तकनीकी युग में चुनाव आयोग को नवाचार और सुधार की सख्त ज़रूरत

भारत, जो कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, अपने हर नागरिक को मतदान का संवैधानिक अधिकार देता है। लेकिन जब यह अधिकार उन लोगों तक पहुंच जाए जो देश के नागरिक नहीं हैं — जैसे कि अवैध घुसपैठिए — तो यह लोकतंत्र की नींव को ही कमजोर कर देता है।

आज भारत इसी गम्भीर खतरे का सामना कर रहा है। विशेषकर सीमावर्ती राज्यों — पश्चिम बंगाल, असम, बिहार और उत्तर प्रदेश — में अवैध मतदाताओं की संख्या चिंताजनक रूप से बढ़ी है, जिससे निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव प्रणाली पर सवाल उठने लगे हैं।

इस तकनीकी युग में चुनाव आयोग को चाहिए कि वह अपने सिस्टम में आधुनिक तकनीकों और नवाचारों को शामिल करे, जिससे फर्जी या अवैध मतदाताओं की पहचान की जा सके और उन्हें तुरंत प्रभाव से हटाया जा सके। डिजिटल KYC, आधार सत्यापन, और बॉयोमेट्रिक पहचान जैसे उपायों को चुनाव प्रक्रिया से जोड़ा जाना अब वक्त की मांग है।

यदि लोकतंत्र की सच्ची आत्मा को सुरक्षित रखना है, तो चुनाव आयोग को केवल प्रेक्षक या नियामक की भूमिका से आगे बढ़कर, सक्रिय सुधारक की भूमिका निभानी होगी।

चुनाव आयोग को आधुनिकरण की ज़रूरत है
पिछले 15 वर्षों में चुनाव आयोग अपनी जिम्मेदारियों को निभाने के बावजूद ज़रूरी सुधारों और बदलावों को पूरी तरह लागू नहीं कर पाया है। हर चुनाव—चाहे लोकसभा हो या विधानसभा या ग्राम सभा—के लिए अलग-अलग वोटर लिस्ट होती है। यह समझ से परे है कि अब तक एक सामान्य वोटर लिस्ट क्यों नहीं बनाई गई है जो सभी स्तरों के चुनावों के लिए मान्य हो। मेरा पहला सुझाव यही है कि एक सामान्य जनरल वोटर लिस्ट बनाई जाए।

दूसरा अहम मुद्दा यह है कि चुनाव आयोग ने हाल ही में वरिष्ठ नागरिकों (सीनियर सिटिज़न्स) को घर पर इलेक्ट्रॉनिक सिस्टम के आधार पर वोटिंग की सुविधा देने का ट्रायल शुरू किया है। यह सराहनीय है, लेकिन सवाल उठता है कि फिर देश से बाहर रहने वाले नागरिकों, दूसरे राज्यों में रह रहे कामकाजी लोगों या छात्र-छात्राओं को यह सुविधा क्यों नहीं दी जाती? उन्हें भी इलेक्ट्रॉनिक या पोस्टल माध्यम से वोटिंग का अधिकार मिलना चाहिए।

मैंने स्वयं लगभग एक साल पहले अपना वोटर आईडी ऑनलाइन अपडेट किया था, लेकिन आज तक वह मुझे नहीं मिला। इससे यह सवाल उठता है कि चुनाव आयोग आखिर कर क्या रहा है? इसे समय से आगे की सोच अपनानी होगी और तकनीकी रूप से खुद को मजबूत बनाना होगा।

चुनाव आयोग और सुरक्षा बलों की सीमाएँ
एक और बड़ा मुद्दा यह है कि चुनाव आयोग चुनाव के दौरान केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती तो कर देता है, लेकिन यह भूल जाता है कि ज़िला मजिस्ट्रेट (कलेक्टर) और एसपी राज्य सरकार के अधीन होते हैं। यह सही है कि आचार संहिता के समय वे आयोग के अंतर्गत होते हैं, लेकिन उसके बाद पुनः राज्य सरकार के अधीन आ जाते हैं। चुनाव आयोग को चाहिए कि सुरक्षा बलों की तैनाती चुनाव प्रक्रिया में और गहराई तक की जाए, खासकर पोलिंग बूथ के अंदर।

अक्सर हमने देखा है कि चुनाव के बाद सोशल मीडिया पर ऐसे वीडियो सामने आते हैं, जहां पोलिंग बूथ पर राज्य सरकार के कर्मचारी मतदाताओं को प्रभावित करते दिखते हैं। वोट किसे देना है, यह पूछते हैं और कई बार खुद वोट डाल देते हैं। यह अपने आप में एक नया “बूथ कैप्चरिंग” का तरीका है। इसे रोकने के लिए ज़रूरी है कि केंद्रीय सुरक्षा बल पोलिंग बूथ के अंदर तैनात हों और प्रत्येक वोटिंग प्रक्रिया पर निगरानी रखें। यहाँ हमारा यह सुझाव है कि केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती कहाँ और किस स्थान पर और कितनी होगी, यह भी चुनाव आयोग स्वयं अपने स्तर पर फैसला करें। तभी हम एक पारदर्शी और सुरक्षित चुनाव प्रणाली पर भरोसा कर सकते हैं।

आधुनिक तकनीक का प्रयोग हो
आज हमारे पास ई-आधार, मोबाइल OTP, फेस आईडी और तमाम डिजिटल साधन मौजूद हैं। ऐसे में डाक द्वारा वोट भेजने की पुरानी प्रणाली को खत्म कर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग सिस्टम को विकसित करना चाहिए, ताकि जो लोग अपने गृह जनपद से बाहर हैं, वे भी आसानी से वोट डाल सकें।

जैसे चुनाव ड्यूटी पर लगे कर्मचारी तथा सीमा पर लगे हुए सैन्य अधिकारी और केंद्रीय सुरक्षा बलों में वे सभी अधिकारी जो अपने चुनाव क्षेत्र से बाहर होते हैं, वे पोस्टल बैलेट का उपयोग करते हैं। वैसे ही आम नागरिकों को भी दो दिन पहले वोट डालने की सुविधा इलेक्ट्रॉनिक रूप से मिलनी चाहिए। यह केवल सुविधा नहीं, बल्कि लोकतंत्र की मजबूती का सवाल है।

स्थानीय कारकों को समझे चुनाव आयोग
चुनाव आयोग को चाहिए कि वह अपने जिला निर्वाचन अधिकारियों से यह जानकारी अवश्य प्राप्त करे कि उनके जिलों में मतदान के दिन या उससे एक-दो दिन पहले अथवा बाद में कोई बड़ा त्योहार, विवाह समारोह या अन्य महत्वपूर्ण आयोजन तो नहीं है। यदि ऐसा कोई अवसर हो, तो ऐसी तारीखों से परहेज़ करते हुए वैकल्पिक मतदान तिथि का निर्धारण किया जाना चाहिए।

तारीख तय करते समय इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि कहीं वह दिन किसी और छुट्टी से न जुड़ जाए। आमतौर पर शनिवार और रविवार की छुट्टियां साथ लगने पर लोग ‘लॉन्ग वीकेंड’ मनाने चले जाते हैं, जिससे मतदान प्रतिशत में गिरावट आती है।

यह चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है कि वह सुनिश्चित करे कि प्रत्येक नागरिक अपने मताधिकार का प्रयोग अवश्य करे। यदि कोई नागरिक मतदान नहीं करता है, तो उसके लिए भविष्य में दंडात्मक प्रावधानों पर भी विचार किया जा सकता है। यह भले ही आज के समय में असंभव सा लगे, लेकिन जब देश तकनीकी रूप से आगे बढ़ रहा है, तो चुनाव आयोग का नवीनतम एवं सुदृढ़ और सुरक्षित तकनीक न अपनाना एक गंभीर चिंता का विषय है।

चुनाव आयोग को समय से आगे सोचते हुए कार्य करना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि प्रत्येक मतदाता, चाहे वह देश में हो या विदेश में, अपने मताधिकार का प्रयोग अवश्य करे।

चुनाव आयोग की सबसे बड़ी जिम्मेदारी: सिर्फ नागरिकों को ही मिले वोट देने का अधिकार
हाल ही में नियुक्त हुए मुख्य चुनाव आयुक्त श्री ज्ञानेश कुमार ने चुनाव सुधारों की दिशा में कई प्रभावी कदम उठाए हैं। उन्होंने देशभर के 36 मुख्य निर्वाचन अधिकारियों को यह निर्देश दिया है कि वे वैश्विक लोकतंत्रों की चुनावी प्रणाली और राज्य-स्तरीय चुनाव नियमों का गहन अध्ययन करें। इसके अतिरिक्त, निर्वाचन सदन में बायोमेट्रिक उपस्थिति प्रणाली, ई-ऑफिस और डिजिटल फाइल मैनेजमेंट को भी लागू किया गया है — जो प्रशासनिक दृष्टिकोण से सराहनीय प्रयास हैं।

परंतु सवाल यह है कि क्या ये प्रयास मतदाता पहचान की शुद्धता को भी सुनिश्चित कर पाएंगे?
आज भारत के कई हिस्सों में फर्जी दस्तावेजों के आधार पर अवैध घुसपैठियों को वोटर आईडी जारी किए जा रहे हैं। इनमें से कई लोग न केवल मतदाता बन जाते हैं, बल्कि राजनीतिक दलों के लिए ‘वोट बैंक’ में भी तब्दील हो जाते हैं।

दूसरा सवाल यह है कि इन दोनों चर्चाओं में आया है कि एक ही मतदाता के अलग-अलग जिलों में या शहरों में या राज्यों में कई वोटर आईडी कार्ड बने हुए हैं। इन डुप्लीकेट सिस्टम को जितनी शीघ्रता से चुनाव आयोग हटाएगा, उतना ही देश की सुरक्षा और चुनाव आयोग की निष्पक्षता के लिए फायदेमंद होगा।

पश्चिम बंगाल: जनसांख्यिकीय बदलाव का जीवंत उदाहरण
पश्चिम बंगाल पिछले कुछ दशकों से अवैध बांग्लादेशी घुसपैठ का प्रमुख केंद्र रहा है। भारत-बांग्लादेश सीमा से सटी ज़मीन पर हजारों लोग बगैर वैध दस्तावेजों के भारत में प्रवेश करते हैं और स्थानीय राजनैतिक समर्थन और ढीली प्रशासनिक जांच के कारण आसानी से भारतीय मतदाता बन जाते हैं।

यह जनसांख्यिकीय बदलाव न केवल स्थानीय संस्कृति, सामाजिक संरचना और कानून-व्यवस्था को प्रभावित करता है, बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया को भी गहराई से नुकसान पहुँचाता है। कई पूर्व अधिकारियों और खुफिया रिपोर्टों के अनुसार, बंगाल के सीमावर्ती ज़िलों में कुछ जगहों पर स्थानीय जनसंख्या में गैर-नागरिकों का अनुपात 25-30% तक पहुँच गया है।

चौंकाने वाली बात यह है कि इन लोगों के पास वोटर आईडी, राशन कार्ड, आधार कार्ड और यहाँ तक कि ड्राइविंग लाइसेंस जैसे दस्तावेज़ भी मौजूद होते हैं। चुनाव के समय इन वोटों का प्रयोग राजनीतिक परिणामों को प्रभावित करने के लिए होता है।

वोटर आईडी के लिए नागरिकता सत्यापन क्यों है ज़रूरी?
आज की प्रणाली में नाम, पता और उम्र के आधार पर वोटर आईडी मिल जाता है। कोई ठोस नागरिकता प्रमाण जैसे कि पासपोर्ट, जन्म प्रमाणपत्र या नागरिकता पंजीकरण का सत्यापन अनिवार्य नहीं है। नतीजतन, फर्जी पहचान पत्र बनाकर अवैध घुसपैठिये भी मतदाता बन जाते हैं।

इस घातक खामी को दूर करने के लिए निम्न उपाय अत्यंत आवश्यक हैं:
सभी नए और पुराने वोटर आईडी को राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) से जोड़ा जाए:

जिस तरह असम में NRC प्रक्रिया अपनाई गई, उसे तकनीकी रूप से दुरुस्त कर अब पूरे देश में लागू किया जाना चाहिए।

आधार, पासपोर्ट और जन्म प्रमाणपत्र से वोटर आईडी की क्रॉस वेरिफिकेशन:
आधार की बायोमेट्रिक जानकारी और पासपोर्ट की राष्ट्रीयता आधारित पुष्टि का उपयोग कर मतदाता पंजीकरण को अधिक सख्त बनाया जाए।

डिजिटल जियो-टैग्ड वेरिफिकेशन टीमों का गठन:
हर मतदाता के पते का ऑन-ग्राउंड डिजिटल सत्यापन किया जाए, जिससे फर्जी पते पर वोटर आईडी लेना मुश्किल हो।

फर्जी दस्तावेज़ प्रस्तुत करने पर सख्त सज़ा का प्रावधान:
फर्जी दस्तावेज़ों के जरिए सरकारी लाभ लेने या वोटर आईडी बनवाने पर कानूनी कार्रवाई हो और तुरंत आईडी निरस्त किया जाए।

‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ तभी संभव जब एक समान नागरिक पहचान सुनिश्चित हो
देश के मुख्य चुनाव आयुक्त श्री ज्ञानेश कुमार की यह पहल कि पूरे देश में एक समान मतदाता सूची तैयार की जाए — ग्राम सभा से लेकर लोकसभा तक — एक दूरदर्शी योजना है। लेकिन जब तक हम यह सुनिश्चित नहीं करते कि इस सूची में केवल भारतीय नागरिक शामिल हों, तब तक यह प्रयास अधूरा और भ्रामक होगा।

राज्यों के बीच नियमों की असमानता, स्थानीय दबाव, भ्रष्टाचार और तकनीकी कमजोरियाँ मिलकर इस समस्या को और जटिल बना देते हैं।

निष्कर्ष: राष्ट्र की सुरक्षा और लोकतंत्र की शुचिता के लिए, चुनाव आयोग को नागरिकता सत्यापन को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी
भारत के सामने यह अब एक तकनीकी मुद्दा नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्न बन चुका है। जब घुसपैठिये मतदाता बनकर सत्ता के समीकरण तय करने लगें, तो यह लोकतंत्र नहीं, बल्कि लोकतंत्र का मज़ाक बन जाता है।

मुख्य चुनाव आयुक्त के डिजिटल ट्रांजिशन प्रयास निश्चित रूप से सराहनीय हैं, लेकिन अब ज़रूरत है कि इन प्रयासों को मूलभूत पहचान सत्यापन के साथ जोड़ा जाए।

चुनाव आयोग को चाहिए कि वह मतदाता पहचान और नागरिकता जाँच को अपनी प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर रखे — क्योंकि बिना सच्चे नागरिकों के, लोकतंत्र सिर्फ एक दिखावा बनकर रह जाएगा।

वे लोग जो अनपढ़ हैं या अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं हैं, वे अक्सर चुनावी दलों और राजनेताओं के प्रभाव में आकर मतदान कर देते हैं। इस प्रकार, समाज के वही लोग—जो कि कम जानकारी रखते हैं—देश और प्रदेश की सत्ता का निर्धारण कर देते हैं, जबकि पढ़ा-लिखा वर्ग केवल तमाशबीन बना रहता है।

यह विडंबना है कि जो लोग देश और समाज को सही दिशा दे सकते हैं, वही अक्सर अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं करते। वे या तो आलस्यवश या छुट्टी का लाभ उठाने के लालच में मतदान से दूर रहते हैं। और जब गलत प्रतिनिधि चुने जाते हैं, तब वही लोग सबसे पहले शिकायत करते हैं। लेकिन वास्तव में, इसके लिए वे स्वयं जिम्मेदार होते हैं।

इसलिए मेरा देश के प्रत्येक नागरिक से विनम्र निवेदन है कि वे अपने मताधिकार का प्रयोग अवश्य करें। यह अधिकार केवल एक औपचारिकता नहीं, बल्कि आपके और आपके देश के साथ ही आपके बच्चों के भविष्य की नींव है। मतदान करते समय किसी के प्रभाव में न आएं, न ही किसी लालच में—बल्कि अपने विवेक और आत्मचिंतन के आधार पर सही उम्मीदवार को चुनें। एक जागरूक मतदाता ही एक उज्ज्वल भारत का निर्माण कर सकता है।

धन्यवाद,

सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक, इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री
पूर्व उपाध्यक्ष , जयपुर स्टॉक एक्सचेंज लिमिटेड
जयपुर, राजस्थान
suneelduttgoyal@gmail.com

जनसांख्यिकीय संतुलन: कश्मीर के स्थायी पुनर्निर्माण की अनिवार्य शर्त

कश्मीर घाटी की स्थिरता और दीर्घकालिक शांति के लिए सबसे बड़ा प्रश्न केवल सुरक्षा या आर्थिक विकास का नहीं है — बल्कि वहां की जनसांख्यिकीय संरचना (Demographic Structure) का है। जब तक घाटी में जनसंख्या का सामंजस्य नहीं स्थापित किया जाता, तब तक किसी भी योजना या नीति की सफलता अधूरी ही मानी जाएगी।

1990 में कश्मीरी पंडितों के साथ जो हुआ, वह भारत के स्वतंत्रता के पश्चात सबसे भीषण सांप्रदायिक नरसंहारों में से एक था। मस्जिदों से खुलेआम धमकियाँ दी गईं, गैर मुस्लिम लोगों के घरों पर हमले हुए, बहन-बेटियों की इज्ज़त लूटी गई, उनका सरेआम कत्लेआम किया गया, नरसंहार किया गया, लूटपाट की गई, उनको जमीन जायदाद और अपने घरों से बेदखल किया गया और इतना वीभत्स नरसंहार हुआ कि आज उसकी कल्पना मात्र से भी दिल कांप उठता है और पूरा का पूरा समुदाय अपनी ही ज़मीन से दर-ब-दर कर दिया गया। दिल्ली के जंतर-मंतर पर लगे उन अस्थायी कैंपों से लेकर आज भी विस्थापन का दर्द झेलते परिवारों तक — यह घाव आज भी हरा है। द कश्मीर फाइल पिक्चर में इसके अंश लोगों ने देखे हैं और वह उससे कल्पना कर सकते हैं, अनुमान लगा सकते हैं की फिल्म में जो अंश दिखाए गए उससे कई गुना अधिक उनकी भयानकता थी
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घाटी में पहले कश्मीरी पंडितों, सिखों और अन्य गैर-मुस्लिम समुदायों की उल्लेखनीय उपस्थिति और उनका बौद्धिक, प्रशासनिक तथा सांस्कृतिक योगदान रहा है। लेकिन कट्टरपंथी सोच और अलगाववादी मानसिकता ने वहां एकपक्षीय धार्मिक पहचान को जबरन स्थापित करने की कोशिश की — और काफी हद तक सफल भी हुए।

जनसंख्या का संतुलन क्यों ज़रूरी है?
कश्मीर घाटी की एकांगी जनसंख्या संरचना केवल सामाजिक असंतुलन का कारण नहीं है, बल्कि यह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी दीर्घकालिक खतरा है। जब घाटी में स्थानीय समर्थन के बल पर विदेशी आतंकवादी शरण पाते हैं, जब ‘ओवर ग्राउंड वर्कर’ आतंकियों को आश्रय एवं सूचनाएं भी देते हैं, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि समस्या केवल सीमा पार से नहीं, भीतर से भी है।

कश्मीर में एक वर्ग ऐसा है जो आतंकवादियों का खुला समर्थन करता है, और दूसरा वर्ग है जो व्यापार के लिए मीठी-मीठी बातें करता है, शांति के नाम पर मोमबत्तियां जलाकर जुलूस निकालता है। लेकिन यह उनकी दोहरी नीति है — आतंकवाद और व्यापार दोनों एक साथ नहीं चल सकते।

जो स्थानीय व्यापारी सच में शांति और ईमानदारी से व्यापार करना चाहता है, उसे यह बताना होगा कि कौन लोग आतंकवादियों को समर्थन दे रहे हैं, ताकि उनकी पहचान की जा सके और उन पर कार्रवाई की जा सके। अगर वह सच में ईमानदार है, तो उन्हें अपने आसपास की सच्चाई सरकार को बतानी होगी।

एक ओर मोमबत्तियाँ जलाकर शांति की बातें होती हैं, तो दूसरी ओर उसी मोहल्ले से आतंकवादियों को लॉजिस्टिक मदद मिलती है। ऐसे में अगर कोई यह कहे कि घाटी में आतंकवाद और व्यापार साथ-साथ चल सकते हैं, तो यह केवल एक राजनीतिक भ्रम होगा।

समाधान क्या है?
जनसांख्यिकीय परिवर्तन एक मात्र विकल्प नहीं है, लेकिन यह सबसे निर्णायक विकल्प ज़रूर है।
सरकार को चाहिए कि वह उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, बिहार और अन्य राज्यों के युवाओं, अग्नि वीरों, पूर्व सैनिकों, अर्धसैनिक बलों के रिटायर्ड अधिकारियों, ऐसे लोगों और व्यापारियों को जो अपने व्यापार का विस्तार कश्मीर में करना चाहते हैं तथा राष्ट्रप्रेम से ओत-प्रोत नागरिकों को घाटी में पुनर्वासित करने की योजना तैयार करे।
उन्हें:
भूमि, आवास और रोजगार व बैंकों से सुविधाजनक कर्ज की सुविधाएं दी जाएं,

वहां सम्मानजनक जीवन यापन की गारंटी हो,

और एक वर्ष की अनिवार्य सैन्य प्रशिक्षण देकर उन्हें सुरक्षा में भी सहभागी बनाया जाए।

यह रणनीति घाटी में स्थायी शांति और विकास के लिए आधार तैयार करेगी।
क्या यह व्यावहारिक है?

बिलकुल। धारा 370 के हटने के बाद जम्मू-कश्मीर में पहली बार भारतीय कानून और नीतियों को समान रूप से लागू करने का अवसर मिला है। निवेश बढ़ रहा है, नौकरियाँ पैदा हो रही हैं — लेकिन अगर इस बदलाव का लाभ केवल एक सीमित समुदाय तक ही रहे, तो ना तो यह लोकतंत्र के सिद्धांतों के हित में होगा और ना ही वहां के व्यापार और उद्योग जगत के सर्वांगीण विकास के लिए उचित होगा | क्योंकि सरकार जितना बड़ा विकास कश्मीर घाटी के लिए करना चाहती है उसके लिए उतने ही संसाधनों की और मानव श्रम की और मानवीय लोगों की जरूरत रहेगी और उसके लिए बाहर के राज्यों के लोगों को वहां विस्थापित करना आवश्यक है जो कि वहां के स्थानीय लोगों के हित में भी रहेगा और व्यापार उद्योग जगत के लोगों के भी हित में रहेगा |

कश्मीर की वास्तविक ‘विकास गाथा’ तब लिखी जाएगी, जब वहां का जनसंख्यिकीय संतुलन भारत के अन्य राज्यों की तरह बहुलतावादी और समावेशी होगा। यह न केवल विस्थापितों के साथ ऐतिहासिक न्याय होगा, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक स्थायी, सुरक्षित और समरस भारत की नींव भी होगी।

सरकार को अब संकोच नहीं, दृष्टिकोण और निर्णय क्षमता दिखाने की ज़रूरत है।
कश्मीर में अगर स्थायी समाधान चाहिए, तो डेमोग्राफिक चेंज ही वो निर्णायक चाबी है, जो दरवाज़ा खोल सकती है — शांति और समरसता का।

धन्यवाद,

सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक, इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री
पूर्व उपाध्यक्ष , जयपुर स्टॉक एक्सचेंज लिमिटेड
जयपुर, राजस्थान
suneelduttgoyal@gmail.com

Make the Census Digital: Towards One India, One Data Platform

भारत जैसे विशाल और विविधताओं से भरे देश में जनगणना सिर्फ जनसंख्या की गिनती नहीं होती, बल्कि यह देश की सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक दिशा तय करने का एक सशक्त माध्यम भी होती है। हर 10 वर्षों में होने वाली यह प्रक्रिया लाखों कर्मचारियों और हजारों करोड़ रुपये के बजट के साथ संपन्न होती है। लेकिन क्या अब समय नहीं आ गया है कि इस विशालतम डेटा संग्रह प्रणाली को डिजिटल युग की ओर अग्रसर किया जाए?

आज जब बैंकिंग, शिक्षा, स्वास्थ्य, वोटिंग, रेलवे बुकिंग, आधार कार्ड और पासपोर्ट तक की सेवाएं डिजिटल हो चुकी हैं, तब जनगणना जैसी महत्वपूर्ण प्रक्रिया को भी ऑनलाइन और तकनीकी रूप से सक्षम बनाना समय की माँग है।

क्यों जरूरी है डिजिटल जनगणना?

भारत सरकार के पास सैकड़ों विभाग हैं—स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक न्याय, महिला एवं बाल विकास, ग्रामीण विकास, नगर निकाय, राजस्व, कृषि, श्रम और रोज़गार, गृह मंत्रालय आदि। इन विभागों को समय-समय पर अलग-अलग सर्वेक्षण, फॉर्म और जनगणनाएँ करनी पड़ती हैं। इससे न केवल संसाधनों की बर्बादी होती है, बल्कि डेटा असंगत और अपूर्ण भी रहता है।

यदि एक ही बार में एक विस्तृत डिजिटल जनगणना आयोजित की जाए, तो देश की समस्त सामाजिक और आर्थिक स्थिति का समग्र डेटा एक स्थान पर उपलब्ध हो सकता है, जिससे नीतियाँ बनाना, योजनाओं को लागू करना और लाभार्थियों तक पहुंच सुनिश्चित करना अधिक सुगम हो जाएगा।

 

डिजिटल जनगणना में क्या-क्या जोड़ा जाए?

डिजिटल जनगणना के दौरान नागरिकों से विस्तृत जानकारी मांगी जानी चाहिए, जिससे सरकार की योजनाएं और नीतियां अधिक प्रभावी बन सकें। उदाहरणस्वरूप:

  • माता-पिता और पति/पत्नी की राष्ट्रीयता, एकल या दोहरी नागरिकता, धर्म, जाति, उपजाति, पासपोर्ट की स्थिति, ड्राइविंग लाइसेंस, राशन कार्ड एवं उनका स्थाई व वर्तमान निवास का पता — चाहे देश में हो या विदेश में।
  • बच्चों की जानकारी — वे किसके साथ रहते हैं, उनकी आयु, शिक्षा, और क्या वे देश में हैं या विदेश में।
  • आवास और संपत्ति विवरण — स्वयं का मकान है या नहीं, कितनी संपत्तियां हैं, क्या वे किराये पर रह रहे हैं या खुद के घर में और उनके स्वामित्व में उपलब्ध वाहनों की जानकारी।
  • आर्थिक जानकारी — नागरिक की आय का स्रोत, वार्षिक आमदनी, व्यवसाय, नौकरी की स्थिति, क्या वह नरेगा या अन्य केन्द्रीय या राज्य सरकारी योजनाओं का लाभार्थी है।
  • परिवार के सदस्यों की आमदनी — पत्नी, बच्चों की रोजगार की स्थिति एवं संभावित आय भी दर्ज की जानी चाहिए।
  • सरकारी लाभ और सामाजिक वर्गीकरण — क्या वे पिछड़े वर्ग में आते हैं, अनुसूचित जाति/जनजाति हैं, या किसी अन्य आरक्षित वर्ग के सदस्य हैं।
  • दिव्यांगता की स्थिति — अगर व्यक्ति दिव्यांग है (पूर्व में जिसे विकलांगता कहा जाता था), तो उसकी स्पष्ट जानकारी भी दर्ज होनी चाहिए।
  • लिंग विविधता की मान्यता — जनगणना फॉर्म में ट्रांसजेंडर नागरिकों के लिए एक अलग कॉलम अनिवार्य रूप से जोड़ा जाना चाहिए, ताकि इस समुदाय को उचित सम्मान और मुख्यधारा में स्थान दिया जा सके।

एशिया के कई देशों ने ट्रांसजेंडर समुदाय को सम्मानजनक स्थिति दी है। भारत को भी यह दिखाना होगा कि वह अपने सभी नागरिकों को समान अधिकार देता है।

नेशनल सैंपल सर्वे (एनएसएसओ) का एकीकरण

जनगणना प्रक्रिया को एनएसएसओ (नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस) के डाटा इनपुट और सैंपल सर्वे ढांचे से जोड़कर और अधिक प्रभावी बनाया जा सकता है। इससे न केवल आंकड़े बेहतर और वैज्ञानिक होंगे, बल्कि भविष्य की योजनाओं और अनुसंधान कार्यों में भी इसकी उपयोगिता बढ़ेगी। एनएसएसओ द्वारा वर्षों से एकत्रित सैंपल डेटा का मिलान अगर जनगणना के विस्तृत डेटा से हो, तो कई सामाजिक-आर्थिक विसंगतियों का अनुमान लगाया जा सकता है एवं उनका उचित निराकरण भी किया जा सकता है।

इन सूचनाओं को पहले से उपलब्ध सरकारी डेटाबेस जैसे UIDAI, NSDL, चुनाव आयोग, परिवहन विभाग, और राजस्व विभाग से आंशिक रूप से सत्यापित किया जा सकता है।

संभावित लाभ

  1. समग्र नागरिक प्रोफाइल: एक व्यक्ति की शिक्षा, आय, निवास, संपत्ति, दस्तावेज़, व्यवसाय आदि की जानकारी एक जगह संग्रहीत होगी। 
  2. डिजिटल KYC सिस्टम: सभी सरकारी सेवाओं के लिए अलग-अलग KYC की जरूरत नहीं होगी। 
  3. सार्वजनिक योजनाओं का लाभ: पात्रता सत्यापन तेज होगा और गलत एवं फ़र्ज़ी लाभार्थियों को रोका जा सकेगा। 
  4. विभागीय विलय और दक्षता: जैसे GST लागू होने से 25 से अधिक विभागों का विलय हुआ, वैसे ही डिजिटल जनगणना से दर्जनों सर्वेक्षणों और विभागों को समेकित किया जा सकता है। 
  5. पारदर्शिता और जवाबदेही: डुप्लिकेट रिकॉर्ड्स, फर्जी लाभार्थियों और अवैध गतिविधियों पर अंकुश लगेगा। 
  6. नवीन नीतियाँ और योजनाएँ: सरकार को सही जानकारी के आधार पर ज़रूरतमंद क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करने में मदद मिलेगी। 

क्या सब डिजिटल जनगणना भर पाएंगे?

यह एक उचित प्रश्न है कि भारत के कई ग्रामीण और तकनीकी रूप से पिछड़े क्षेत्र अभी डिजिटल साक्षरता से दूर हैं। लेकिन इसका समाधान यह नहीं है कि डिजिटल जनगणना न की जाए, बल्कि इसका हल यह है कि जो नागरिक स्वयं जानकारी भर सकते हैं, वे ऑनलाइन भरें, और जो नहीं भर सकते, उनका डेटा जनगणना ड्यूटी में लगे सरकारी कर्मचारी या अधिकारी भरें।

यह हाइब्रिड मॉडल हमारे देश की विविधताओं को ध्यान में रखते हुए अधिक उपयुक्त और व्यावहारिक होगा।

जातिगत जनगणना को भी शामिल किया जाए

जब जनगणना डिजिटल होगी, तो जाति, धर्म, उपजाति, शैक्षणिक योग्यता, पेशा और आय के आंकड़े भी स्वचालित रूप से प्राप्त हो सकेंगे। इससे नीति निर्धारण और आरक्षण की समीक्षा जैसे संवेदनशील विषयों पर पारदर्शी और सटीक निर्णय लिए जा सकेंगे।

सरकार के पास पहले से अनुसूचित जातियों और जनजातियों की सूची है, जिसे जनगणना फॉर्म में ड्रॉपडाउन के रूप में जोड़ा जा सकता है। इससे लोग अपनी जाति से संबंधित जानकारी एकरूपता से भर सकेंगे।

क्या यह सुरक्षित होगा?

डेटा सुरक्षा और गोपनीयता इस प्रक्रिया का मूल हिस्सा होना चाहिए। फॉर्म को एंड-टू-एंड एन्क्रिप्शन, मल्टीफैक्टर ऑथेंटिकेशन, और सिर्फ वैध सरकारी उपयोग के लिए सीमित करना आवश्यक है। साथ ही डेटा का भंडारण भारत के भीतर ही होना चाहिए।

निष्कर्ष

प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत ने डिजिटल इंडिया, जीएसटी, और आधार जैसी ऐतिहासिक पहलें की हैं। अब समय आ गया है कि जनगणना जैसे सबसे बड़े डेटा संग्रह को भी तकनीकी रूप से सक्षम बनाया जाए।

हमारा सरकार से आग्रह है कि 2025 या उसके पश्चात होने वाली जनगणना को डिजिटल माध्यम से भी अनिवार्य रूप से संचालित किया जाए। इससे एक ऐसा डेटा बैंक तैयार होगा जो भारत को योजनाओं, पारदर्शिता, जवाबदेही और विकास की नई ऊँचाइयों पर ले जाएगा।

 

धन्यवाद,


सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक, इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री
पूर्व उपाध्यक्ष, जयपुर स्टॉक एक्सचेंज लिमिटेड
जयपुर, राजस्थान
suneelduttgoyal@gmail.com

भारत ने बांग्लादेश को दिया कड़ा झटका, ट्रांसशिपमेंट सुविधा बंद करने से डगमगाई ढाका की अर्थव्यवस्था

मोहम्मद यूनुस, जिन्हें एक ‘डीप स्टेट’ का समर्थक माना जाता है, शायद यह भूल गए हैं कि यह भारत अब पहले जैसा नहीं रहा। ना तो उन्हें व्यापार का ज्ञान है,ना ही राजनीति की उतनी समझ है जितनी होनी चाहिए।

आज का भारत पहले से कहीं अधिक सशक्त और आत्मनिर्भर है। वह अब किसी भी प्रकार के दबाव की राजनीति में नहीं आता। यूनुस यदि अपने कंधे दूसरों को इस्तेमाल करने के लिए देते रहेंगे, तो यह न केवल बांग्लादेश के लिए खतरा बन सकता है, बल्कि पूरे क्षेत्रीय संतुलन को भी बिगाड़ सकता है।

उन्हें समझना चाहिए कि बांग्लादेश की राजनीतिक दिशा कोई ऐसा मुद्दा नहीं है जिस पर बाहरी सलाह या प्रभाव के आधार पर काम किया जाए। यदि वे अपने देश की नीतियों को किसी अन्य देश की सलाह पर आधारित करेंगे, तो वह दिन दूर नहीं जब बांग्लादेश भी ग़लत राह पर चल पड़ेगा — शायद उसी ‘कंगाली’ के रास्ते पर, जिस पर पहले भी कई देश फिसल चुके हैं।

भारत और बांग्लादेश के रिश्तों में अचानक तल्खी आ गई है। भारत ने बांग्लादेश को दी जाने वाली बहुप्रतीक्षित ट्रांसशिपमेंट सुविधा पर रोक लगाकर एक स्पष्ट और कड़ा संदेश दिया है – ‘राष्ट्रहित सर्वोपरि है।’ यह निर्णय उस समय आया है जब बांग्लादेश के नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद यूनुस ने चीन में भारत विरोधी बयान दिए। परंतु यह केवल एक प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि एक रणनीतिक चाल है, जिसका दूरगामी असर बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाला है।

ट्रांसशिपमेंट सुविधा क्यों थी बांग्लादेश के लिए जीवनरेखा?
बांग्लादेश, विशेषकर रेडीमेड गारमेंट्स और फुटवियर उद्योग के लिए भारत का लॉजिस्टिक सहयोग एक जीवनरेखा जैसा था। बांग्लादेश के बंदरगाह – चटगांव और मोंगला – सीमित क्षमता के कारण अत्यधिक भीड़भाड़ और समय की बर्बादी से जूझते हैं। ऐसे में भारत के कोलकाता, दिल्ली, मुंबई और अन्य बंदरगाहों और हवाई अड्डों के माध्यम से ट्रांसशिपमेंट सुविधा मिलने से बांग्लादेश को यूरोप, अमेरिका और मध्य एशिया के बाजारों तक तेज़ और सस्ते निर्यात की सुविधा मिली थी।

भारत के जरिए होने वाले ट्रांसशिपमेंट से न केवल समय और लागत में कमीआई, बल्कि बांग्लादेशी निर्यातकों को वैश्विक प्रतिस्पर्धा में बने रहने का मौका दिया। यही कारण था कि वर्ष 2024 में केवल पेट्रापोल सीमा से ₹357 करोड़ मूल्य का ट्रांसशिपमेंट हुआ।

भारत का कड़ा फैसला – कारण केवल यूनुस के बयान नहीं
हालांकि यूनुस के बयान ट्रिगर प्वाइंट साबित हुए, लेकिन भारत के इस फैसले के पीछे कई अन्य रणनीतिक पहलू भी हैं:
पूर्वोत्तर राज्यों को ‘लैंडलॉक्ड’ बताकर दबाव की रणनीति अपनाना: यूनुस ने यह कहा कि भारत के पूर्वोत्तर राज्य समुद्र से कटे हुए हैं और उन्हें केवल बांग्लादेश के रास्ते ही दुनिया से जोड़ा जा सकता है। यह एक रणनीतिक ब्लैकमेल की कोशिश थी, जिसे भारत ने अस्वीकार कर दिया।

चीन को आमंत्रण: यूनुस ने बांग्लादेश में चीनी निवेश को बढ़ावा देने का अनुरोध किया, जो भारत के लिए सुरक्षा और भू-राजनीतिक दृष्टिकोण से गंभीर चिंता का विषय है।

सीमा सुरक्षा पर बढ़ती चिंताएं: बांग्लादेश की सीमा से अक्सर अवैध घुसपैठ, मादक पदार्थों की तस्करी, और रोहिंग्या शरणार्थियों की समस्या जैसे मुद्दे भारत को परेशान करते हैं।

भारत के फैसले के आर्थिक और सामाजिक प्रभाव – बांग्लादेश के लिए विनाशकारी परिदृश्य

गारमेंट इंडस्ट्री पर सीधा प्रहार:
बांग्लादेश की जीडीपी का लगभग 16% और कुल निर्यात का 83% रेडीमेड गारमेंट्स से आता है। यदि भारत के रास्ते शिपिंग रुकती है, तो समय और लागत दोनों में तेज़ी से वृद्धि होगी। इससे बांग्लादेश की प्रतिस्पर्धात्मकता घटेगी और ऑर्डर्स वियतनाम, कंबोडिया व भारत जैसे प्रतिस्पर्धियों को मिल सकते हैं।

विदेशी निवेश में गिरावट:
विदेशी कंपनियाँ, जो अब तक बांग्लादेश को एक कम लागत वाला मैन्युफैक्चरिंग हब मानती थीं, भारत से दुश्मनी और चीन के साथ बढ़ती नज़दीकियों को देखकर निवेश कम कर सकती हैं। राजनीतिक अस्थिरता का डर विदेशी पूंजी को दूर धकेल सकता है।

भूगोलिक निर्भरता अब अभिशाप बनेगी:
बांग्लादेश, भारत से तीन ओर से घिरा हुआ है। भारत से संबंध खराब होने का मतलब है – भूमि, वायु और जलमार्गों तक सीमित पहुंच। कोई भी वैकल्पिक मार्ग जैसे चीन के जरिए निर्यात, न केवल महंगे हैं, बल्कि अव्यवहारिक भी।

भारतीय टूरिज़्म और मेडिकल वीज़ा का बंद होना:
हजारों बांग्लादेशी नागरिक भारत में इलाज के लिए आते हैं। अगर संबंध बिगड़े तो मेडिकल वीज़ा, उच्च शिक्षा और टूरिज्म वीज़ा बंद हो सकते हैं, जिससे मध्यम वर्ग पर सीधा असर होगा।

रोज़गार में भारी गिरावट:
गारमेंट इंडस्ट्री से जुड़े करोड़ों लोगों की नौकरियों पर संकट आ सकता है। पहले से ही महंगाई और बेरोज़गारी की मार झेल रहा बांग्लादेश सामाजिक अशांति की ओर बढ़ सकता है।

भूटान, नेपाल और म्यांमार के व्यापार मार्ग भी बंद हो सकते हैं:
बांग्लादेश भारत के माध्यम से भूटान और नेपाल को भी वस्तुएं भेजता था। भारत के रास्ते बंद होने से ये बाजार भी खो सकते हैं।

भारत के साथ व्यापार घाटा बढ़ेगा, लेकिन व्यापार खत्म हो सकता है:
बांग्लादेश भारत से हर साल लगभग 13-14 अरब डॉलर का सामान आयात करता है। यदि भारत प्रतिबंध लगाता है तो रोज़मर्रा की ज़रूरतें जैसे दवाइयाँ, मसाले, इंजीनियरिंग सामान और औद्योगिक मशीनरी महंगे या दुर्लभ हो सकते हैं।

भारत को क्या फायदा?
अपने बंदरगाहों पर लोड कम करके भारतीय निर्यातकों को बढ़त मिलेगी।

गारमेंट, फुटवियर, इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे क्षेत्रों में भारत की ग्लोबल हिस्सेदारी बढ़ेगी।

भूटान और नेपाल के साथ रणनीतिक संबंध और मजबूत होंगे।

चीन और बांग्लादेश की नज़दीकी को नियंत्रित करने का दबाव बनाए रखा जा सकेगा।

निष्कर्ष: दुश्मनी की कीमत भारी पड़ेगी
बांग्लादेश को यह समझना होगा कि भारत से कूटनीतिक और भू-राजनीतिक दुश्मनी का सीधा असर उसकी अर्थव्यवस्था, सामाजिक स्थिरता और अंतरराष्ट्रीय छवि पर पड़ेगा।
हर छोटे और विकासशील देश को यह समझना चाहिए कि किसी भी अंतरराष्ट्रीय समझौते में अपने पड़ोसी देश की क्षमताओं, हितों और सुरक्षा को ध्यान में रखना ज़रूरी होता है। पड़ोसी देश हमेशा पड़ोसी रहेंगे, और अच्छे संबंध ही स्थायी हित में होते हैं।

पाकिस्तान का उदाहरण सामने है, जिसने पिछले 75 वर्षों में भारत के साथ आतंकवाद और अनुचित व्यवहार को ही चुना — और आज वही आतंकवाद पाकिस्तान की नीयत और हालत पर भारी पड़ रहा है।
भारत ने अपने रुख से यह साफ कर दिया है कि वह अब ‘सॉफ्ट स्टेट’ नहीं रहा। यदि कोई देश उसकी सुरक्षा, भू-रणनीति या वर्चस्व को चुनौती देता है, तो भारत प्रतिरोध करने को तैयार है – और अब वह प्रतिरोध न केवल शब्दों में बल्कि रणनीतिक नीतियों के ज़रिए होगा।

मोहम्मद यूनुस को यह समझना चाहिए कि वह फिलहाल केवल बांग्लादेश सरकार के एक सलाहकार हैं, प्रधानमंत्री नहीं। उनका चयन चुनाव के माध्यम से नहीं हुआ है, बल्कि एक प्रक्रिया द्वारा नामांकित किया गया है। उन्हें अपनी सीमाएं, मर्यादाएं और जिम्मेदारियों को समझना चाहिए।
अगर वह अपने पद की गरिमा बनाए रखते हुए कार्य करेंगे, और बांग्लादेश के हित में सोचेंगे, तभी उनका देश भी सशक्त बन पाएगा — अन्यथा यह केवल किसी अन्य देश के हित साधन का माध्यम बन जाएगा।

धन्यवाद,

सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक, इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री
जयपुर, राजस्थान
suneelduttgoyal@gmail.com

राजघाट पर स्मृति स्थल में भेदभाव? सरदार पटेल, डॉ. अंबेडकर और डॉ. राजेंद्र प्रसाद को क्यों नहीं मिली जगह?

देश की राजधानी दिल्ली में यमुना के किनारे स्थित राजघाट पर महात्मा गांधी की समाधि है। इसी स्मृति स्थल पर देश के कई शीर्ष नेताओं की समाधियां बनाई गई हैं, लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या सभी प्रमुख नेताओं को यहां समान रूप से स्थान मिला है?

इस स्मृति स्थल पर भारत को एकता के सूत्र में पिरोने वाले सरदार वल्लभभाई पटेल की समाधि नहीं है। संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर और संविधान सभा के अध्यक्ष रहे डॉ. राजेंद्र प्रसाद की समाधि भी यहां नहीं है। हालांकि, एक ही परिवार के चार सदस्यों—पंडित जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और संजय गांधी—की समाधियां यहां मौजूद हैं। यह व्यवस्था यह संकेत देती है कि देश के लिए सबसे अधिक योगदान इसी परिवार का रहा है, जबकि अन्य नेताओं के योगदान को उतना महत्वपूर्ण नहीं माना गया।

पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की समाधि को लेकर विवाद

हाल ही में, देश के पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के निधन के बाद कांग्रेस ने मांग उठाई कि उनकी समाधि स्मृति स्थल में बनाई जाए। सरकार ने उनकी समाधि बनाने पर सहमति जताई, लेकिन अंतिम संस्कार वाली जगह पर नहीं। मनमोहन सिंह का अंतिम संस्कार दिल्ली के निगमबोध घाट पर हुआ था, जिसके बाद उनके परिवार को स्मृति स्थल में समाधि के लिए स्थान चुनने का प्रस्ताव दिया गया।

क्या स्मृति स्थल में समाधि बनाने के लिए नैतिक मापदंड हैं?

यह विचारणीय प्रश्न है कि स्मृति स्थल पर किन नेताओं की समाधि होनी चाहिए? क्या ऐसे नेता, जिन्होंने जब भी अवसर आया, देश और परिवार के बीच चुनाव करते समय परिवार को प्राथमिकता दी, वहां समाधि के योग्य हैं? क्या ऐसे नेता, जिनके कार्यकाल में आतंकवादियों को निर्दोष घोषित किया गया, जिनके शासन में पाकिस्तान लगातार हमले करता रहा और मुंबई हमला जैसी घटनाएं हुईं, वहां समाधि पाने के हकदार हैं? 

डॉ. मनमोहन सिंह का 10 वर्षों का कार्यकाल विभिन्न घोटालों और विवादों से भरा रहा। उनके प्रधानमंत्री रहते हुए कोयला घोटाला, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, और कॉमनवेल्थ घोटाले जैसे मामलों ने देश की राजनीति को हिला दिया था। उनके कार्यकाल में पारदर्शिता और जवाबदेही पर गंभीर प्रश्न खड़े हुए।

आर्थिक सुधारों के बावजूद आलोचनाएं

डॉ. मनमोहन सिंह को देश की अर्थव्यवस्था में सुधार लाने का श्रेय दिया जाता है, लेकिन क्या यह उपलब्धि पूरी तरह से उनकी थी? 1991 में, जब भारत आर्थिक संकट से जूझ रहा था, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव ने उन्हें वित्त मंत्री नियुक्त किया। यह कहा जाता है कि नरसिंह राव ने सभी प्रमुख आर्थिक फैसले लिए, लेकिन पूरा श्रेय डॉ. मनमोहन सिंह को मिला।

इसके अलावा, 1990 में इंग्लैंड में हुई एक गुप्त बैठक में कुछ अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने सुझाव दिया था कि विभिन्न देशों की अर्थव्यवस्थाओं को निजी क्षेत्र के लिए खोला जाए। इस बैठक के बाद, भारत की आर्थिक नीतियों में बड़े बदलाव आए, जिनमें विनिवेश, उदारीकरण और निजीकरण शामिल थे। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि इन सुधारों के पीछे विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) का दबाव था, और मनमोहन सिंह केवल एक कार्यान्वयनकर्ता थे।

 

राजनीतिक असहायता और आत्मसम्मान की कमी

मनमोहन सिंह के कार्यकाल में कई ऐसे उदाहरण सामने आए, जिनमें उनकी नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठे। एक ऐसा प्रधानमंत्री, जो एक आतंकवादी यासीन मलिक—जिसके ऊपर भारतीय वायुसेना के तीन अधिकारियों की हत्या का मुकदमा चल रहा था—उसे अपने प्रधानमंत्री कार्यालय में बुलाता है, और खड़े होकर उससे हाथ मिलाकर गर्मजोशी से उसका स्वागत करता है जैसे वो आतंकी कोई राष्ट्राध्यक्ष के समान हो। जब मैंने यह दृश्य टीवी और समाचार पत्रों में देखा, तो मेरा खून खौल उठा। मैं सोचने पर मजबूर हो गया कि इतना निर्बल और निर्णयहीन प्रधानमंत्री हमारे देश का कैसे हो सकता है?

एक ऐसा प्रधानमंत्री, जिसे न अपनी गरिमा की परवाह थी और न ही अपने पद की प्रतिष्ठा का ख्याल। उनके कैबिनेट द्वारा सर्वसम्मति से पारित एक फैसले को उनकी ही पार्टी के एक सामान्य सांसद—श्री राहुल गांधी—ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में सार्वजनिक रूप से फाड़ दिया। यह घटना उस समय घटी जब डॉ. मनमोहन सिंह विदेश यात्रा पर थे, और पूरी दुनिया के मीडिया ने इसे देखा। यदि उनमें ज़रा भी आत्मसम्मान होता, तो उसी समय इस्तीफा दे देते। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि उनके लिए एक विशेष परिवार के प्रति निष्ठा और पद से चिपके रहने की भावना अधिक महत्वपूर्ण थी।

इस देश ने पहले कभी इतना बेबस और निर्णयविहीन प्रधानमंत्री नहीं देखा। ईश्वर से प्रार्थना है कि भविष्य में हमें फिर कभी ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण समय न देखना पड़े।

एक ऐसा प्रधानमंत्री, जिनके 10 वर्षों के कार्यकाल में पाकिस्तान लगातार भारत पर हावी रहा। आए दिन बम धमाके, विस्फोट और आतंकवादी गतिविधियाँ होती रहीं। कश्मीर में अलगाववादी आंदोलन चरम पर थे। लेकिन कभी भी प्रधानमंत्री महोदय में इतनी हिम्मत नहीं हुई कि वह कोई कठोर कदम उठाते—सामान्य प्रतिक्रिया देना तो दूर की बात थी।

दूसरी ओर, हमारा पड़ोसी देश चीन भी अपनी मनमर्जी करता रहा, सीमाओं पर अतिक्रमण करता रहा, और भारत की संप्रभुता को चुनौती देता रहा। दुर्भाग्य है कि ऐसा व्यक्ति एक दशक तक भारत का प्रधानमंत्री रहा।

 

क्या स्मृति स्थल केवल एक परिवार के लिए आरक्षित है?

राजघाट पर स्मृति स्थल में समाधि बनाने की परंपरा पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। यदि यह स्थान राष्ट्रीय स्मारक है, तो क्या यह सभी प्रमुख नेताओं के लिए समान रूप से खुला नहीं होना चाहिए? क्यों सरदार पटेल, डॉ. अंबेडकर और डॉ. राजेंद्र प्रसाद जैसे महान नेताओं को यह सम्मान नहीं दिया गया? और क्या घोटालों और विवादों से घिरे नेताओं को इस स्थान पर समाधि बनाने की अनुमति दी जानी चाहिए?

यह प्रश्न केवल डॉ. मनमोहन सिंह के समाधि स्थल से संबंधित नहीं है, बल्कि यह भारतीय राजनीति में वंशवाद, पक्षपात और ऐतिहासिक भेदभाव की ओर भी इशारा करता है। यह भी उल्लेखनीय है कि हिंदू धर्म में पारंपरिक रूप से समाधि या कब्र के रूप में स्मारक बनाने की कोई अवधारणा नहीं रही है, जैसी कि ईसाई, यहूदी या इस्लाम धर्म में पाई जाती है। इस्लाम में भी सुन्नी मुसलमान आमतौर पर मज़ार नहीं बनाते। हिंदू धर्म में मृतकों का अंतिम संस्कार दाह क्रिया द्वारा किया जाता है, और उनकी राख को गंगा जैसी पवित्र नदियों में विसर्जित किया जाता है। ऐसे में यह सवाल और भी गंभीर हो जाता है कि एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में स्मृति स्थलों की परंपरा को कुछ विशेष राजनैतिक परिवारों तक सीमित क्यों रखा गया है?

अब समय आ गया है कि सरकार इस पर विचार करे और स्मृति स्थल में समाधि के लिए स्पष्ट और निष्पक्ष मापदंड स्थापित करे।

 

धन्यवाद,


सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक, इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री
जयपुर, राजस्थान
suneelduttgoyal@gmail.com

ट्रंप के टैरिफ का तूफान: 5 ट्रिलियन डॉलर अमेरिकी संपत्ति का नुकसान भारतीय अर्थव्यवस्था के बराबर, अब ज़रूरी है सतर्क रणनीति

एक समय था जब दुनिया एक साझा नियमों और वैश्विक सहयोग के दौर से गुजर रही थी। वैश्वीकरण और मुक्त व्यापार के उस युग में ऐसा लगता था कि सभी देश मिलकर आगे बढ़ सकते हैं — एक “विन-विन” सिस्टम, जहाँ हर किसी को फायदा हो।

लेकिन अब वो दौर बीत चुका है।
अमेरिका ने हाल ही में ‘लिबरेशन डे’ पर जिस तरह से नई टैरिफ नीति का ऐलान किया है, वह दुनिया की आर्थिक धारा को ही मोड़ता नज़र आ रहा है। अब यह स्पष्ट हो गया है कि नियमों पर आधारित वैश्विक व्यापार व्यवस्था का अंत हो चुका है — और हम एक नए, कहीं ज़्यादा अनिश्चित और ख़तरनाक युग में प्रवेश कर चुके हैं।

चीन और अमेरिका के बीच चल रहा व्यापार युद्ध (Trade War) अब एक खतरनाक मोड़ पर पहुँच चुका है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा हाल ही में घोषित नए टैरिफ्स के बाद ना सिर्फ अमेरिकी बाजारों में हाहाकार मचा है, बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था की स्थिरता पर भी गंभीर सवाल उठ खड़े हुए हैं। इस बार अमेरिका और चीन के बीच आर्थिक टकराव ने जो रूप लिया है, उसका असर पूरी दुनिया पर दिख रहा है — खासतौर पर उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं और बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर।

5 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान: अमेरिकी संपत्ति का विनाश, भारत की GDP के बराबर
ट्रंप द्वारा चीन से आने वाले सेमीकंडक्टर और तकनीकी उत्पादों पर उच्च टैरिफ लगाने के ऐलान के बाद, वॉल स्ट्रीट में तेज़ गिरावट दर्ज की गई। अनुमान के अनुसार, अमेरिकी कंपनियों और निवेशकों को कुल मिलाकर लगभग 5 ट्रिलियन डॉलर (करीब ₹435 लाख करोड़) का नुकसान हुआ है।
यह रकम भारत की पूरी अर्थव्यवस्था (GDP) के बराबर है, जो वैश्विक मंच पर एक तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था मानी जाती है।

यहां यह देखना अत्यंत आवश्यक है कि भारत जैसा विशाल देश, जहां आज़ादी के लगभग 80 वर्ष पूरे होने को हैं, अपनी अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंचाने के लिए पिछले 11 वर्षों से पूरी मोदी सरकार अथक प्रयास कर रही है। वहीं ट्रंप साहब के एक फैसले ने पूरे विश्व की आर्थिक और व्यापारिक संरचना को झकझोर कर रख दिया है।
इस तथ्य से यह स्पष्ट होता है कि एक गलत नीति निर्णय कैसे किसी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक स्तर पर हिला सकता है।

ट्रंप की आक्रामक नीति और चीन की प्रतिक्रिया
डोनाल्ड ट्रंप पहले ही चीन से आयातित $550 अरब डॉलर के उत्पादों पर 25% से अधिक का टैरिफ लगा चुके हैं। इस नीति का उद्देश्य था अमेरिकी बाजार को “चीन पर निर्भरता” से मुक्त करना और घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देना। लेकिन इसके परिणाम अब स्पष्ट रूप से नकारात्मक दिखने लगे हैं।
जवाब में चीन ने अमेरिका से आयात होने वाले 16 सेमीकंडक्टर उत्पादों पर 34% तक का टैरिफ लगाया है और कुछ पर प्रतिबंध भी लगाया है। यह कदम सीधे अमेरिकी टेक्नोलॉजी सेक्टर को निशाना बनाता है, जिससे अमेरिकी कंपनियाँ मुश्किल में आ गई हैं।

अब कैसा दिखेगा ये नया दौर?
अमेरिका, जो दशकों तक वैश्विक मुक्त व्यापार प्रणाली का सबसे बड़ा समर्थक था, अब उस पूरी प्रणाली से पीछे हट गया है। वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गनाइज़ेशन (WTO) जैसी संस्थाओं के ज़रिये दुनिया भर में जो नियम-क़ायदे बने थे, उन्हें अब नजरअंदाज किया जा रहा है।
अमेरिका अब देश-दर-देश अलग-अलग टैरिफ तय कर रहा है — जिसे वो “रिसिप्रोकल टैरिफ” कह रहा है।
यानी अब यह तय नहीं होगा कि किसी उत्पाद पर कितना शुल्क लगेगा, बल्कि यह देखा जाएगा कि कौन-सा देश अमेरिका को क्या देता है — और उसी के आधार पर टैक्स तय होंगे।

एक छोटा लेकिन खतरनाक कदम
शायद किसी एक देश पर लगने वाला 10% टैरिफ ज्यादा बड़ा मुद्दा न लगे। लेकिन असली चिंता इस कदम के पीछे की सोच है।
अगर बाकी देश भी यही रवैया अपनाते हैं — कि WTO के नियमों को दरकिनार करके वे भी केवल अपनी शर्तों पर ट्रेड करेंगे — तो पूरी दुनिया की सप्लाई चेन चरमरा सकती है। छोटे और विकासशील देश, जिनकी अर्थव्यवस्था विदेशी व्यापार पर निर्भर है, हाशिए पर चले जाएंगे, उन्हें वैश्विक व्यापार से बाहर किया जा सकता है।

वैश्विक मंदी का खतरा मंडरा रहा है
अमेरिका के इस फैसले के असर से वॉल स्ट्रीट में 5 ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा की पूंजी उड़ गई — जो भारत की कुल अर्थव्यवस्था (GDP) के बराबर है। सोचिए, एक नीति की घोषणा से अमेरिका ने जितनी संपत्ति गंवाई, वो एक पूरे देश की सालाना आर्थिक गतिविधियों के समान है।

ऐसे में ज़रूरत है कि आने वाले फैसलों को बेहद सावधानी से लिया जाए। अगर यही रुख जारी रहा तो वैश्विक व्यापार युद्ध को रोकना मुश्किल होगा।
कई देशों ने पहले ही जवाबी टैरिफ की तैयारी शुरू कर दी है — यूरोपियन यूनियन, कनाडा, मैक्सिको जैसे देश अब खुद अमेरिकी उत्पादों पर भारी शुल्क लगाने पर विचार कर रहे हैं।

इतिहास की चेतावनी
दुनिया ने इससे पहले ऐसा दौर 1930 के दशक में देखा था, जब व्यापार युद्धों ने आर्थिक मंदी को जन्म दिया, और आगे चलकर यह हालात द्वितीय विश्व युद्ध तक पहुंच गए। अगर अब भी वैश्विक समुदाय ने संयम नहीं दिखाया, तो हालात दोहराए जा सकते हैं।

अंतरराष्ट्रीय नियम टूट रहे हैं
आज की हकीकत यही है कि वैश्विक संस्थाएं कमजोर हो रही हैं। देशों के बीच सहयोग की बजाय प्रतिस्पर्धा और स्वार्थ हावी हो रहा है। बड़ी अर्थव्यवस्थाएं अब ताक़त और दबाव के बल पर अपने फ़ैसले थोप रही हैं।
इस माहौल में छोटे और खुली अर्थव्यवस्था वाले देशों के लिए यह दौर खासा चुनौतीपूर्ण हो सकता है। उन्हें या तो बड़ी शक्तियों की शर्तें माननी होंगी या फिर बाहर कर दिए जाएंगे।

क्या करना होगा अब?
अब देश को न सिर्फ आर्थिक स्तर पर, बल्कि मानसिक रूप से भी तैयार रहना होगा। व्यापार में गिरावट, निवेश में संकोच और कच्चे माल की कीमतों में उथल-पुथल जैसे झटकों के लिए तैयार रहना जरूरी है।
मज़बूत साझेदारियाँ, रणनीतिक निवेश और आंतरिक क्षमता का निर्माण — यही रास्ता है, जिससे कोई देश खुद को इन वैश्विक हलचलों के बीच खड़ा रख सकता है।

निष्कर्ष: ये नया वैश्विक यथार्थ है
ये कोई अस्थायी संकट नहीं है। यह एक नई वैश्विक व्यवस्था की शुरुआत है। ऐसे में यह मानना कि पुराने नियम और सुरक्षा कवच अब भी काम करेंगे, एक भ्रम होगा।

जो देश अभी से सतर्क और संगठित हैं, वही इस वैश्विक तूफान में टिक पाएंगे। बाकियों के लिए आने वाला समय और भी कठिन हो सकता है।

मुझे ऐसा लगता है कि कहीं ऐसा न हो कि अमेरिका के भीतर ही लोगों में गहरा असंतोष उत्पन्न हो, जो या तो किसी सिविल वॉर (गृहयुद्ध) का रूप ले ले, या वहां मध्यावधि चुनाव की नौबत आ जाए, या फिर ट्रंप की पार्टी कोई और बड़ा फैसला ले ले — जो निश्चित रूप से जोखिम भरा और चौंकाने वाला हो सकता है।

मैं हमेशा से यह कहता आया हूं कि विश्व के किसी भी नेता, राजनेता, अर्थशास्त्री या किसी भी महत्वपूर्ण पद पर बैठे व्यक्ति को ऐसे संवेदनशील वक्तव्यों से बचना चाहिए। कोई भी बड़ा फैसला लेने से पहले यह तुलनात्मक अध्ययन करना अत्यंत आवश्यक है कि उस फैसले का प्रभाव सबसे पहले उनकी राजनीति पर, फिर उनकी जनता पर, और उसके बाद उनकी अर्थव्यवस्था तथा शेयर बाजार के मार्केट कैपिटलाइज़ेशन पर क्या असर डालेगा।

हमने भारत में भी यह कई बार देखा है — सरकारें कभी-कभी 1000 से 2000 करोड़ रुपये के टैक्स लगाने की लालसा में 10,000 से 20,000 करोड़ रुपये के मार्केट कैपिटलाइज़ेशन को गंवा देती हैं। नुकसान आम जनता का होता है — सरकारों और नेताओं पर इसका सीधा असर नहीं पड़ता।

लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बैठे हुए उच्च पदों के लोगों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे संवेदनशीलता, सहनशीलता, और विवेक का प्रदर्शन करें और हर कदम सोच-समझकर उठाएं।

मुझे उम्मीद है कि आने वाले एक से डेढ़ महीने में इन परिस्थितियों में बड़े बदलाव देखने को मिलेंगे। यह भी संभव है कि ट्रंप सरकार को बड़ा रोलबैक करना पड़े। जब पूरा विश्व एक स्वर में जागेगा, तो कोई भी देश — चाहे वह कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो — दबाव में आए बिना नहीं रह पाएगा।
और यही तो लोकतंत्र की असली खूबसूरती और ताकत है।

धन्यवाद,

सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक, इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री
जयपुर, राजस्थान
suneelduttgoyal@gmail.com

क्या वाकई 1991 के आर्थिक सुधारों के जनक थे डॉ. मनमोहन सिंह ?

1991 का आर्थिक संकट भारत के लिए एक बड़ा झटका था। इस संकट के लिए कई कारण जिम्मेदार थे, जिनमें पिछली सरकारो की गलत नीतियां, संरचनात्मक कमियां और बाहरी आघात शामिल थे। इस संकट की जड़ें 1970 और 1980 के दशक में वित्त मंत्रालय और उस समय के आर्थिक सलाहकारों की नीतियों में छिपी हुई थीं। इस दौरान उनकी भूमिका और वित्त मंत्रालय की नीतियों की विफलताओं पर चर्चा की जानी चाहिए। 1991 के आर्थिक सुधारों को लेकर डॉ. मनमोहन सिंह का महिमामंडन अक्सर किया जाता है, लेकिन यह आवश्यक है कि इस पर तथ्यात्मक और निष्पक्ष विश्लेषण किया जाए।
1970-80 के दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति लगातार बिगड़ती रही। उस दौर में डॉ. मनमोहन सिंह विभिन्न उच्च पदों पर रहे, जिनमें मुख्य आर्थिक सलाहकार, भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर और योजना आयोग के उपाध्यक्ष जैसे महत्वपूर्ण पद शामिल थे। इन पदों पर रहते हुए उन्होंने आर्थिक नीतियों को प्रभावित किया, लेकिन उन नीतियों में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं दिखाई दिया। इसके विपरीत, भारत की आयात नीतियों और संरक्षणवादी रुख ने कई घरेलू उद्योगों को कमजोर कर दिया।

यह जानना दिलचस्प है कि आपातकाल से पहले भारत में आयकर की अधिकतम दर लगभग 22% थी, जो 1973-74 में बढ़कर 97.5% से भी अधिक हो गई थी। यह दर उस समय की वित्तीय नीतियों की असफलता को दर्शाती है, जिसमें डॉ. सिंह का योगदान रहा, क्योंकि वे उस समय आर्थिक नीति निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका में थे।

पाम ऑयल आयात की अनुमति जैसे निर्णयों ने भारतीय तेल उद्योग को भारी नुकसान पहुंचाया। इसी प्रकार, अनियंत्रित आयात नीतियों के कारण 1980 से 2010 के बीच भारत में कई लघु और मध्यम उद्योग बंद हो गए। यह दौर वही था, जब डॉ. सिंह नीति-निर्धारण का हिस्सा थे। ऐसे में यह सवाल उठता है कि अगर उन्होंने 1991 में आर्थिक सुधार किए, तो उनके दशकों पुराने गलत फैसलों के लिए जिम्मेदारी कौन लेगा?

1991 के सुधारों का श्रेय अक्सर डॉ. मनमोहन सिंह को दिया जाता है, लेकिन वास्तव में यह प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव का साहसिक नेतृत्व था, जिसने भारत को दिवालियेपन से बचाया। राव ने IMF और विश्व बैंक की शर्तों को स्वीकार कर भारतीय परिस्थितियों के अनुसार आर्थिक नीतियों में बदलाव किया। डॉ. सिंह, जो वित्त मंत्री थे, बस इन नीतियों को लागू कर रहे थे।

वास्तविकता यह है कि डॉ. मनमोहन सिंह को कृत्रिम रूप से एक आर्थिक सुधारक का रूप दिया गया। उनके लिए एक पूर्व-नियोजित नैरेटिव गढ़ा गया, जिससे उन्हें भारत के आर्थिक सुधारों का “जनक” बना दिया गया, जबकि सच्चाई यह है कि वे मुख्यतः IMF और विश्व बैंक के निर्देशों को लागू करने वाले एक प्रशासनिक अधिकारी थे। यदि उन्हें सुधारों का श्रेय दिया जाता है, तो उनके पूर्व की विफल नीतियों की जिम्मेदारी भी उन्हीं को लेनी चाहिए

यह भी उल्लेखनीय है कि डॉ. मनमोहन सिंह कभी भी सिविल सेवा परीक्षा पास करके नौकरशाही में नहीं आए, बल्कि उन्हें लैटरल एंट्री के तहत सीधे उच्च पदों पर नियुक्त किया गया। 

 

आने वाले लेख में, हम भारत में लैटरल एंट्री सिस्टम के तहत नियुक्त लोगों की सूची और उनके प्रदर्शन का विश्लेषण करेंगे, ताकि यह स्पष्ट हो सके कि इन नियुक्तियों ने देश की प्रगति में कितना योगदान दिया और कितनी बार ये निर्णय विदेशी दबावों और राजनीतिक स्वार्थ के कारण लिए गए

हालांकि, 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री पी.वी. नरसिम्हा राव के नेतृत्व में भारत ने व्यापक आर्थिक सुधारों की शुरुआत की, जिससे देश को एक नई दिशा मिली। उस समय वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह थे, जो राव के निर्देशानुसार सुधार नीतियों को लागू कर रहे थे।

1991 संकट की जड़ें: मनमोहन सिंह की पूर्ववर्ती नीतियाँ

1970-80 के दशक की गलतियाँ:

  • मनमोहन सिंह ने 1972-76 में मुख्य आर्थिक सलाहकार, 1982-85 में RBI गवर्नर और 1985-87 में योजना आयोग के प्रमुख के रूप में “कर-सब्सिडी आधारित अर्थव्यवस्था” को बनाए रखा। 
  • उनकी नीतियों ने विदेशी मुद्रा भंडार को 1991 तक 1.2 अरब डॉलर तक गिरा दिया, जो मात्र 3 सप्ताह के आयात के लिए पर्याप्त था। 
  • 1980 के दशक में राजीव गांधी सरकार द्वारा विदेशी कर्ज़ पर अत्यधिक निर्भरता (GDP का 8% राजकोषीय घाटा) को रोकने में विफल रहे।

लैटरल एंट्री का विवादास्पद मॉडल:

  • सिंह को 1976 में बिना सिविल सेवा परीक्षा के सीधे वित्त सचिव नियुक्त किया गया।  
  • इस पद्धति ने “अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के प्रभाव” को बढ़ावा दिया, जिससे 1991 संकट की पृष्ठभूमि तैयार हुई। 

 

पी.वी. नरसिम्हा राव: संकट प्रबंधन के वास्तुकार

रणनीतिक निर्णयों की श्रृंखला:

  1. राजनीतिक साहस:

    • अल्पमत सरकार होते हुए भी IMF/विश्व बैंक के दबाव को राष्ट्रीय हितों के साथ जोड़ा।  
    • 46 टन सोना गिरवी रखकर 60 करोड़ डॉलर जुटाए और रुपये का 17.38% अवमूल्यन किया। 

  2. नीतिगत क्रांति:

    • नई औद्योगिक नीति 1991 के माध्यम से 80% उद्योगों से लाइसेंस राज समाप्त किया।  
    • FDI सीमा 51% तक बढ़ाकर “वैश्वीकरण का मार्ग” प्रशस्त किया। 

  3. टीम प्रबंधन:

    • मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाकर “क्रियान्वयन की ज़िम्मेदारी” सौंपी, परंतु बजट का पुनर्लेखन स्वयं करवाया।  
    • 50 कांग्रेस सांसदों के विरोध के बावजूद सुधारों को राजनीतिक संरक्षण प्रदान किया। 

लैटरल एंट्री: एक विफल प्रयोग

  • 1976 की नियुक्ति का प्रभाव: सिंह के “अकादमिक दृष्टिकोण” ने नौकरशाही को व्यावहारिक नीति निर्माण से दूर किया।  
  • 1991 संकट में भूमिका: 1980 के दशक में RBI गवर्नर के रूप में विदेशी कर्ज़ प्रबंधन में विफलता ने संकट को गहराया। 

निष्कर्ष:
1991 के आर्थिक सुधारों की सफलता का मूल आधार पी.वी. नरसिम्हा राव का रणनीतिक और राजनीतिक नेतृत्व था, जबकि मनमोहन सिंह की लैटरल एंट्री के माध्यम से नौकरशाही में शामिल होकर दीर्घकालिक नीति निर्माण में भागीदारी ने 1970-80 के दशक में आर्थिक संकट की बुनियाद रख दी थी। राव ने न केवल देश को दिवालियेपन के कगार से बचाया, बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत की साख को स्थापित किया। यह ऐतिहासिक सत्य है कि राव के नेतृत्व और साहसिक निर्णयों के बिना, मनमोहन सिंह की तकनीकी कुशलता व्यर्थ होती।

1991 के आर्थिक सुधारों में दोनों की भूमिकाएं स्पष्ट रूप से अलग थीं। नीति निर्माण के स्तर पर राव ने IMF और विश्व बैंक के सुझावों को भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप ढालकर साहसिक निर्णय लिए, जबकि सिंह की भूमिका मुख्यतः तकनीकी क्रियान्वयन तक सीमित थी। राजनीतिक जोखिम उठाने में भी राव अग्रणी थे—उन्होंने संसदीय विरोध और आलोचनाओं का सामना करते हुए सुधारों को आगे बढ़ाया, जबकि सिंह विवादों से बचते हुए केवल वित्तीय नीतियों को लागू करने पर केंद्रित रहे।

दीर्घकालिक प्रभाव के रूप में, राव के नेतृत्व में भारत की GDP वृद्धि दर 5.6% से बढ़कर 7.5% हो गई, जबकि मनमोहन सिंह के वित्तीय प्रशासन के दौरान (1970-80 के दशक में) औसत वृद्धि दर मात्र 3.5% थी। 1991 में राव सरकार के नेतृत्व में बुनियादी ढांचे में निवेश बढ़ाया गया, कृषि सुधारों पर ध्यान दिया गया और लाइसेंस राज को समाप्त कर भारत को वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार किया गया।

इस प्रकार, 1991 के आर्थिक संकट का समाधान और सुधारों की सफलता का श्रेय मुख्य रूप से प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव के राजनीतिक साहस, निर्णायक नेतृत्व और दूरदर्शी नीतियों को जाता है।

धन्यवाद,

सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक, इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री
जयपुर, राजस्थान
suneelduttgoyal@gmail.com

 

भारत का अब तक का सबसे प्रभावशाली बजट – करदाताओं को ऐतिहासिक राहत!

भारत में आयकर दाताओं के लिए बीते 76 वर्षों में इससे बेहतरीन बजट की उम्मीद शायद ही की जा सकती थी।
मुझे अच्छी तरह याद है कि जब 1981 में मैंने शेयर बाजार में कारोबार शुरू किया था, उस समय शायद ₹10,000-₹12,000 सालाना की आमदनी पर ही कर देय होता था। 2013 में भी केवल ₹2,00,000 तक की आय पर कर नहीं लगाया जाता था। लेकिन आज, 2025 में, हम गर्व से कह सकते हैं कि वर्तमान भारत सरकार ने संपूर्ण परिस्थितियों का गहनता से अध्ययन करने के बाद ₹12,00,000 तक की आय को कर-मुक्त कर दिया है।

इसका सीधा असर यह होगा कि लगभग 7 करोड़ लोग आयकर के दायरे से बाहर हो जाएंगे
₹12 लाख तक की आमदनी वालों को पूरी तरह कर से मुक्त कर दिया गया है, जबकि ₹25 लाख तक की आय वालों को भी लगभग ₹1 लाख की वार्षिक बचत होगी।

बजट का सबसे बड़ा असर – बाजार में पैसा और तेज गति से घूमेगा

यह बचा हुआ धन बाजार में पुनः प्रवाहित होगा और विभिन्न क्षेत्रों में इसका निवेश व उपभोग बढ़ेगा। चाहे वह रियल एस्टेट, टूरिज्म, म्यूचुअल फंड, बैंकिंग डिपॉजिट, या रोजमर्रा की उपभोक्ता वस्तुएं हों—हर सेक्टर को इसका लाभ मिलेगा। इससे अर्थव्यवस्था में धन का प्रवाह तेज होगा और विकास दर को गति मिलेगी।

आयकर विभाग का आकार घटेगा – नौकरशाही का भ्रष्टाचार खत्म होगा!

जब 7 करोड़ लोग आयकर के दायरे से बाहर हो जाएंगे, तो स्वाभाविक रूप से आयकर विभाग के लिए काम कम हो जाएगा।
इसका सकारात्मक प्रभाव यह होगा कि आम नागरिक को कर संबंधी झंझटों और भ्रष्टाचार से मुक्ति मिलेगी। अब करदाताओं में वे लोग प्रमुख रहेंगे जिनकी सालाना आय ₹12 लाख से अधिक है, और वे पहले से ही वकीलों और कर विशेषज्ञों की मदद से कर-नियोजन (Tax Planning) करना जानते हैं।

कर सलाहकार की आवश्कता कम होगी

अघोषित आय (Black Money) टैक्स नेट में आएगी – जीडीपी को सीधा फायदा

अपने 45 वर्षों के शेयर बाजार के अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि पहले जब ₹50,000 तक कर छूट थी, तो लोग ₹55,000 की आमदनी दर्शाते थे।
अब, जब ₹12 लाख तक की आय कर मुक्त है, तो वे लोग भी जो पहले ₹5 -₹10 लाख की आय दिखाते थे, अब ₹11-₹12 लाख तक की आय दिखाने लगेंगे। एसा मेरा मानना है
इससे कर संग्रह बढ़ेगा, क्योंकि अघोषित आय (Black Money) भी अब कर-चक्र में आ जाएगी, जिससे सरकार को अधिक राजस्व मिलेगा और राष्ट्र निर्माण में योगदान बढ़ेगा।

शेयर बाजार में जबरदस्त तेजी – STT कलेक्शन ₹80,000 करोड़ तक पहुंच सकता है!

शेयर बाजार में बढ़ते वॉल्यूम को देखते हुए मेरा अनुमान है कि STT (Securities Transaction Tax) का संग्रह ₹75,000-₹80,000 करोड़ तक पहुंच सकता है।

  • बजट के बाद निवेश में तेजी आएगी।
  • शेयर बाजार में खुदरा निवेशक की भागीदारी बढ़ेगी।
  • IPOs और स्टार्टअप्स के लिए पैसा जुटाना आसान होगा।

 

बैंकिंग और विदेशी पूंजी – क्या सरकार सस्ते विदेशी ऋण की योजना लाएगी?

इस बजट में मेरी एक उम्मीद थी कि सरकार बैंकों को विदेशी धन संग्रह (Foreign Borrowing) के लिए कोई योजना बनाएगी।


यदि बैंकों को सस्ते ब्याज दरों पर विदेशी ऋण उपलब्ध हो जाए, तो वे भारत में निम्न ब्याज दरों पर कर्ज दे सकेंगे, जिससे फिक्स्ड डिपॉजिट में हो रही कमी को पूरा किया जा सकेगा और निवेश बढ़ेगा। मुझे उम्मीद है कि बजट सत्र के दौरान सरकार इस विषय पर अवश्य विचार करेगी।

जीएसटी संग्रह में संभावित वृद्धि

मुझे अनुमान है कि अगले वर्ष जीएसटी संग्रह ₹30 लाख करोड़ के पार जा सकता है।
इसके पीछे मुख्य कारण यह है कि महाकुंभ, राजस्थान में खाटू श्याम जी का मेला, कैला देवी मेला, और अयोध्या, काशी, उज्जैन, महाकाल जैसे तीर्थ स्थलों में बढ़ती यात्रा से अर्थव्यवस्था में धन का प्रवाह तेजी से बढ़ रहा है।
टूरिज्म में बढ़ोत्तरी सीधे व्यापार और कर संग्रह को भी बढ़ावा देगी।

पुरानी कर प्रणाली छोड़ें – नई व्यवस्था ज्यादा फायदेमंद

जो आयकरदाता यह सोच रहे हैं कि सरकार ने पुरानी कर प्रणाली में कोई छूट नहीं दी, उन्हें यह समझना होगा कि सरकार चाहती है कि लोग पुरानी कर प्रणाली को छोड़कर नई कर प्रणाली अपनाएं।
नई कर प्रणाली सरल, पारदर्शी, और करदाता के लिए अधिक लाभदायक है, जिससे करदाताओं को भी दीर्घकालिक फायदा होगा।

बजट का समग्र प्रभाव

कुल मिलाकर, यह बजट बहुत दूरदर्शी और विकासोन्मुखी है।
लोगों को इसे समझने और धैर्य रखने की आवश्यकता है, क्योंकि सरकार का मुख्य फोकस इंफ्रास्ट्रक्चर विकास पर है।
भारत में पहली बार सरकार ने शिप बिल्डिंग के लिए भारी निवेश किया है, जिससे प्रत्यक्ष रूप से लाखों और अप्रत्यक्ष रूप से करोड़ों लोगों को रोजगार मिलेगा।

अगर हम पिछले 10 वर्षों पर नजर डालें, तो भारत ने युद्ध क्षेत्र में हथियारों, खिलौनों , मोबाइल फोन और अन्य आवश्यक वस्तुओं का निर्यात बढ़ाया है, जो पहले आयातित हुआ करते थे।

निष्कर्ष

यह बजट करदाताओं, निवेशकों, और आम जनता सभी के लिए फायदेमंद साबित होगा।
आयकर छूट और अर्थव्यवस्था में धन के पुनः संचार से देश की जीडीपी में वृद्धि होगी और भारत को एक मजबूत आर्थिक शक्ति बनाने में मदद मिलेगी।

 

धन्यवाद,

सुनील दत्त गोयल

महानिदेशक
इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री
जयपुर, राजस्थान

suneelduttgoyal@gmail.com

 

लोगों की घटती सेविंग और क़र्ज़ का बढ़ता बोझ : हो सकती है NBFC और बैंकों के लिए खतरे की घंटी ?

पिछले कुछ वर्षों में भारत में एक नया दौर शुरू हुआ है, जहाँ सभी बैंकों के डिपॉजिट्स में तेजी से गिरावट आ रही है। इसकी एक प्रमुख वजह यह है कि म्यूचुअल फंड इंडस्ट्री का सेल्स डिपार्टमेंट बेहतरीन प्रदर्शन कर रहा है। उन्हें वहाँ अच्छा कमीशन मिलता है, और वे फ्रीलांस आधार पर काम कर सकते हैं। इसके अलावा, वे घर-घर जाकर SIP (मासिक, तिमाही या साप्ताहिक) के जरिए निवेश को बढ़ावा दे रहे हैं, जिससे निवेशकों के खाते से ऑटोमेटिक डेबिट के माध्यम से धन एकत्र होता रहता है। यही कारण है कि भारत अब एक “सेविंग कंट्री” से “इन्वेस्टिंग कंट्री” की ओर बढ़ रहा है।

हालांकि, इसका एक बड़ा नुकसान यह है कि जब बैंकों में डिपॉजिट्स, विशेष रूप से फिक्स्ड डिपॉजिट्स, कम होंगे, तो बैंक व्यापार और उद्योगों को ऋण (लोन) कहाँ से देंगे? बैंकों का मुख्य लाभ जमा (डिपॉजिट) और ऋण (लोन) के बीच के अंतर से आता है। यदि बैंकों के पास पर्याप्त जमा नहीं होंगे, तो उनकी देनदारी (लायबिलिटी) कम होगी और संपत्ति (एसेट्स) भी नहीं बढ़ेगी। बैंकों की बैलेंस शीट में डिपॉजिट उनकी लायबिलिटी होती है, जबकि ऋण (लोन) उनकी एसेट्स होती हैं। वर्तमान में यह अनुपात तेजी से खराब हो रहा है।

एक अन्य कारण यह भी है कि पिछले कुछ वर्षों, विशेष रूप से कोविड-19 महामारी के बाद, कई कंपनियाँ खुद को ‘डेट-फ्री’ बनाने की दिशा में बढ़ी हैं। इसके परिणामस्वरूप, उन्होंने अपने बकाया ऋण तेजी से चुकता कर दिए, जिससे बैंकों के पास उधार लेने वाले ग्राहकों की संख्या घट गई। अब न तो बड़े उद्योग बैंक ऋण लेने आ रहे हैं और न ही छोटे व्यवसाय, क्योंकि उनके पास पूंजी जुटाने के अन्य कई स्रोत उपलब्ध हैं, जैसे विदेशी संस्थागत निवेशक (FII), स्टार्टअप फंडिंग, वेंचर कैपिटल, एंजल इन्वेस्टर्स, विदेशी ADR/GDR, बॉन्ड्स आदि। इन विकल्पों के चलते बैंकिंग सेक्टर की लेंडिंग में भारी गिरावट आई है।

बचत में गिरावट: भारतीय परिवारों की वित्तीय स्थिति पर संकट के बादल
भारतीय परिवारों की बचत दर 2022-23 में जीडीपी के मात्र 18.4% तक सिमट गई, जबकि 2013 से 2022 के बीच यह औसतन 20% थी। घरेलू बचत में भी तेज गिरावट दर्ज की गई, जहां 2023 में यह 28.5% रह गई, जबकि पिछले दशक में इसका औसत 40% था। इसी तरह, 2013-2022 के दौरान लोग अपनी आय का औसतन 8% बचाते थे, लेकिन 2023 में यह घटकर सिर्फ 5.3% रह गया।

लोगों पर बढ़ता कर्ज और डिफॉल्ट का खतरा
आरबीआई की फाइनेंशियल स्टेबिलिटी रिपोर्ट के अनुसार, 50% से अधिक पर्सनल लोन धारक एक साथ तीन या अधिक लोन की किश्तें भर रहे हैं, जिससे डिफॉल्ट का जोखिम बढ़ गया है। एनबीएफसी और स्मॉल फाइनेंस बैंकों से पर्सनल और कंज्यूमर लोन लेने वाले आधे से अधिक लोगों ने बीते छह वर्षों में तीन या उससे अधिक लोन लिए हैं। चिंताजनक बात यह है कि कई लोग पुराने कर्ज को चुकाने के लिए नया लोन ले रहे हैं, जिससे वित्तीय अस्थिरता बढ़ती जा रही है।

छोटे लोन धारकों पर बढ़ता दबाव
₹50,000 से कम के पर्सनल लोन लेने वाले ग्राहकों को वसूली के दौरान प्रताड़ना और दुर्व्यवहार जैसी गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, जिससे उनकी मानसिक और आर्थिक स्थिति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।
इसका एक खतरनाक परिणाम यह हुआ कि बैंकों ने NBFCs (गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों) को बड़े पैमाने पर ऋण देना शुरू कर दिया, जिससे उनकी खुद की लोन बुक ठीक बनी रहे। हालांकि, NBFCs की फंडिंग में एक बड़ा जोखिम है, क्योंकि कई NBFC कंपनियों की ऋण वसूली (रिकवरी) संदेहास्पद है। जब किसी सेक्टर में बड़े पैमाने पर कर्ज दिया जाता है, तो राजनीतिक हस्तक्षेप, क्षेत्रवाद और जातिवाद जैसी समस्याएँ बढ़ती हैं, जिससे ऋण वसूली मुश्किल हो जाती है। आने वाले समय में यह स्थिति NBFCs के लिए संकटपूर्ण साबित हो सकती है।

बैंक, बिना किसी सख्त नीति के, NBFCs को ऋण दे रहे हैं, जो गलत है। RBI ने इस पर पहले भी कई बार चेतावनी दी है कि NBFCs को पुनर्वित्त (रिफाइनेंसिंग) करने में सावधानी बरती जाए और उनके लिए एक निश्चित प्रतिशत से अधिक का जोखिम (एक्सपोज़र) न लिया जाए। परंतु, अधिकांश बैंक इन दिशानिर्देशों का पालन नहीं कर रहे हैं। यदि यह स्थिति बनी रही, तो NBFCs में बढ़ता NPA (गैर-निष्पादित परिसंपत्ति) बैंकिंग सेक्टर के लिए एक गंभीर खतरा बन सकता है।
यदि बैंक और NBFCs इस तरह काम करते रहे, तो एक नया वित्तीय संकट खड़ा हो सकता है, जैसा कि पाँच साल पहले भारतीय बैंकिंग सेक्टर में बढ़ते NPA की वजह से हुआ था। यदि NBFCs डूबने लगें, तो यह बैंकों के लिए भी एक चक्रव्यूह बन जाएगा, जिससे अंततः बैंकिंग सिस्टम भी अस्थिर हो सकता है।

इस स्थिति में सरकार और RBI को तुरंत सख्त नियम लागू करने की आवश्यकता है। NBFCs और बैंकों दोनों पर कड़े नियंत्रण की जरूरत है, क्योंकि इनमें जनता का पैसा लगा हुआ है। यदि यह पैसा डूबा, तो अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान होगा। मेरा सुझाव है कि सरकार को नए NBFC लाइसेंस जारी करने पर तुरंत रोक लगानी चाहिए और वर्तमान में कार्यरत NBFCs की सघन जाँच करनी चाहिए। विशेष रूप से, एनपीए की स्थिति की फॉरेंसिक ऑडिट के माध्यम से समीक्षा की जानी चाहिए। यदि कोई NBFC IPO (पब्लिक इश्यू) लेकर आ रही है, तो उनकी लोन क्वालिटी और रिकवरी क्षमता की गहन जाँच होनी चाहिए, ताकि वे भविष्य में DHFL जैसी स्थिति में न पहुँच जाएं।

मैं न तो बैंकों के खिलाफ हूँ और न ही NBFCs के खिलाफ। मेरा उद्देश्य केवल व्यापार और उद्योग जगत के हित में सरकार को सचेत करना है, ताकि जो गलतियाँ हो रही हैं, उन्हें सुधारा जा सके। सरकार से मेरी अपील है कि इस स्थिति पर पूरा ध्यान दे और बैंकिंग व NBFC सेक्टर को एक सख्त और व्यवस्थित ढाँचे में लाए।

धन्यवाद,
सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक
इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री
जयपुर, राजस्थान
suneelduttgoyal@gmail.com

भारतीय शेयर बाजार और ट्रंप प्रशासन: अगले कुछ दिन निवेशकों के लिए क्यों हैं खास?

जब आप यह लेख पढ़ रहे होंगे, तब तक ट्रंप को शपथ लिए हुए लगभग 10–12 घंटे बीत चुके होंगे, और उन्होंने उम्मीद के अनुसार, पहले ही दिन 100 से अधिक महत्वपूर्ण फैसलों पर हस्ताक्षर कर दिए होंगे।
इस बात की आशंका व्यक्त की जा रही है कि ट्रंप प्रशासन भारत से होने वाले आयात पर कड़े नियम लागू कर सकता है या अतिरिक्त शुल्क लगा सकता है। हालांकि, अपने अनुभव के आधार पर, मैं इन आशंकाओं को निराधार मानता हूं। भारत अब एक विशाल अर्थव्यवस्था बन चुका है, जो विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था से तीसरी स्थान की ओर बढ़ रहा है।

इसके अलावा, हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी अपने तीसरे कार्यकाल का एक साल लगभग पूरा कर चुके हैं। मोदी और ट्रंप के पास अगले चार सालों में कई महत्वपूर्ण कार्य करने का अवसर है। इन दोनों की भागीदारी से अगले चार वर्षों में ऐसे कार्य होंगे, जिनसे पूरा विश्व हैरान रह जाएगा।
आने वाले दिनों में भारतीय निवेशकों के लिए सतर्क रहना आवश्यक है, क्योंकि बजट, रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति, और दिल्ली विधानसभा चुनाव जैसे कई घरेलू और अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम बाजार में अस्थिरता ला सकते हैं।

भारत की वैश्विक स्थिति:
भारत अब केवल एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था नहीं है, बल्कि विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था से तीसरे स्थान की ओर अग्रसर है। ऐसे में ट्रंप प्रशासन भारत को नजरअंदाज नहीं कर सकता। भारत का बढ़ता बाजार और युवा जनसंख्या इसे वैश्विक व्यापार के लिए अपरिहार्य बनाते हैं।

मोदी और ट्रंप की जुगलबंदी
पिछले 10 वर्षों में श्री मोदी ने विभिन्न अंतरराष्ट्रीय समस्याओं, जैसे आतंकवाद, अवैध आव्रजन, ग्लोबल वार्मिंग, और अन्य विषयों पर अपने विचार प्रस्तुत किए हैं। इन विचारों को ट्रंप के साथ मिलकर कार्यरूप में बदला जा सकता है।
जो लोग मानते हैं कि H1B वीजा पर रोक लगाई जा सकती है, उन्हें चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। ट्रंप प्रशासन समझता है कि भारतीय लोग मेहनती, परिणाम-उन्मुख और परिस्थितियों के अनुसार काम करने में माहिर होते हैं। यदि वीजा संबंधी कोई समस्या खड़ी की जाती है, तो अमेरिकी कंपनियों का प्रदर्शन प्रभावित होगा, जिससे उनकी लागत बढ़ेगी और लाभप्रदता कम हो जाएगी।

आयात और व्यापार पर विचार
कुछ लोगों को लगता है कि ट्रंप प्रशासन भारत से आयात पर प्रतिबंध लगाएगा या शुल्क बढ़ाएगा। लेकिन ऐसा होने पर इसका लाभ सीधे चीन को मिलेगा। ट्रंप प्रशासन ऐसा कोई कदम नहीं उठाएगा जिससे भारत को नुकसान हो और चीन को फायदा मिले। ट्रंप भारत को एक प्रमुख व्यापारिक केंद्र मानते हैं और मोदी को अपना भरोसेमंद साथी।

भारतीय शेयर बाजार: आगामी चुनौतियां और संभावनाएं
आने वाले कुछ हफ्ते भारतीय शेयर बाजार के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं। आइए उन प्रमुख घटनाओं पर नजर डालते हैं, जो बाजार की दिशा तय करेंगी:

केंद्रीय बजट (1 फरवरी):
1 फरवरी को शनिवार के दिन केंद्रीय बजट पेश किया जाएगा। यह एक ऐतिहासिक क्षण होगा क्योंकि दशकों बाद बजट शनिवार को पेश होगा। इस बजट से बाजार को बड़ी उम्मीदें हैं। निवेशकों को इस दिन बाजार में तेज उतार-चढ़ाव का सामना करना पड़ सकता है।

रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति (6-7 फरवरी):
फरवरी के पहले सप्ताह में भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) अपनी मौद्रिक नीति की घोषणा करेगा। ब्याज दरों में किसी भी प्रकार के बदलाव की संभावना नहीं है । अगर ब्याज दरों में कटौती की जाती है, तो यह बाजार में सकारात्मकता ला सकता है।

दिल्ली विधानसभा चुनाव (8 फरवरी):
8 फरवरी को दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे घोषित होंगे। हालांकि इसका सीधा प्रभाव बाजार पर कम होगा, लेकिन चुनावी नतीजों से निवेशकों का मनोबल प्रभावित हो सकता है।

बैंकिंग क्षेत्र में सुधार:
भारतीय बैंकों की स्थिति में सुधार हो रहा है। गैर-निष्पादित संपत्तियां (NPA) कम हो रही हैं, और बैंकों की बैलेंस शीट पहले से अधिक साफ-सुथरी है। इससे बैंकिंग सेक्टर में सकारात्मकता आएगी और निवेशकों को लाभ मिलेगा।

निवेशकों को सुझाव
निवेशकों को अफवाहों से बचना चाहिए, और ठोस जानकारी के आधार पर अपने फैसले लेने चाहिए। भारतीय अर्थव्यवस्था का भविष्य मजबूत है, और यह निवेशकों के लिए एक सुनहरा अवसर प्रदान करता है। बाजार में इस वर्ष 15–20% तक का लाभ संभव है, और कुछ विशेष क्षेत्रों में यह लाभ 50% तक भी पहुंच सकता है।

धन्यवाद,
सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक
इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री
जयपुर, राजस्थान
suneelduttgoyal@gmail.com