूँ।”
धन्यवाद,
सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक, इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री,
पूर्व उपाध्यक्ष , जयपुर स्टॉक एक्सचेंज लिमिटेड,
जयपुर, राजस्थान
suneelduttgoyal@gmail.com