Loading...

करेंसी प्रबंधन में लापरवाही: सिक्कों की लागत से लेकर भ्रष्टाचार तक का जाल

  • करेंसी प्रबंधन में लापरवाही: सिक्कों की लागत से लेकर भ्रष्टाचार तक का जाल
  • नए नोटों की गड्डियों का बैंकों में अभाव लेकिन माफियाओं के पास हैं सुलभ।

भारत की आर्थिक व्यवस्था में नकदी और सिक्कों का महत्व किसी से छुपा नहीं है। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि जिस संवेदनशीलता और दूरदर्शिता के साथ देश में मुद्रा प्रबंधन होना चाहिए, वह नदारद दिखाई देती है। हालात इतने गंभीर हो गए हैं कि आज सरकार और आरबीआई के अधिकारियों की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाना ही नहीं, बल्कि कठोर कार्रवाई की आवश्यकता भी महसूस हो रही है।

आज से चालीस साल पहले जब एक पैसे और पाँच पैसे के सिक्के प्रचलन में थे, तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि एक दिन बीस रुपये के सिक्के भी बाजार में उतारे जाएंगे। लेकिन इस सफर में सरकार ने कभी यह नहीं सोचा कि जिस सिक्के को वह जारी कर रही है, उसकी लागत सरकार को कितनी भारी पड़ रही है। उदाहरण के लिए, आज सिक्का बनाने में ही सरकार को उसकी मुद्रा से अधिक की लागत आती है। यानी, सरकार प्रत्येक सिक्के पर सीधा घाटा झेल रही है

आरबीआई का भ्रष्टाचार का जाल

मैं आपको जयपुर स्थित भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) की शाखा, जो रामबाग सर्किल पर स्थित है, के बारे में एक कड़वा सच बताने जा रहा हूँ। यहाँ पर बैंक खुलने के दो घंटे पहले ही लोगों की लंबी लाइन लग जाती है। यह कोई सामान्य लाइन नहीं होती, बल्कि इनमें स्थायी (परमानेंट) लोग होते हैं जो सुबह से शाम तक वहीं मौजूद रहते हैं।

चाहे वह सिक्के लेने आए हों या नए नोटों की गड्डियां, इन कतारों में ज्यादातर लोग एक विशेष धर्म और संप्रदाय से जुड़े हुए होते हैं। दुखद बात यह है कि RBI के गार्ड से लेकर नोट और सिक्के जारी करने वाले कर्मचारियों और अधिकारियों तक, सब इस गोरखधंधे में शामिल होने से इंकार नहीं किया जा सकता। उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि ये लोग रोजाना आते हैं, बड़ी मात्रा में सिक्के और नोट उठाते हैं, और फिर बाहर जाकर उन्हें ब्लैक मार्केट में बेचते हैं। 

अगर कोई व्यक्ति केवल एक हफ्ते तक इस शाखा के बाहर खड़ा होकर निगरानी करे, तो वह पाएगा कि अधिकतर लोग रोजाना लाइन में वही मिलते हैं। इसका सीधा मतलब है कि ये लोग किसी और माफिया के लिए काम कर रहे हैं, और बदले में उन्हें कमीशन मिलता है।

सबसे बड़ी विडंबना यह है कि सब कुछ जानते हुए भी वहाँ कोई उन्हें रोकने वाला नहीं है। यह देखकर बेहद अफसोस होता है कि आखिर सरकार की इंटेलिजेंस एजेंसियां और पुलिस अधिकारी इन सब से अनजान कैसे हो सकते हैं? हर सुबह RBI के बाहर उसी चेहरे की भीड़ लगी रहती है। इस समस्या की जानकारी होने के बावजूद कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। यह केवल कुप्रबंधन नहीं, बल्कि सरकारी तंत्र की असफलता का जीता-जागता उदाहरण है।

यह अब इनका एक स्थायी रोजगार बन चुका है —

  • सुबह RBI की लाइन में लगो।
  • नए नोट और सिक्के प्राप्त करो।
  • फिर उन्हें अपने मालिकों या सरगनाओं को सौंप दो, जो इनका अवैध कारोबार और कालाबाजारी करते हैं।यह पूरी तरह से संगठित रैकेट है, ये ओर्गनाइज़्ड क्राइम है , और जब तक इस पर कड़ी कार्रवाई नहीं होगी, तब तक न तो कालाबाजारी रुकेगी और न ही आम जनता को सिक्के और नए नोट सही तरीके से उपलब्ध हो पाएंगे।

सूत्रों के अनुसार, जब आरबीआई का स्टाफ नए नोट या सिक्के बैंकों को जारी करता है, तो पहले ही बैंक शाखा में अधिकारियों को फोन कर दिया जाता है कि “हमारा आदमी” आने वाला है। शाखा प्रबंधक मजबूरी में उस “आदमी” को नए नोटों की गड्डियां दे देते हैं क्योंकि वे आरबीआई के स्टाफ से टकराव नहीं कर सकते। इसका नतीजा यह है कि आम जनता तक 10 और 20 रुपये के नए सिक्के या नोट बहुत कम मात्रा में पहुंचते हैं, जबकि रिकॉर्ड में यह दिखाया जाता है कि भारी मात्रा में सिक्के और नोट जारी किए गए।

असल में यह नोट और सिक्के ब्लैक मार्केट में बेचे जाते हैं। यानी आरबीआई का वह स्टाफ, जो राष्ट्रहित में काम करने के लिए बैठा है, वह खुद कालाबाजारी का हिस्सा बन गया है।

गलते सिक्कों का कारोबार

₹10 और ₹20 के सिक्कों की असली कीमत उनकी अंकित कीमत से कहीं अधिक है। उदाहरण के लिए, ₹10 का सिक्का गलाने पर उसका मेटल ₹13 से ₹14 तक बिकता है। नतीजा यह है कि संगठित गिरोह इन सिक्कों को बड़ी मात्रा में इकट्ठा कर गलाते हैं और मेटल के रूप में बेचते हैं। यह गतिविधि खुलेआम हो रही है और सरकार तथा इंटेलिजेंस एजेंसियों को इसकी जानकारी होनी चाहिये।

इसके बावजूद कोई कार्रवाई नहीं हो रही, जो यह दर्शाता है कि कहीं न कहीं ये एजेंसियां भी इस गोरखधंधे का हिस्सा बन चुकी हैं या जानबूझकर आंख मूंदे हुए हैं।

प्रधानमंत्री से अपील

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दूरदर्शी नेता माना जाता है। उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे इस गंभीर मुद्दे पर तत्काल संज्ञान लें। सरकार को चाहिए कि ₹20 तक के सिक्के और छोटे मूल्यवर्ग की करेंसी का निर्माण बंद करे।

साथ ही, यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि किसी भी करेंसी की उत्पादन लागत उसकी अंकित मूल्य के 20  प्रतिशत से अधिक न हो। उदाहरण के लिए, यदि सरकार ₹20 का सिक्का बना रही है, तो उसकी लागत ₹4  से अधिक नहीं होनी चाहिए। छोटे मूल्य के सिक्कों के लिए यह लागत और भी कम — लगभग ₹1.50 से ₹2 के बीच रहनी चाहिए। 

मेरा सरकार को सुझाव यह है कि वर्तमान में जितने भी सिक्के प्रचलन में हैं, उनका साइज़ वही रखा जाए, लेकिन उनका वज़न और उनमें उपयोग होने वाली धातु के मिश्रण व लागत कम की जाए। यह लागत इतनी कम होनी चाहिए कि यदि कोई व्यक्ति उस सिक्के को गलाकर बेचना भी चाहे, तो उसे उसके मुद्रित मूल्य के आधे दाम से भी कम मिले।

इससे न केवल सरकार का राजकोषीय घाटा कम होगा, बल्कि सिक्कों के निर्माण में लगने वाली लागत भी घटेगी। साथ ही, इस तरह की कालाबाजारी और अवैध धंधे जो आजकल चल रहे हैं, वे स्वतः ही बंद हो जाएंगे।

आज की स्थिति में ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार बिना किसी लागत विश्लेषण के सिक्कों और नोटों का उत्पादन कर रही है। यह न केवल आर्थिक दृष्टि से नुकसानदेह है, बल्कि इससे देश का राजकोषीय घाटा भी बढ़ रहा है। जब से प्रधानमंत्री मोदी की दूरदर्शिता से यूपीआई  का उपयोग ज़बरदस्त तरीके से बढ़ रहा है तो रिज़र्व बैंक एवं सरकार  की यह ज़िम्मेदारी बनती है की वह इस बात का पुनः अध्ययन करे की सर्कुलेशन में रेज़गारी और नोटों की कितनी ज़रूरत है। 

समाधान की दिशा में कदम

  1. ₹10 और ₹20 के सिक्कों के निर्माण की लागत का पुनर्निरीक्षण किया जाए। साथ ही इससे कम के सिक्कों का नया उत्पादन बंद कर देना चाहिये। 
  2. आरबीआई के चेस्ट और करेंसी डिलीवरी सिस्टम की स्वतंत्र जांच कराई जाए।
  3. छोटे मूल्यवर्ग की करेंसी की लागत पर सख्त नियंत्रण रखा जाए।
  4. ब्लैक मार्केट में नए नोटों की कालाबाजारी रोकने के लिए डिजिटल ट्रैकिंग सिस्टम लागू किया जाए।
  5. सिक्कों को गलाकर मेटल बेचने वाले नेटवर्क को पकड़ने के लिए इंटेलिजेंस एजेंसियों को जवाबदेह बनाया जाए।

निष्कर्ष

करेंसी केवल लेन-देन का माध्यम नहीं, बल्कि देश की आर्थिक साख का प्रतीक है। जब सिक्कों की लागत ही उनकी अंकित कीमत से अधिक हो जाए और संस्थानों में भ्रष्टाचार घर कर ले, तो यह न केवल आर्थिक खतरा है, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा का भी मुद्दा बन जाता है।

सरकार को चाहिए कि वह इस मुद्दे को गंभीरता से लेते हुए तत्काल कार्रवाई करे। अन्यथा, आने वाले वर्षों में यह समस्या इतनी विकराल हो सकती है कि देश की अर्थव्यवस्था को भारी क्षति पहुंचेगी।

देशवासी उम्मीद करते हैं कि केन्द्र सरकार इस मुद्दे को प्राथमिकता देंगे और मुद्रा प्रबंधन को सही दिशा में ले जाने के लिए कड़े कदम उठाएंगे।

धन्यवाद,
रोटेरियन सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक, इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री
पूर्व उपाध्यक्ष, जयपुर स्टॉक एक्सचेंज लिमिटेड
जयपुर, राजस्थान
suneelduttgoyal@gmail.com

 

About Rtn. Suneel Dutt Goyal

Rtn. Suneel Dutt Goyal, a distinguished leader and visionary, has made significant contributions to Trade, Commerce, Industry, and Community service. Born and raised in Alwar and now based in Jaipur, Rajasthan, he is the Founder & Director General of the Imperial Chamber of Commerce and Industry (ICCI) since 2017. His leadership extends to key roles in the PHD Chamber of Commerce & Industry, the Confederation of Indian Industry (CII), and the Rotary Club Jaipur Round Town.

With over four decades of experience, Suneel has served as Co-Chairman of the Rajasthan Chapter of the PHD Chamber, Secretary, President and Zone Coordinator of the Rotary Club Jaipur Round Town, and Chairman, Treasurer and National Councillor for the Indian Institute of Material Management (IIMM). His dedication to community service is evident in his role as Patron of the Indian Red Cross Society and as a Life Member of the Indian National Trust for Art and Cultural Heritage (INTACH).

As Managing Partner of Goyal and Company, Suneel provides expert consultancy in SME IPOs, project financing, investments, and strategic business issues. He has played a pivotal role in the promoting & development of the Jaipur Stock Exchange Ltd., serving as its youngest Director and Vice-President, and has contributed to the formation of the Federation of Indian Stock Exchange Ltd.

Rtn. Suneel Dutt Goyal's expertise also spans corporate dairy farming and agriculture, where he drives innovation and sustainability. His multifaceted career and unwavering commitment to excellence make him a prominent figure in both the business and social sectors.

कर सुधार की नई राह: जीएसटी, पेट्रोलियम और शराब नीति पर विमर्श

स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से राष्ट्र को संबोधित करते हुए कर दायरे में व्यापक सुधार की ओर संकेत दिया। उन्होंने कहा कि वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) की मौजूदा दरों में बदलाव कर प्रणाली को ज्यादा सरल और सुगम बनाया जाएगा। यह घोषणा निश्चित रूप से अर्थव्यवस्था, उद्योग जगत, उपभोक्ताओं और राज्यों के लिए दूरगामी प्रभाव डालने वाली है।

भारत में कर व्यवस्था अक्सर जटिल और बहुस्तरीय रही है। जीएसटी लागू होने के बाद भी, इसके स्लैब यानी दरें लोगों के लिए उलझन का विषय बनी रहीं। वर्तमान में 0%, 5%, 12%, 18% और 28% जैसी कई दरों के चलते न सिर्फ आम जनता बल्कि कारोबारियों को भी भारी दिक्कतें आती हैं। यदि केंद्र सरकार वास्तव में 28% और 12% दरों को खत्म कर शेष दरों को व्यवस्थित कर दे, तो यह ‘वन नेशन, वन टैक्स’ की दिशा में एक बड़ा कदम साबित होगा।

जीएसटी स्लैब का सरलीकरण
प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद इस दिशा में चर्चा होना जरूरी है कि जिन वस्तुओं पर 12% जीएसटी लगता है, उनमें से ज्यादातर आम उपभोग के खाद्य पदार्थ, दवाइयाँ और दैनिक जीवन की अन्य ज़रूरी वस्तुएँ हैं। इन्हें 5% के दायरे में लाने से महंगाई पर नियंत्रण पाया जा सकता है और उपभोक्ताओं को सीधा लाभ मिलेगा।

दूसरी ओर, 18% जीएसटी सर्विस सेक्टर पर अपेक्षाकृत भारी पड़ता है। बीमा, स्वास्थ्य सेवाएँ, शिक्षा और डिजिटल सेवाएँ इस श्रेणी में शामिल हैं। सामान्य परिवार के बजट में इन सबकी लागत बढ़ जाती है। कई अर्थशास्त्री यह सुझाव दे चुके हैं कि 12% और 18% की दरों को समेकित कर 15% का एक मध्यम स्लैब बनाया जाए। इससे कर-संरचना सरल होगी और उपभोक्ताओं पर अत्यधिक भार भी नहीं पड़ेगा।

इसके अतिरिक्त, स्वास्थ्य और जीवन बीमा जैसी अनिवार्य सेवाओं को 5% के दायरे में लाना एक व्यावहारिक समाधान होगा। इन पर शून्य कर लगाना दीर्घकालिक रूप से समझदारी नहीं मानी जा सकती, क्योंकि सरकार को भी राजस्व चाहिए होता है। लेकिन इन सेवाओं की आमजन तक पहुँच सुनिश्चित करने के लिए कर दर को न्यूनतम स्तर पर रखना अत्यंत आवश्यक है।

पेट्रोलियम उत्पाद और “वन नेशन, वन प्राइस” की आवश्यकता
भारत की ऊर्जा जरूरतों का अधिकांश हिस्सा पेट्रोलियम उत्पादों पर निर्भर है। दुर्भाग्य से, इन पर अब तक जीएसटी लागू नहीं किया गया है और राज्यों की अलग-अलग दरों ने एक असमान कर व्यवस्था पैदा कर दी है। जिन राज्यों में करों की दरें अलग-अलग हैं, वहाँ उनके सीमा क्षेत्रों यानी बॉर्डर पर स्थित पेट्रोल पंपों की बिक्री में स्पष्ट असमानता देखी जा सकती है। राज्यों के बीच दरों में इस भिन्नता के कारण न केवल उपभोक्ता कम दर वाले राज्यों की ओर आकर्षित होते हैं, बल्कि पेट्रोल और डीज़ल की तस्करी जैसी समस्याएँ भी जन्म लेती हैं। ऐसी स्थिति पर प्रभावी नियंत्रण के लिए आवश्यक है कि पूरे देश में पेट्रोलियम उत्पादों की दरें समान हों ताकि न तो तस्करी को बढ़ावा मिले और न ही सीमा क्षेत्र के पेट्रोल पंपों को नुकसान उठाना पड़े।

यदि पेट्रोल और डीजल को जीएसटी के दायरे में लाया जाए और पूरे देश में एक समान दर तय हो, तो इससे दो बड़े लाभ होंगे—

1. लेवल प्लेइंग फील्ड: सभी उद्योगों और व्यवसायों को ऊर्जा एक समान कीमत पर मिलेगी जिससे प्रतिस्पर्धा में समानता आएगी।
2. राजस्व वितरण में पारदर्शिता: केंद्र सरकार अतिरिक्त कर लगाकर राज्यों को समुचित हिस्सा दे सकती है।

हां, यह सच है कि राज्यों को तत्काल राजस्व हानि उठानी पड़ सकती है, पर दीर्घकालिक दृष्टि से यह नुकसान नहीं बल्कि एक सतत समाधान है। केंद्र यदि जीएसटी काउंसिल के माध्यम से राजस्व साझा करने की नीति बनाए, तो राज्यों का भरोसा भी बना रहेगा।

गुणवत्ता और पर्यावरणीय दृष्टि से सुधार
भारत ने “भारत स्टेज-6” मानकों को लागू कर वाहन ईंधन की गुणवत्ता और प्रदूषण नियंत्रण की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाया है। अगर सभी पेट्रोलियम कंपनियों को मर्ज कर एक समान उत्पादन और सप्लाई श्रृंखला बनाई जाए, तो उच्च गुणवत्ता वाला ईंधन पूरे देश में समान दर पर उपलब्ध हो सकता है। इससे न केवल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी आएगी बल्कि उपभोक्ताओं को भी मानक गुणवत्ता वाला ईंधन मिलेगा।

शराब नीति में सुधार
पेट्रोलियम जितना संवेदनशील विषय है, शराब नीति उससे भी अधिक विवादास्पद है। आज भारत में शराब की खपत तीव्र गति से बढ़ रही है। सामाजिक और स्वास्थ्य संबंधी पहलुओं को दरकिनार करते हुए यह उद्योग राजस्व हासिल करने का प्रमुख साधन बना हुआ है।

वास्तविक समस्या यह है कि शराब पर हर राज्य ने अपनी मनमानी दरें तय कर रखी हैं। कहीं-कहीं ऊंचे करों की वजह से तस्करी और अवैध शराब का व्यापार फल-फूल रहा है। कई रिपोर्ट्स इशारा करती हैं कि शराब माफिया और अधिकारियों के गठजोड़ से भ्रष्टाचार और टैक्स की चोरी जमकर होती है।

अगर जीएसटी काउंसिल साहस दिखाकर शराब की निर्माण लागत से लेकर एमआरपी तक एक समान दर तय कर दे, तो यह सिस्टम अधिक पारदर्शी हो जाएगा। सरकार को बड़े स्तर पर राजस्व का नुकसान नहीं होगा, बल्कि उल्टा—जो पैसा भ्रष्टाचार और काले बाजार में जा रहा है, वह सरकारी खजाने में आएगा।
सामाजिक रूप से भी यह सुधार आवश्यक है। शराब की आसानी से उपलब्धता और दरों में असमानता न सिर्फ उपभोक्ताओं को गुमराह करती है बल्कि अवैध व्यापार को भी बढ़ावा देती है। यदि पूरे देश में एक समान दर लागू हो, तो शराब माफिया पर नियंत्रण होगा और समाज पर इसके नकारात्मक असर को कुछ हद तक कम किया जा सकेगा।

निष्कर्ष
भारत आज एक ऐसी आर्थिक स्थिति में है जहाँ कर सुधार न केवल राजस्व संग्रहण का प्रश्न है, बल्कि जनहित एवं सामाजिक समरसता का मुद्दा भी है। जीएसटी में सरलीकरण, पेट्रोलियम उत्पादों का राष्ट्रीय स्तर पर एक मूल्य, और शराब पर 一 कर नीति, तीन ऐसे कदम हैं जो भारतीय अर्थव्यवस्था को पारदर्शी, प्रतिस्पर्धात्मक और न्यायसंगत बना सकते हैं।

निश्चित रूप से, इन सुधारों को लागू करने में राजनीतिक इच्छाशक्ति और संघीय सहयोग की बड़ी आवश्यकता होगी। लेकिन यदि संसद, राज्य सरकारें और जीएसटी काउंसिल मिलकर सामंजस्य स्थापित करें, तो यह देश को एक ऐसे “नई कर संरचना” की ओर ले जाएगा जिसमें सरलता, पारदर्शिता और समानता—तीनों के संतुलन के साथ विकास संभव होगा।

भारत को अब सवाल यह नहीं पूछना चाहिए कि “क्या यह संभव है?” बल्कि यह सोचना चाहिए कि “इसे कब लागू करना है।”

धन्यवाद,

रोटेरियन सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक, इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री
पूर्व उपाध्यक्ष, जयपुर स्टॉक एक्सचेंज लिमिटेड
जयपुर, राजस्थान
suneelduttgoyal@gmail.com