टैक्स संग्रहण के दो प्रकार : प्रत्यक्ष कर एवं अप्रत्यक्ष कर – राष्ट्र निर्माण में दोनों की भूमिका

भारत में दो विभाग हैं जो करों का संग्रहण करते हैं। एक है सेंट्रल बोर्ड ऑफ डायरेक्ट टैक्सेज, जिसे प्रत्यक्ष कर निदेशालय भी कहते हैं, जिसका जिम्मा आपकी आय/आमदनी पर टैक्स लगाना है। 

दूसरा है सेंट्रल बोर्ड ऑफ इंडायरेक्ट टैक्सेज  एंड कस्टम्स (CBIC) अप्रत्यक्ष करों—GST (CGST/IGST), कस्टम/सीमा शुल्क—और शेष केंद्रीय उत्पाद शुल्क का प्रशासन करता है; CBIC का पूर्व नाम CBEC (एक्साइज व कस्टम्स) था। CBDT (प्रत्यक्ष कर) और CBIC (अप्रत्यक्ष कर) दो अलग-अलग बोर्ड हैं।

दोनों का उद्देश्य राष्ट्र निर्माण के लिए कर संग्रह करना है। ये दोनों विभाग पिछले 10–11 वर्षों से जनता के हित में अच्छे निर्णय ले रहे हैं। भारत का जो कर संग्रह का मॉडल पिछले 10–11 वर्षों से चल रहा है, उसे विश्व के बाकी देशों को भी समझना चाहिए कि हमारी वर्तमान सरकार करों का संग्रह कितनी खूबसूरती से कर रही है।

टैरिफ, इंपोर्ट ड्यूटी, कस्टम/सीमा शुल्क और एंटी-डंपिंग ड्यूटी क्या हैं? 

जब से इस वर्ष जनवरी में अमेरिका में ट्रंप सरकार आई, तब से “टैरिफ” शब्द की खूब चर्चा हो रही है और साथ में जुड़ गया है एक अनोखा शब्द  “वॉर” तो कुल मिलकर एक नया शब्द हो गयाहै  “टैरिफ वॉर” —यह क्या है, इसके मायने क्या हैं, किसको ज्यादा नुकसान होगा और किसको कम फायदा—यह समझना हर नागरिक के लिए जरूरी है। जब भी कोई देश किसी अन्य देश से आयात करता है, तो उस पर सीमा शुल्क/कस्टम ड्यूटी लगती है। कस्टम ड्यूटी लगाने का मूल उद्देश्य यह है कि आयात पर वाजिब शुल्क लगे, अप्रत्यक्ष कर और कर संग्रह में वृद्धि हो—राष्ट्र निर्माण के लिए यही मूल मंत्र है। अब सवाल आता है कि इसकी दरें कितनी हों।

जो देश आयात करता है, वह पहले जांचता है कि किसी वस्तु का घरेलू उत्पादन आवश्यकता से कम है या ज्यादा। यदि उत्पादन कम और जरूरत ज्यादा है, तो सीमा शुल्क वाजिब तरीके से लगाया जाएगा, ताकि देश के उत्पादकों और आयातकों—दोनों—को लेवल प्लेइंग फील्ड मिले, नागरिकों पर अनावश्यक कर बोझ न पड़े, और दामों में अत्यधिक अंतर से प्रतिस्पर्धा-विकृति न हो। अत्यधिक अंतर और गैर-जरूरी प्रतिस्पर्धा गलत प्रैक्टिस मानी जाती है।

एंटी-डंपिंग ड्यूटी का अर्थ है: यदि किसी देश में उसके उत्पादक अपनी क्षमता के अनुरूप उत्पादन कर रहे हैं और घरेलू मांग पूरी कर पा रहे हैं, फिर भी कोई दूसरा देश अपने निर्यातकों को सब्सिडी/छूट देकर दूसरे देश के उद्योगों को नुकसान पहुंचाने की कोशिश करे, तो आयातक देश अपने उत्पादकों की सुरक्षा हेतु आयातित माल पर एंटी-डंपिंग ड्यूटी लगाता है, ताकि कोई देश अपना अतिरिक्त उत्पादन दूसरे देश में डंप न कर दे। इसका उद्देश्य अपने देश के उत्पादन और उद्योगों को संरक्षण देना है। कई बार सैन्य कार्रवाई संभव न होने पर देश आर्थिक युद्ध छेड़ देते हैं, जिससे विरोधी देश की औद्योगिक क्षमता और व्यापार चक्र बाधित हो। इसी जोखिम से बचाव के लिए एंटी-डंपिंग ड्यूटी लगाई जाती है।

सरकार एक्सपोर्टर्स को ड्यूटी ड्रॉ-बैक का लाभ भी देती है। यदि निर्माण लागत अधिक होने से निर्यातक प्रतिस्पर्धा नहीं कर पा रहे हों, तो निर्यात मूल्य पर 2% से 25% तक का ड्यूटी ड्रॉ-बैक दिया जा सकता है। उदाहरण: किसी कंपनी ने 1 करोड़ डॉलर का निर्यात किया है और किसी विशेष देश के लिए 20% ड्यूटी ड्रॉ-बैक घोषित है, तो सरकार 20% यानी 20 लाख डॉलर का क्रेडिट निर्यातक को देती है। उद्देश्य है: निर्यात, रोजगार, औद्योगिक क्षमता, व्यापार और विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि। इसमें विस्तृत गणना और सिस्टम होते हैं; सामान्यतः मनमानी नहीं की जा सकती, और सरकारें इसे पारदर्शिता से लागू करने का प्रयास करती हैं—जब तक कि कोई विशेष देश बदले की भावना से कार्रवाई न करे।

भारत में भी 2000 से पहले तक निर्यात पर आयकर में विभिन्न रूपों में छूट मिलती थी—कभी पूरी छूट, कभी स्लैब/धाराओं में बदलाव—ताकि भारतीय उद्योगपति अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धी बने रहें, रोजगार और औद्योगिकीकरण बढ़े, और भारत की वैश्विक पहचान मजबूत हो। इसी उद्देश्य से आयकर छूट/ड्यूटी ड्रॉबैक जैसे प्रावधान रहे।

अब ट्रंप सरकार और टैरिफ वॉर पर आते हैं। मेरे मत में या तो सलाहकार पारदर्शिता से काम नहीं कर पा रहे, या नेतृत्व स्वार्थवश बिना ठोस आधार के अलग-अलग देशों/सामानों पर आयात दरें मनमाने तरीके से तय कर रहा है। उदाहरण: यदि अमेरिका किसी विशेष आइटम पर 50% टैरिफ लगा दे—मान लें पहले 100,000 डॉलर के आयात पर 20% ड्यूटी लगती थी, तो लैंडेड कीमत 120,000 डॉलर होती थी; 50% टैरिफ होने पर यह 150,000 डॉलर हो जाएगी। प्रोसेसिंग, लॉजिस्टिक्स, स्टोरेज, विज्ञापन, मटेरियल मैनेजमेंट, हैंडलिंग, सप्लाई चेन आदि के खर्च भी अनुपातिक रूप से बढ़ेंगे। यानी लैंडिंग कॉस्ट पर ही 25–30% बढ़त, और आगे उपभोक्ता तक डिलीवरी तक अतिरिक्त लागत। पहले जहां 120,000 डॉलर की लैंडेड कॉस्ट पर वस्तु लगभग 200,000 डॉलर में बिकती थी, अब 150,000 डॉलर की लैंडेड कॉस्ट पर यह 225,000–250,000 डॉलर तक जा सकती है। क्योंकि 20% की जगह 50% ड्यूटी से ड्यूटी, ब्याज, डेप्रिसिएशन और अन्य प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष खर्च अनुपात में बढ़ते हैं। 

अंततः नुकसान आयातकर्ता देश के उपभोक्ता/नागरिक का है जिसे पहले 200,000 डॉलर में मिलने वाली वस्तु अब 250,000 डॉलर तक मिलेगी। नतीजा:  आयातक देश में महंगाई, संभावित बेरोजगारी, और सामाजिक-आर्थिक तनाव। शुरुआती चरण में सरकार को टैरिफ से राजस्व मिल सकता है, पर अंततः उपभोक्ता-पीड़ा और अर्थव्यवस्था पर असर से नुकसान की भरपाई कठिन हो जाती है।

सरकार का काम कर लगाना है, पर चाणक्य नीति कहती है: कर उतना ही जैसे आटे में नमक—ज्यादा होगा तो स्वाद खराब, कम होगा तो स्वादहीन। इसलिए, संयुक्त राष्ट्र के लगभग 198 देशों की सरकारों से—मैं एक लेखक और अपने  45 वर्षों के व्यापारिक अनुभव के आधार पर—निवेदन करता हूँ  कि करारोपण से पहले देखें कि दोनों पक्षों में किसे कितना लाभ/हानि होगी। मैंने बजट से पहले कई बार वित्त मंत्रालय को सुझाव भेजे हैं: जब भी सिक्योरिटीज ट्रांज़ैक्शन टैक्स (एसटीटी), लॉन्ग-टर्म/शॉर्ट-टर्म कैपिटल गेन की अवधियां/दरें बदली जातीं और 2–3 हजार करोड़ अतिरिक्त वसूली का अनुमान लगाया जाता, बाजार तुरंत नकारात्मक प्रतिक्रिया देता। कई बार दिन के अंत तक 20–30 हजार करोड़, और कभी-कभी 2–3 लाख करोड़ रुपए तक का मार्केट कैप घट जाता है , लाखों निवेशकों का पैसा फंसता, और लोग बाजार से बाहर हो जाते। 

अतः मेरी सभी सरकारों से प्रार्थना है: नागरिकों को खुश रखना आपका काम है। कर लगाने की मंशा बनाते समय गहरा होमवर्क करें—लगाने/न लगाने से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष नफा-नुकसान क्या होंगे, जनता में कैसा परसेप्शन बनेगा, विपक्ष क्या नैरेटिव खड़ा करेगा। आज सोशल मीडिया के दौर में परसेप्शन और नैरेटिव से सरकारें बदल जाती हैं। इसलिए टैक्स लगाने से पहले बाजार विशेषज्ञों से सलाह लें—निगेटिव/पॉजिटिव इम्पैक्ट कितने होंगे—और समझ आने पर ही घोषणा करें। फिर प्रेस ब्रीफिंग में साफ बताएं कि कर क्यों लगाया, क्या मंशा थी, दीर्घकाल में जनता, देश और राष्ट्र निर्माण के लिए विजन क्या है; और यह राजस्व किन क्षेत्रों में, कैसे, और किन अपेक्षित अच्छे परिणामों के लिए खर्च होगा। जनता को यह समझाना भी सरकार की जिम्मेदारी है।

आशा है, आप इसे साझा करेंगे और जनमानस को जागरूक करेंगे, क्योंकि आज के समय में फाइनेंस समझना हर व्यक्ति के उज्ज्वल भविष्य के लिए जरूरी है। चाहे आप विज्ञान, इंजीनियरिंग, डॉक्टरी या शिक्षण के पेशे में हों—अंततः आपका जीवन आपकी आय पर ही चलता है; इसलिए फाइनेंस की बुनियादी जानकारी आवश्यक है। मेरा यह लिखने का उद्देश्य भी यही था। 

मेरा सभी सरकारों से पुनः निवेदन है कि इन सुझावों को सकारात्मक रूप में लें। जब भी टैक्स का करारोपण करें—भारत हो या अन्य देश—इन बातों पर ध्यान दें, अनावश्यक विवादों से बचें और विश्व में शांति का वातावरण बनाएं। एक-दूसरे को नीचा दिखाना/डुबोना और उद्योग-धंधे बर्बाद करना सरकारों का काम नहीं है। सरकारों का काम है प्रजा को खुश, संपन्न, प्रभावशाली और खुशहाल बनाना; रोजगार के अवसर बढ़ाना; अराजकता से बचाना। ऐसा कोई कानून/करारोपण न हो जिससे असमंजस या अव्यवस्था पैदा हो। राष्ट्र निर्माण के लिए कर निर्धारण करने वालों—सरकारी अधिकारियों और नीति-निर्माताओं—को इन बातों का ध्यान रखना चाहिए। कहीं ऐसा न हो की यह कहावत सही में चरितार्थ हो जाये कि “अब पछताए क्या होत, जब चिड़िया चुग गई खेत”। 

 

रोटेरियन सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक, इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री
पूर्व उपाध्यक्ष, जयपुर स्टॉक एक्सचेंज लिमिटेड
जयपुर, राजस्थान
suneelduttgoyal@gmail.com

भारत की पेट्रोलियम कंपनियों का महाविलय: यही समय है ! सही समय है !

आज जब भारत तेज़ी से विकास के पथ पर आगे बढ़ रहा है, हमें अपने संसाधनों, व्यवस्थाओं और सार्वजनिक सेवाओं में वह क्रांतिकारी बदलाव लाना होगा, जो आने वाले दशकों में देश को वैश्विक मंच पर अग्रणी बनाए। पेट्रोलियम सेक्टर इसकी सबसे अहम कड़ी है—और यह वही क्षेत्र है जहाँ बिखराव, विभिन्न ब्रांड, गुणवत्ता की खाइयाँ, डिस्ट्रीब्यूशन में उलझन और बार-बार सामने आती घपलों-चोरियों की खबरें आम हो चुकी हैं।

इंडियन ऑयल, भारत पेट्रोलियम, हिंदुस्तान पेट्रोलियम, कितनी ही सार्वजनिक और निजी कंपनियाँ देश में तेल की आपूर्ति का जिम्मा उठाती हैं। लेकिन क्या ये बिखराव और प्रतिस्पर्धा जनता को वाकई बेहतर सेवा दे पा रही है? हर कंपनी का अपनी कंपाउंडिंग, अलग-अलग बफर स्टॉक्स, अलग स्टोरेज-ट्रांसपोर्ट की व्यवस्था, अपनी अपनी लॉबी, नेताओं-अफसरों की हिस्सेदारी, पुराना नियम-कायदा, और अंत में पेट्रोल डीजल की गुणवत्ता में अंतर। क्या कभी आपने सोचा—एक शहर में दो ब्रांड के पंप पर, एक ही दिन एक ही पेट्रोल के दाम-गुणवत्ता अलग कैसे हो सकते हैं?

अब समस्या सिर्फ कीमत या उपभोक्ता के भ्रम की नहीं, बल्कि लॉजिस्टिक्स, ट्रांसपोर्टेशन और स्टोरेज की लागत व पारदर्शिता की कमी की भी है। रोज़मर्रा के अख़बारों की हेडलाइन बनती ‘‘पेट्रोल डीजल चोरी”, काला बाजारी, ट्रक-टैंकर घोटाले… अभी ताजातरीन मामला एक अखबार की फ्रंट पेज पर, पाइप लाइन से क्रूड आयल चोरी जो कई दशकों से चल रही है और एक बड़े माफिया का रूप ले चुकी है जो अपने आप में सिस्टम की खामियों का आईना है।

मर्जर से क्या-क्या बदल सकता है?

कल्पना कीजिए—यदि तीनो पेट्रोलियम कंपनियाँ मर्ज हो जाएं, उनके सभी संसाधन, पूंजी, पाइपलाइन, रिफाइनरी, इंजीनियरिंग, विपणन नेटवर्क एक जगह, एक छत्र-छाया के नीचे आ जाएं, तो कैसे खुलेगा तरक्की का नया रास्ता!

कोई “प्रीमियम” और कोई “सामान्य” पेट्रोल की उलझन रहेगी ही नहीं। देश-भर में एक ही क्वालिटी, सबसे बेहतरीन ग्रेड का पेट्रोल-डीजल मिलेगा।

लॉजिस्टिक्स और स्टोरेज की लागत आधी से भी कम, व्यवस्था खातों किताबों के हिसाब से एकदम पारदर्शी।

बफर स्टॉक्स और इमरजेंसी स्टोरेज—जो आज हर कंपनी अलग बनाती-रखती है, वह एक सिस्टम में आ जाएगा।

जब डीलरशिप खुलेगी, तो न पारिवारिक/राजनीतिक सिफ़ारिश चलेगी, न अफसरशाही की पकड़ बचेगी—पारदर्शी नीलामी और ऑक्शन से आम आदमी को भी अवसर।

बाजार में एक ही ब्रांड, एक ही पेट्रोल—तो उपभोक्ता के मन का भ्रम भी दूर और भ्रष्टाचार को भी सीधी चोट।

जब वाहनों के लिए एक ही ग्रेड भारत VI का पेट्रोल-डीजल सरकार उपलब्ध कराएगी, तो प्रदूषण कम करने का लक्ष्य भी यही से साधा जाएगा। ग्रीन हाउस गैसेस पर नियंत्रण होगा |

वर्टिकल मैनेजमेंट: हर डिवीजन की सीधी जवाबदेही

मेगा पेट्रोलियम कंपनी में हर उत्पाद—चाहे वह क्रूड ऑयल इंपोर्ट हो या की-लुब्रिकेंट, डीजल हो या एयर टरबाइन फ्यूल— प्रॉपेन सीएनजी या पेट्रोकैमिकल्स—उसके लिए अलग-अलग वर्टिकल होंगे। हर वर्टिकल के महानिदेशक की स्पष्ट जिम्मेदारी होगी कि इंपोर्ट/खरीद, रिफाइनिंग -प्रोसेसिंग से लेकर ग्राहक को डिलीवरी तक के हर खर्च-लाभ की सटीक बहीखाते तैयार हो जायेंगे।
इस तरह सालाना जब एक विशाल जम्बो बैलेंसशीट बनेगी, तो सरकार और समाज जान पाएगा कि भारत का उत्पादन, उपभोग, टर्नओवर, इन्वेस्टमेंट और भविष्य की ज़रूरतें एवं वर्तमान के हालातों से रूबरू होंगे ।

अतीत से सबक, भविष्य का रास्ता

बहुत लोग कहते हैं—मर्जर में जोखिम है। मैं कहता हूं, यही वह वक्त है जब सरकार को साहसी निर्णय लेना चाहिए। जीएसटी को ही ले लीजिए, जब इसके लिए 25 से भी ज्यादा विभागों का एकीकरण हुआ, व्यापारियों से विरोध भी झेलना पड़ा, अफसरों से कड़ा सवाल भी, लेकिन जो ‘एक देश, एक टैक्स’, आज हरेक व्यापारी और उपभोक्ता सराह रहा है, वही फायदा पेट्रोलियम में भी मिलेगा।

दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियां—भारत को सीखना होगा

दुनिया में सऊदी अरामको जैसी कंपनियां ($590 अरब राजस्व, $1.8 ट्रिलियन मार्केट कैप), सिनोपेक-चाइना पेट्रोलियम ($487 अरब), पेट्रोचाइना, एक्सॉनमोबिल, शेल जैसे ब्रांड, अपनी भव्य एकीकृत व्यवस्थाओं के बल पर वैश्विक रैंकिंग में टॉप पर हैं। जब हमारी कंपनियों का मार्केट कैपिटलाइज़ेशन एक साथ होगा, तब भारत भी दुनिया की सूची में कहीं आगे बढ़ जाएगा।

दुनिया की शीर्ष तेल कंपनियों का राजस्व और मार्केट कैप:

सऊदी अरामको (Saudi Aramco)
वार्षिक राजस्व: लगभग 590 अरब अमेरिकी डॉलर
मार्केट कैपिटलाइजेशन: 1.8 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर

सिनोपेक (China Petroleum & Chemical)
वार्षिक राजस्व: लगभग 487 अरब अमेरिकी डॉलर
मार्केट कैप: 58 अरब अमेरिकी डॉलर

पेट्रोचाइना (PetroChina)
वार्षिक राजस्व: लगभग 486 अरब अमेरिकी डॉलर
मार्केट कैप: 79 अरब अमेरिकी डॉलर

एक्सॉन मोबिल (ExxonMobil)
वार्षिक राजस्व: लगभग 387 अरब अमेरिकी डॉलर
मार्केट कैप: 445 अरब अमेरिकी डॉलर

शेल पीएलसी (Shell PLC)
वार्षिक राजस्व: लगभग 365 अरब अमेरिकी डॉलर
मार्केट कैप: 202 अरब अमेरिकी डॉलर

भारत की ‘मेगा कंपनी’ की संभावना
इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन के पास 13,772 करोड़ रुपये की इक्विटी पूंजी है, इसका मार्केट कैपिटलाइजेशन यानी बाजार पूंजीकरण 2,09,065 करोड़ रुपये है और इसके पास कुल रिज़र्व्स 1,72,716 करोड़ रुपये हैं। आज की तारीख में इसका शेयर भाव ₹148 है। कंपनी की सालाना बिक्री 7,58,106 करोड़ रुपये तक पहुँचती है और शुद्ध लाभ 13,789 करोड़ रुपये दर्ज किया गया है।

भारत पेट्रोलियम के पास 4,273 करोड़ रुपये की इक्विटी पूंजी है, कंपनी का मार्केट कैप 1,45,665 करोड़ रुपये और रिज़र्व्स 77,112 करोड़ रुपये हैं। इसके एक शेयर का दाम अब ₹336 है। बीपीसीएल ने 4,40,272 करोड़ रुपये की बिक्री की और 13,337 करोड़ रुपये का शुद्ध लाभ कमाया।

हिंदुस्तान पेट्रोलियम के पास 2,128 करोड़ रुपये की इक्विटी, 90,475 करोड़ रुपये का बाजार पूंजीकरण और 49,016 करोड़ के रिज़र्व्स हैं। इस समय बाजार में इसका शेयर ₹425 है। बिक्री 4,34,106 करोड़ रुपये की रही जबकि शुद्ध लाभ 6,736 करोड़ रुपये रहा।

तीनों कंपनियों को जोड़ें तो कुल इक्विटी पूंजी 20,173 करोड़ रुपये, कुल मार्केट कैप 4,45,205 करोड़ रुपये और कुल रिज़र्व्स 2,98,844 करोड़ रुपये हो जाते हैं। इनकी कुल बिक्री 16,32,484 करोड़ रुपये है और मिलाजुला शुद्ध लाभ 33,862 करोड़ रुपये तक पहुँचता है।

यदि इंडियन ऑयल, भारत पेट्रोलियम, हिंदुस्तान पेट्रोलियम जैसी सभी बड़ी भारतीय पेट्रोलियम कंपनियां मर्ज होकर एक “मेगा इंडिया पेट्रोलियम” कंपनी का रूप लेती हैं, तो उसके संभावित फ़ायदे और वैश्विक प्रभाव कुछ इस प्रकार होंगे:
भारत की “मेगा कंपनी” का संयुक्त वार्षिक राजस्व लगभग 200–250 अरब अमेरिकी डॉलर से भी ज्यादा हो सकता है, जिससे वह दुनिया की टॉप-5 तेल कंपनियों की कतार में आ सकती है।

बाजार पूंजीकरण (मार्केट कैप) भी बढ़कर लगभग 200-300 अरब अमेरिकी डॉलर के लगभग पहुँच सकती है, जिससे भारत वैश्विक मंच पर दिखेगा।
जनता को पूरे देश में एक ही दर और एक ही क्वालिटी का पेट्रोल-डीजल मिलेगा, जिससे उपभोक्ता भ्रांतियां और भ्रष्टाचार दूर होगा।

आज हर राज्य की अपना टैक्स की दरें अलग अलग होने से उनके बॉर्डर एरिया में जो पेट्रोल पम्प हैं यदि सस्ता है तो बेशुमार बिक्री होती है और अगर बॉर्डर का दूसरा पम्प महँगा है तो उसकी बिक्री नगण्य होती है और इसका उदाहरण राजस्थान – हरियाणा के बॉर्डर पर देखा जा सकता है।

लॉजिस्टिक्स, बफर स्टॉक्स, ट्रांसपोर्टेशन, स्टोरेज आदि पर दोहराव खत्म होगा और अनुमानतः 15–20% तक कंपनी की प्रॉफिटेबिलिटी बढ़ सकती है। सभी का इन्वेंटरी प्रबंधन खर्च मर्जर के बाद आधा हो जाएगा।

एकीकृत कंपनी देश के लिए निवेश, रोजगार, टेक्नोलॉजी और पाइपलाइन इन्फ्रास्ट्रक्चर में तेज़ी ला सकती है।

ग्लोबल स्टेज पर भारत की ब्रांडिंग मज़बूत होगी और “वन ब्रांड, वन कंपनी, वन नेशन” का सपना साकार होगा।

ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी। भविष्य की जनेरशन को एक अनुकूल पर्यावरण।

नई कंपनी के बनने से सैकड़ों नई नौकरियाँ, टेक्निकल, ऑपरेशनल और एडमिनिस्ट्रेशन में शानदार मौके।

इस तरह, भारत की एक विशाल पेट्रोलियम कंपनी विश्वस्तर पर प्रतिस्पर्धी बनने, देश की अर्थव्यवस्था को बूस्ट देने और उपभोक्ता जीवन आसान बनाने के लिए मील का पत्थर साबित हो सकती है।

देश के लिए, आम जनता के लिए

अब यह सिर्फ सरकार के सपने की बात नहीं—यह आम आदमी, टैक्सपेयर, व्यवसायी, किसान, व्यापारी, हर नागरिक के विकास का सपना है। भारत के हर कोने में एक ही दर, एक गुणवत्ता का पेट्रोल-डीजल, पारदर्शी सौदे, स्मार्ट व तेज वितरण। पाइपलाइन से गांव हो या मेट्रो सिटी, गैस-पेट्रोल के बेहतर इस्तेमाल की क्रांति।

अब बदलाव की ज़रूरत

क्या नई चुनौतियाँ नहीं होंगी? जरूर होंगी। बड़े बदलाव कभी भी बिना विरोध या टकराव के नहीं आते, लेकिन अगर लक्ष्य पारदर्शिता, दक्षता, राष्ट्रीय आय में बढ़ोतरी और उपभोक्ता को श्रेष्ठ सेवा देना है, तो यह फैसला ऐतिहासिक होगा।

“एक कंपनी, एक ब्रांड, एक क्वालिटी, एक राष्ट्र”—अब समय है भारत को एशिया ही नहीं दुनिया की शीर्ष तेल कंपनियों के साथ बराबरी पर खड़ा देखें। सरकार, विशेषज्ञ, और समाज—सबको आगे आकर इस परिवर्तन की ओर गंभीरता से कदम बढ़ाना होगा।

यदि आपको उसका कोई हिस्सा और विस्तार से चाहिए, या और भी संचारी, भावनात्मक या तथ्यपरक भाषा में चाहिए—तो आप निर्देश दें।
धन्यवाद,

रोटेरियन सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक, इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री
पूर्व उपाध्यक्ष, जयपुर स्टॉक एक्सचेंज लिमिटेड
जयपुर, राजस्थान
suneelduttgoyal@gmail.com

टैरिफ़ का जाल क्या  भारत का निर्यात संकट वास्तविक है

जब डोनाल्ड ट्रम्प ने “राष्ट्रीय आपातकाल” का हवाला देते हुए भारतीय निर्यात पर 25-26% टैरिफ लगाया, तो प्रतिक्रिया तेज़ थी: बाज़ारों में अफरा-तफरी मच गई, निर्यातकों ने राहत की माँग की, और टिप्पणीकारों ने भारत को हाशिये पर बता दिया।

लेकिन टैरिफ अस्तित्व का ख़तरा नहीं हैं। भारत की अर्थव्यवस्था—जो 80% घरेलू माँग पर निर्भर है—सालाना निर्यात घाटे में 7 अरब डॉलर का नुकसान झेल सकती है। असली ख़तरा इस बात में है कि भारत इस पर कैसी प्रतिक्रिया देता है। अगर वह दबाव में ढिलाई बरतता है, तो इसके परिणाम व्यापार से कहीं आगे तक जाएँगे।

 

ऑटोमोबाइल और ऑटो पार्ट्स ($21 अरब निर्यात, 27% अमेरिका को) को 4-5% मार्जिन का नुकसान हो रहा है।

अगर हीरे पर छूट खत्म हो जाती है, तो रत्न और आभूषण ($8.5 अरब निर्यात) को अपना 30% अमेरिकी बाज़ार हिस्सा खोने का ख़तरा है।

कपड़ा उद्योग को टैरिफ़-लाभ वाले वियतनाम और बांग्लादेश से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है, जिससे गुजरात और तमिलनाडु में रोज़गार ख़तरे में हैं।

कृषि और मत्स्य पालन पर 56% तक टैरिफ लग सकते हैं।

फिर भी, ये नुकसान, चाहे कितने भी कष्टदायक क्यों न हों, भारत को कमज़ोर नहीं करते। दवाइयों को छूट दी गई है। इलेक्ट्रॉनिक्स पर टैरिफ “मेक इन इंडिया” को और भी तेज़ कर सकते हैं। भारत की अमेरिका पर निर्यात निर्भरता जीडीपी का केवल 2.2% है—वियतनाम के 25% की तुलना में नगण्य।

अगर भारत विरोध करता है, तो वह 2026 के अमेरिकी मध्यावधि चुनावों तक बातचीत को आगे बढ़ा सकता है, यूरोपीय संघ और ब्रिटेन के बाज़ारों में विविधता ला सकता है, और रूसी तेल का प्रवाह जारी रख सकता है। लेकिन अगर वह पीछे हटता है, तो उसे संरचनात्मक पराजय का खतरा है।

अगर भारत पीछे हटता है तो क्या होगा

कृषि क्षेत्र में आत्मसमर्पण:

टैरिफ में कटौती के लिए, भारत पर अपने डेयरी बाज़ार को अमेरिकी कृषि व्यवसाय के लिए खोलने या जीएमओ फसलों को स्वीकार करने के लिए दबाव डाला जा सकता है। इससे ग्रामीण किसान—भारत का सबसे बड़ा मतदाता समूह—बर्बाद हो जाएँगे और राजनीतिक अशांति फैल जाएगी। एक बार अनुमति मिल जाने के बाद, ऐसी पहुँच को वापस लेना असंभव है।

प्रौद्योगिकी पर निर्भरता:

अमेरिकी प्रौद्योगिकी तक पहुँच से जुड़े समझौते के साथ कुछ शर्तें भी जुड़ी हो सकती हैं—रूसी रक्षा खरीद पर प्रतिबंध या स्वदेशी कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) और अर्धचालक कार्यक्रमों पर सीमाएँ। इससे भारत वाशिंगटन की आपूर्ति श्रृंखलाओं में बंद हो जाएगा, जिससे उसकी रणनीतिक स्वायत्तता कमज़ोर हो जाएगी।

रूसी ऊर्जा प्रतिबंध:

अमेरिकी दबाव में, भारत को रूस से रियायती तेल खरीद में कटौती करने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है, जिससे घरेलू ऊर्जा लागत बढ़ेगी और मुद्रास्फीति से बचाव का एक बड़ा कवच भी खत्म हो जाएगा। इससे उस रणनीतिक साझेदारी को भी नुकसान पहुँचेगा जिसने ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भारत को बढ़त दिलाई थी।

और माँगों की मिसाल:

जैसे ही भारत किसी एक क्षेत्र में रियायत देगा, अमेरिका और माँगों पर ज़ोर देगा—जैसे डिजिटल करों में कटौती, जेनेरिक दवाओं पर बौद्धिक संपदा रियायतें, और रक्षा खरीद में पुनर्गठन—जिससे भारत की नीतिगत गुंजाइश कम हो जाएगी।

 

निवेशक पलायन:

यह कथित आत्मसमर्पण उन निवेशकों को डराएगा जो भारत के स्वतंत्र आर्थिक रुख को महत्व देते हैं। चीन के विकल्प के रूप में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) आकर्षित करने के बजाय, भारत को अमेरिकी व्यापार नीति के विस्तार के रूप में देखे जाने का जोखिम है।

संक्षेप में, अभी पलक झपकाना टैरिफ को एक बातचीत योग्य अड़चन से एक स्थायी रणनीतिक लगाम में बदल देगा।

भारत के पास अभी भी उत्तोलन क्यों है

प्रतिद्वंद्वी देशों की तुलना में कम टैरिफ दर: भारत की 26% दर अभी भी चीन के 54% या वियतनाम के 46% की तुलना में कम दंडात्मक है।

विविध बाजार: यूरोपीय संघ और ब्रिटेन के मुक्त व्यापार समझौते व्यापार, विशेष रूप से दवा और इलेक्ट्रॉनिक्स के क्षेत्र को पुनर्निर्देशित कर सकते हैं।

ऊर्जा कवच: रूस की तेल बचत—जो सालाना अरबों डॉलर की है—भारत को अपनी ताकत से बातचीत करने का समय देती है।

 

अमेरिका में कानूनी अराजकता: एक संघीय न्यायालय ने पहले ही ट्रम्प की टैरिफ घोषणा को गैरकानूनी माना है, हालाँकि अपील लंबित रहने तक प्रवर्तन जारी है। यह अनिश्चितता प्रतीक्षा और निगरानी की रणनीति का पक्षधर है।

 

रणनीतिक खेल

भारत को चाहिए:

कृषि रियायतों को हर कीमत पर अस्वीकार करें।

मध्यावधि राजनीति के उत्तोलन को बदलने तक अमेरिकी वार्ता को लंबा खींचें।

यूरोपीय संघ के मुक्त व्यापार समझौते में तेजी लाएँ, गैर-अमेरिकी बाजारों का निर्माण करें।

रूसी रक्षा और ऊर्जा संबंधों को दोगुना करें, स्वायत्तता को मज़बूत करें।

कपड़ा, आभूषण और ऑटो पार्ट्स क्षेत्र के एमएसएमई को ऋण और कर राहत देकर घरेलू निर्यातकों को मज़बूत करें।

 

निष्कर्ष: झिझक की कीमत

खतरा ट्रंप के टैरिफ़ नहीं हैं—बल्कि भारत द्वारा उनसे बचने के लिए अपनी स्वायत्तता का त्याग करना है।

अगर नई दिल्ली दृढ़ रहती है, तो टैरिफ़ पर बातचीत कम हो जाएगी, बाज़ार विविधीकृत होंगे, और अमेरिकी दबाव कम होगा। लेकिन अगर वह डेयरी, जीएमओ फ़सलों या रूस के मामले में झिझकती है—तो वह न सिर्फ़ यह व्यापार युद्ध हारेगी। बल्कि अगले युद्ध से लड़ने की अपनी क्षमता भी खो देगी।

यह टैरिफ़ का मामला नहीं है। यह संप्रभुता का मामला है।

धन्यवाद,


रोटेरियन सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक, इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री
पूर्व उपाध्यक्ष, जयपुर स्टॉक एक्सचेंज लिमिटेड
जयपुर, राजस्थान
suneelduttgoyal@gmail.com

सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स: समाज के लिए एक गंभीर चुनौती

भारतीय समाज आज एक गंभीर संकट के मुँह में खड़ा है। सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स की बेलगाम फौज ने हमारी सामाजिक व्यवस्था को तहस-नहस कर दिया है। यह केवल मनोरंजन या व्यापारिक गतिविधि नहीं है—यह राष्ट्रीय चरित्र पर सीधा हमला है। सरकार की निष्क्रियता और सोशल मीडिया कंपनियों की मनमानी ने इस समस्या को महामारी का रूप दे दिया है।। ये तथाकथित इन्फ्लुएंसर बिना किसी सत्यापन के भ्रामक जानकारी फैलाते हैं, जिससे लाखों लोग गुमराह होते हैं। स्वास्थ्य से लेकर राजनीति तक, हर क्षेत्र में असत्य को सत्य के रूप में परोसा जा रहा है।

इन इन्फ्लुएंसर्स की सामग्री में गहरा पूर्वाग्रह और पक्षपात दिखता है। ये अपने व्यक्तिगत या प्रायोजित एजेंडे के अनुसार तथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करते हैं। धर्म, जाति, राजनीति और सामाजिक मुद्दों पर एकतरफा और भड़काऊ विचार परोसे जाते हैं, जिससे समाज में विभाजन और अशांति फैलती है।
सबसे घातक पहलू यह है कि ये इन्फ्लुएंसर्स पेड मार्केटिंग को सामान्य सामग्री के रूप में छुपाते हैं। दर्शकों को पता ही नहीं चलता कि वे एक विज्ञापन देख रहे हैं या वास्तविक सलाह सुन रहे हैं। यह उपभोक्ता धोखाधड़ी का सबसे कुटिल रूप है, जहाँ भरोसे का फायदा उठाकर गलत उत्पादों और सेवाओं को बेचा जाता है।

आज का नौजवान सोशल मीडिया पर अपना भविष्य बर्बाद कर रहे हैं। वे इस गलतफहमी में हैं कि उनके लाइक्स, शेयर और सब्सक्राइबर्स बढ़ जाएंगे, और इसी उम्मीद में वे किसी भी तरह की रील्स बना रहे हैं – चाहे उसमें जोखिम हो या अशोभनीय सामग्री।

पिछले कुछ वर्षों में हमने देखा है कि हजारों युवा केवल एक वायरल रील बनाने के चक्कर में अपनी जान तक गंवा चुके हैं। जब वे अपने लक्ष्यों को हासिल नहीं कर पाते, तब उनके सपनों की दुनिया बिखर जाती है और वे एंग्जायटी और डिप्रेशन का शिकार हो जाते हैं। इसका असर सिर्फ उनके जीवन पर नहीं, बल्कि उनके पूरे परिवार पर भी पड़ता है, और उनके लिए एक नई समस्या खड़ी हो जाती है।

यह लोग यह नहीं समझ पा रहे हैं कि सोशल मीडिया का रेलीवेंस कुछ समय का ही है और यह कोई परमानेंट काम नहीं है लेकिन ज्यादा व्यूज लाइक्स और फॉलोअर्स बढ़ाने के लिए यह लोग कुछ भी करने को तैयार हैं।

यह केवल व्यापारिक गतिविधि नहीं है। जब हमारे युवा इन फर्जी आदर्शों को देखकर अपने जीवन की दिशा तय करते हैं, तो यह पूरी पीढ़ी के साथ विश्वासघात है। इन इन्फ्लुएंसर्स ने हमारी संस्कृति में शॉर्टकट और छलकपट की मानसिकता घुसा दी है।
कितना दुखद है कि जिस देश में “सत्यमेव जयते” का सिद्धांत है, वहाँ झूठ को व्यापार बनाया जा रहा है। हमारे पूर्वजों ने सिखाया था—”भले खुद का नुकसान हो जाए, पर किसी दूसरे का एक रुपया भी न डूबे।” आज यही लोग दूसरों को ठगने में गर्व महसूस करते हैं।

फर्जी प्रोफाइल्स के माध्यम से धोखाधड़ी, फ्रॉड और सामाजिक अपराध का जो जाल बिछाया गया है, वह आर्थिक आतंकवाद से कम नहीं है। रोमांस स्कैम से लेकर निवेश फ्रॉड तक, हज़ारों करोड़ रुपए की चोरी हो रही है।

निवेश घोटाले: सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स की भूमिका
आज के दौर में सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स न केवल उत्पादों और ब्रांड्स का प्रचार करते हैं, बल्कि बड़े पैमाने पर शेयर बाज़ार और क्रिप्टो निवेश घोटालों को भी बढ़ावा देने में गहरा संलिप्त हो गए हैं। ये इन्फ्लुएंसर—अक्सर बड़ी फैन फॉलोइंग और ‘विशेषज्ञ’ की छवि लेकर—लोगों को बिना किसी वैधता या सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त सलाह के स्टॉक्स, म्यूचुअल फंड्स, या क्रिप्टोकरेंसी में निवेश करने के लिए उकसाते हैं।

उन्होंने नकली चार्ट, मनगढ़ंत ‘गैरेंटीड रिटर्न’ के दावे, और गुप्त टिप्स के नाम पर जनता को भ्रमित किया—परिणामस्वरूप लाखों लोग अपने जीवनभर की बचत ऐसे घोटालों में गंवा देते हैं। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के जरिए वायरल होती इन फर्जी सलाहों और दिखावटी जीवनशैली के चलते कई निवेशक फेक ऐप्स और पोंजी योजनाओं के शिकार हुए हैं। क्रिप्टोकरेंसी जैसे अनियमित क्षेत्र में तो यह प्रवृत्ति और भी खतरनाक बन चुकी है, जहां कई इन्फ्लुएंसर्स, कंपनियों से मोटी रकम लेकर, स्कैम कॉइन्स का जबरदस्त प्रचार करते हैं और जरा-सी गिरावट होते ही लोगों की पूँजी डूब जाती है।

इन गतिविधियों से न केवल आम निवेशक ठगे जाते हैं, बल्कि वित्तीय स्थिरता और बाजार की पारदर्शिता को भी जबरदस्त नुकसान पहुँचता है। यह स्थिति साफ़ दर्शाती है कि बिना किसी नियमन और कानूनी जवाबदेही के सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स निवेश जगत के सबसे बड़े जोखिम बन कर उभरे हैं, जिन पर तत्काल और कठोर नियंत्रण की आवश्यकता है।

तुलना: प्रिंट मीडिया बनाम सोशल मीडिया
प्रिंट मीडिया की सबसे बड़ी ताकत इसकी कड़ी सत्यापन प्रक्रिया में निहित है। यहाँ प्रत्येक खबर की गहराई से जाँच-पड़ताल होती है, तथ्यों को कई स्तरों पर परखा जाता है, और अनुभवी पत्रकारों द्वारा खोजी पत्रकारिता की जाती है। इसके विपरीत, सोशल मीडिया में किसी भी प्रकार का सत्यापन नहीं होता—कोई भी व्यक्ति कुछ भी लिखकर लाखों लोगों तक पहुँचा सकता है।

प्रिंट मीडिया में संपादकीय जवाबदेही की पूर्ण व्यवस्था है। संपादक और प्रकाशक प्रकाशित की गई हर सामग्री के लिए व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार होते हैं। यदि कोई गलत जानकारी छपती है, तो इसकी पूरी जिम्मेदारी संबंधित व्यक्तियों की होती है। सोशल मीडिया में यह जवाबदेही पूर्णतः अनुपस्थित है—न तो प्लेटफॉर्म की कोई जिम्मेदारी है और न ही व्यक्तिगत अकाउंट होल्डर की।

कानूनी ढांचे में स्पष्ट अंतर
प्रिंट मीडिया प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया और न्यायपालिका के कड़े नियंत्रण में काम करता है। गलत जानकारी के लिए कानूनी कार्रवाई, जुर्माना, और लाइसेंस रद्द करने तक के प्रावधान हैं। इसके विपरीत, सोशल मीडिया एक कानूनी शून्यता में काम कर रहा है—न तो स्पष्ट नियम हैं और न ही प्रभावी कार्रवाई का तंत्र।

गुणवत्ता और उद्देश्य का मौलिक भेद
प्रिंट मीडिया में गुणवत्ता नियंत्रण का कड़ा तंत्र है। दशकों के अनुभव वाले पत्रकार, संपादक, और विशेषज्ञ मिलकर सामग्री तैयार करते हैं। इसका मुख्य उद्देश्य सूचना देना और जनहित में काम करना है। सोशल मीडिया का एकमात्र फोकस सनसनी पैदा करना और वायरलिटी हासिल करना है—यहाँ गुणवत्ता की जगह क्लिक्स और व्यू्स की गिनती महत्वपूर्ण है।

राष्ट्रीय योगदान में आकाश-पाताल का अंतर
प्रिंट मीडिया का राष्ट्रीय योगदान अमूल्य है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान इसने जनचेतना जगाई, आजादी के बाद लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूत बनाया, और राष्ट्र निर्माण में अहम भूमिका निभाई। गांधी जी से लेकर आज तक के हर महत्वपूर्ण आंदोलन में प्रिंट मीडिया की भूमिका रही है।

इसके ठीक उलट, सोशल मीडिया का योगदान समाज में विभाजन और अराजकता फैलाने में है। यह धर्म, जाति, राजनीति के नाम पर लोगों को बांटता है, फर्जी खबरें फैलाता है, और सामाजिक सामंजस्य को नुकसान पहुंचाता है।

प्रिंट मीडिया ने देश की आज़ादी से लेकर आज तक राष्ट्र निर्माण में अपना खून-पसीना लगाया है। इसका लंबा-चौड़ा इन्फ्रास्ट्रक्चर है, अनुभवी पत्रकारों की टीम है, और सबसे महत्वपूर्ण—नैतिक मानदंड हैं।

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का मुख्य उद्देश्य लोगों को सम्मोहित/भ्रमित करना है, सूचना या जानकारी देना नहीं। ये कंपनियाँ विज्ञापन राजस्व कमाने के लिए सनसनीखेज़ और भड़काऊ सामग्री को बढ़ावा देती हैं। यहाँ अपरिपक्वता और फूहड़ता का बोलबाला है, जबकि तथ्यपरक जानकारी गायब है।

इन्फ्लुएंसर्स: आधुनिक युग के सामाजिक परजीवी
आज के अधिकांश इन्फ्लुएंसर्स सामाजिक परजीवी बनकर रह गए हैं। ये किराए के टट्टू हैं जो पैसे के लिए अपनी आत्मा तक बेच देते हैं। इनका कोई सिद्धांत नहीं, कोई नैतिकता नहीं, केवल लालच है। ये वही लोग हैं जो कल किसी कंपनी का प्रचार करते हैं, आज किसी राजनीतिक पार्टी का, और कल किसी विदेशी एजेंडे का।

इनके कारण हमारी युवा पीढ़ी भटक रही है। लड़के-लड़कियाँ असंभव सपने देखते हैं, रातों-रात अमीर बनने के सपने देखते हैं। मेहनत, ईमानदारी और संयम की जगह शॉर्टकट और छलकपट की मानसिकता पनप रही है।

समाधान: तत्काल आवश्यक कार्रवाई

नकली पहचान का जहरीला खेल
आज हज़ारों फर्जी प्रोफाइल्स के माध्यम से धोखाधड़ी, फ्रॉड और सामाजिक अपराध का जाल बिछाया जा रहा है। एक व्यक्ति दर्जनों नकली अकाउंट बनाकर भोली-भाली जनता को ठगने में लगा है। रोमांस स्कैम से लेकर निवेश फ्रॉड तक, फेक प्रोफाइल्स के सहारे अरबों रुपए की चोरी हो रही है। यह आर्थिक आतंकवाद से कम नहीं है।
इन फर्जी खातों का उपयोग धर्मांतरण, सामुदायिक दंगे, राष्ट्रविरोधी प्रचार और युवाओं के मानसिक भ्रष्टाचार के लिए किया जा रहा है। सरकार कब तक इस अराजकता को बर्दाश्त करती रहेगी?

यह सरकारी नीति की घोर विफलता है कि आज तक इस मुद्दे पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई है। जब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग के ज़रिए हर फर्जी प्रोफाइल को पकड़ना संभव है, तो सरकार की मौनता समझ से परे है।

आधार-आधारित KYC: एकमात्र समाधान

तत्काल प्रभाव से सभी सोशल मीडिया कंपनियों को आधार कार्ड प्रमाणीकरण के साथ अनिवार्य KYC लागू करना होगा। यह कोई सुझाव नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा की आपातकालीन आवश्यकता है। जिस प्रकार बैंक खाता खोलने या मोबाइल कनेक्शन लेने के लिए आधार अनिवार्य है, उसी प्रकार सोशल मीडिया अकाउंट के लिए भी यह अनिवार्य होना चाहिए।

1. तत्काल लागू करने योग्य नीति:
एक आधार, एक प्रोफाइल: प्रत्येक आधार कार्ड से केवल एक ही सोशल मीडिया अकाउंट की अनुमति
OTP-आधारित सत्यापन: प्रत्येक पोस्ट के लिए आधार-लिंक्ड मोबाइल पर OTP
तुरंत निलंबन: फर्जी जानकारी पाए जाने पर 24 घंटे के भीतर अकाउंट बंद करना
आपराधिक दायित्व: फेक प्रोफाइल बनाने वालों के खिलाफ तत्काल FIR

2. सोशल मीडिया कंपनियों पर कड़े नियम
भारत में डेटा सेंटर: सभी कंपनियों के लिए अनिवार्य
भारतीय साझेदार: विदेशी कंपनियों के लिए स्थानीय पार्टनर की अनिवार्यता
भारी जुर्माना: नियम उल्लंघन पर ₹100 करोड़ तक का दंड
तुरंत बैन: भारतीय कानून न मानने पर सेवा बंद करना

3. इन्फ्लुएंसर उत्तरदायित्व अधिनियम
पेड कंटेंट की अनिवार्य घोषणा: हर प्रायोजित पोस्ट पर स्पष्ट लेबलिंग
तथ्य सत्यापन दायित्व: झूठी जानकारी फैलाने पर कानूनी कार्रवाई
लाइसेंसिंग प्रणाली: 1 लाख से ज्यादा फॉलोअर्स वाले इन्फ्लुएंसर्स के लिए लाइसेंस

4. डिजिटल साक्षरता अभियान
स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करना: फेक न्यूज़ पहचानने की ट्रेनिंग
अभिभावक जागरूकता: बच्चों के सोशल मीडिया उपयोग पर नियंत्रण
सामुदायिक कार्यक्रम: गाँव-शहर में डिजिटल जागरूकता अभियान

5. प्रिंट मीडिया को मज़बूती
सरकारी सहायता: विश्वसनीय पत्रकारिता के लिए विशेष फंड
डिजिटल अपग्रेड: प्रिंट मीडिया के लिए तकनीकी सहायता
युवा पत्रकारों को प्रोत्साहन: नैतिक पत्रकारिता के लिए छात्रवृत्ति

6. तकनीकी समाधान
AI-आधारित निगरानी
ब्लॉकचेन सत्यापन: सामग्री की प्रामाणिकता के लिए
रियल-टाइम फैक्ट चेकिंग: त्वरित सत्यापन प्रणाली

यह राष्ट्रीय आपातकाल है। यदि अभी भी कार्रवाई नहीं हुई, तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें कभी माफ नहीं करेंगी। आधार-आधारित KYC तुरंत लागू करना, फर्जी प्रोफाइल्स को जड़ से मिटाना, और सोशल मीडिया को भारतीय मूल्यों के अनुकूल बनाना समय की मांग है।

प्रिंट मीडिया की विश्वसनीयता को और मज़बूत बनाना होगा और डिजिटल अराजकता पर लगाम लगानी होगी। जिस सभ्यता और संस्कृति की रक्षा के लिए हमारे पूर्वजों ने बलिदान दिए, उसे इन फर्जी प्रोफाइल्स की भेंट नहीं चढ़ने दिया जा सकता।

सोशल मीडिया का उपयोग समाज और देश के कल्याण के लिए, राष्ट्र निर्माण के लिए किया जाना चाहिए, न कि व्यक्तिगत लाभ और सामाजिक विघटन के लिए। समय रहते सचेत हो जाइए—देर हो जाने पर पछताना पड़ेगा।
धन्यवाद,

रोटेरियन सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक, इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री
पूर्व उपाध्यक्ष, जयपुर स्टॉक एक्सचेंज लिमिटेड
जयपुर, राजस्थान
suneelduttgoyal@gmail.com

टीवी चैनलों, विश्लेषकों की सांठगांठ और आम निवेशक के साथ होता धोखाधडी का खुला खेल – क्यों चुप है सेबी और केंद्र सरकार? कठोर कदम उठाने की है आवश्यकता।

मुफ्त सलाह के नाम पर चल रहा है सबसे बड़ा घोटाला – देश के कुछ बड़े टीवी चैनलों पर इन दिनों शेयर बाजार से जुड़ी खबरों और विश्लेषणों की जो बाढ़ सी आ गई है, वह दरअसल एक सुनियोजित साजिश का हिस्सा है। सुबह से लेकर शाम तक चैनलों पर बैठकर कुछ तथाकथित विश्लेषक निफ्टी, बैंक निफ़्टी, फिन निफ्टी तथा जितने भी फ्यूचर ऑप्शन के शेयर्स है तथा नकद भुगतान के शेयर भी शामिल होते हैं उनके भावों का का लेवल, ओपनिंग, क्लोजिंग, स्टॉप लॉस, टारगेट, अपर और लोअर टारगेट जैसी बातें करते रहते हैं। ये सभी भले ही सेबी के द्वारा पंजीकृत अधिकृत सलाहकार हों, लेकिन असली सवाल यह है कि क्या इन्हें यह अधिकार है कि वे आम निवेशकों को दिन-रात मुफ्त की सलाह देकर उनके निवेश के फैसलों को प्रभावित करें?
और सबसे बड़ी बात – अगर उनकी सलाह गलत साबित हो जाए, तो क्या वे उस नुकसान की भरपाई के लिए जिम्मेदार हैं? बिल्कुल नहीं! यही तो इस पूरे खेल की सच्चाई है।

पिछले पांच वर्षों में सेबी ने प्रमुख मीडिया व्यक्तित्वों से लेकर फिनफ्लुएंसर्स तक विभिन्न श्रेणियों के लोगों पर तथाकथित “सख्त कार्रवाई” की है, कई बार दोषी लोगों को बैन भी कर चुकी है। लेकिन बैन के बाद क्या हुआ? क्या इन विश्लेषकों को वाकई सजा मिली? क्या आम निवेशक को उसका पैसा वापस मिला? बिल्कुल नहीं!
उल्टा, ये विश्लेषक और चैनल फिर किसी नए नाम से, नए मंच पर धड़ल्ले से सक्रिय हो जाते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि जो आम निवेशक इनकी मुफ्त सलाहों के चक्कर में अपनी गाढ़ी कमाई गंवा बैठता है, उसे न तो न्याय मिलता है, न ही उसकी रकम वापस आती है।

हालिया मामले
जेन स्ट्रीट ग्रुप का मामला – इस वर्ष सबसे चर्चित मामला जेन स्ट्रीट ग्रुप का है, जिस पर सेबी ने इंडेक्स मैनिपुलेशन का आरोप लगाते हुए ₹4,843 करोड़ की अवैध कमाई जब्त करने का आदेश दिया है। लेकिन यह पैसा कहां जाएगा? पीड़ित निवेशकों को कब मिलेगा?

संजीव भसीन केस – पूर्व आईआईएफएल सिक्योरिटीज डायरेक्टर और प्रसिद्ध टीवी मार्केट एक्सपर्ट संजीव भसीन को 11 अन्य लोगों के साथ स्थायी रूप से प्रतिबंधित किया गया है। भसीन पर आरोप है कि वे पहले शेयर खरीदते थे और फिर टेलीविजन और टेलीग्राम ग्रुप्स पर उनकी सिफारिश करते थे।
यह तो साफ़-साफ़ धोखाधड़ी थी, फिर भी यह खेल वर्षों तक चलता रहा।
इस पूरे मामले में सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि संजीव भसीन न तो कभी सेबी द्वारा पंजीकृत थे और न ही अधिकृत विश्लेषक, फिर भी उन्हें वर्षों तक टीवी पर बोलने का मौका दिया गया — और वह भी प्रमुखता के साथ।

क्या यह चैनल की जिम्मेदारी नहीं बनती कि जब वह किसी व्यक्ति को दर्शकों के सामने वित्तीय सलाह देने का मंच देते हैं, तो पहले यह सुनिश्चित करें कि वह व्यक्ति सभी नियामक संस्थाओं, विशेषकर सेबी, से अधिकृत है या नहीं?
यह केवल चैनल की लापरवाही नहीं है — सेबी की तरफ से भी यह एक गंभीर चूक रही है, क्योंकि संजीव भसीन वर्षों तक टीवी पर वित्तीय सलाह और सूचनाएं देते रहे, और सेबी के अधिकारी चुपचाप सोते रहे।

अब अचानक यह कैसे याद आया कि संजीव भसीन सेबी के पंजीकृत विश्लेषक नहीं हैं?
कई बार ऐसा प्रतीत होता है कि इस पूरे खेल में सभी की मिलीभगत है, और इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता।

लेखक स्वयं भी चार दशकों से अधिक का शेयर बाजार अनुभव रखते हैं और जयपुर स्टॉक एक्सचेंज में निदेशक एवं उपाध्यक्ष के पद पर कार्य कर चुके हैं। ऐसे में क्या ये टीवी चैनल वाले मुझे भी बोलने का मौका देंगे — बिना यह जांचे कि मैं सेबी से अधिकृत या पंजीकृत हूं या नहीं?
यह भी एक विचारणीय प्रश्न है कि सिर्फ संजीव भसीन को ही यह अवसर क्यों दिया गया?

प्रदीप पांड्या – पूर्व सीएनबीसी आवाज़ एंकर

शेयर बाजार में गोपनीय जानकारी लीक करने के कारण 5 वर्षों के लिए प्रतिबंधित – ₹1 करोड़ का जुर्माना

अल्पेश वसांजी फुरिया – टेक्निकल एनालिस्ट

अंदरूनी जानकारी के आधार पर ट्रेडिंग के कारण 5 वर्षों के लिए प्रतिबंधित
₹1 करोड़ का जुर्माना

रवींद्र बालू भारती – भ्रामक निवेश सलाह देने के लिए प्रतिबंधित

नासिरुद्दीन अंसारी – फर्जी निवेश टिप्स फैलाने और X (पूर्व में ट्विटर) पर झूठे बाय/सेल सुझाव देने के कारण प्रतिबंधित

सिमी भौमिक – ज़ी बिज़नेस की गेस्ट एक्सपर्ट, प्रतिबंधित

मुदित गोयल – ज़ी बिज़नेस पर नियमित विश्लेषक, प्रतिबंधित

हिमांशु गुप्ता – ज़ी बिज़नेस गेस्ट एक्सपर्ट, प्रतिबंधित

आशीष केलकर – गेस्ट विश्लेषक, प्रतिबंधित

किरण जाधव – विश्लेषक, प्रतिबंधित

हेमंत घई – सीएनबीसी आवाज़ के एंकर, फर्जी ट्रेडिंग के लिए पूंजी बाजार से प्रतिबंधित

असमिता जितेश पटेल – “शी वुल्फ ऑफ द स्टॉक मार्केट” और “ऑप्शन्स क्वीन” के नाम से मशहूर इस लोकप्रिय यूट्यूबर को अनधिकृत निवेश सलाहकार सेवाएं प्रदान करने के लिए प्रतिबंधित किया गया है। सेबी ने उससे और संबद्ध संस्थाओं से ₹53.67 करोड़ की अवैध कमाई जब्त की है।

अरशद वारसी और मारिया गोरेटी – बॉलीवुड अभिनेता अरशद वारसी और उनकी पत्नी मारिया गोरेटी 59 संस्थाओं में शामिल थे, जिन्हें साधना ब्रॉडकास्ट के शेयरों की खरीदारी की सिफारिश करने वाले भ्रामक यूट्यूब वीडियो प्रमोट करने के लिए प्रतिबंधित किया गया। सेबी ने कुल ₹58.01 करोड़ की अवैध कमाई वापस करने का आदेश दिया।

टीवी चैनलों पर कंपनियों के नतीजों का खेल
कुछ बड़े टीवी चैनल्स अक्सर कंपनियों के तिमाही नतीजों पर अपनी राय थोपते हैं – “हमारे अनुमान से कम आए हैं”, “हमारे अनुमान से ज्यादा आए हैं”। सवाल है – इनके पास ऐसा कौन सा जादुई मैनेजमेंट मैकेनिज्म है, जो कंपनी के अंदर की पूरी जानकारी रखता हो? क्या ये कंपनियां, जो सरकार के सभी कानूनों का पालन करती हैं और जिनके पास प्रोफेशनल ऑडिटर्स हैं, इन टीवी चैनलों के तथाकथित अनुमान से कमतर हैं?
और जब ये अनुमान गलत साबित होते हैं, तो बाजार में भारी उतार-चढ़ाव आता है, जिसका शिकार सिर्फ और सिर्फ आम निवेशक ही होता है।

विश्लेषकों का असली चेहरा
जितने भी विश्लेषक टीवी पर आ रहे हैं, यदि आप उनके पुराने रिकॉर्ड और इतिहास को जांचने की कोशिश करेंगे, तो चौंकाने वाली सच्चाई सामने आएगी। जिन भी कंपनियों को वे रिप्रेजेंट करते हैं, उन कंपनियों के क्लाइंट्स की संख्या उनके तथाकथित विश्लेषकों के टीवी पर आने से पहले क्या थी और आज कितनी है – यह डेटा बताएगा कि कैसे टीवी की पहुंच का फायदा उठाकर ये लोग अपना धंधा बढ़ाते हैं।

टीवी चैनल और बदले की राजनीति
पिछले दो दशकों में देश के प्रमुख वित्तीय समाचार चैनलों का एक और घिनौना चेहरा सामने आया है, जो शेयर बाजार की कवरेज से कहीं अधिक चिंताजनक है। जब भी किसी कंपनी से इन चैनलों की कोई मिसअंडरस्टैंडिंग हो जाती है या वह कंपनी इनके साथ ‘मैनेज’ नहीं हो पाती, तो ये चैनल उस कंपनी के खिलाफ व्यवस्थित मुहिम चलाना शुरू कर देते हैं। यह सिर्फ पत्रकारिता नहीं, बल्कि साफ तौर पर बदले की भावना से प्रेरित व्यावसायिक रणनीति है।

इन चैनलों का तरीका बेहद चालाकी भरा है – वे कंपनियों के खिलाफ नकारात्मक स्टोरीज चलाते हैं, उनके शेयर प्राइस को गिराने की कोशिश करते हैं, और फिर दर्शकों से कहते हैं कि “हमारी खबर का असर देखिए।” कुछ चैनल विशेष रूप से अत्यधिक पक्षपाती हैं और इनका एकमात्र उद्देश्य बाजार को नकारात्मक रूप से प्रभावित करना, निवेशकों को भ्रमित करना और पैसा कमाना है।

वहीं दूसरी ओर कुछ बड़े ब्रोकिंग हाउस को विशेष तवज्जो देकर उन्हें बार-बार टीवी पर आने का आमंत्रण देते हैं या उनके ऑफिस में पहुंचकर उनके बार-बार टीवी पर इंटरव्यू लेते हैं या किसी कंपनी को बहुत ज्यादा प्रमोट कर दिखाते हैं और जिससे अनाधिकृत रूप से बाजार में उस व्यक्ति विशेष या शेयर विशेष पर तेजी का माहौल बन जाता है यह व्यक्ति विशेष अपने आपको बहुत बड़ा एक्सपर्ट साबित करता है टीवी पर बार-बार आने के माध्यम सेऔर इसमें टीवी चैनल की मार्केटिंग टीम का बहुत बड़ा योगदान होता है|

विदेशी ताकतों का संदिग्ध हाथ
सबसे गंभीर बात यह है कि इन चैनलों की गतिविधियों के पीछे कहीं विदेशी ताकतों या ऐसे समूहों का हाथ तो नहीं, जो भारत में आर्थिक अस्थिरता या संकट पैदा करने की मंशा रखते हैं। यह संदेह इसलिए और भी गहरा हो जाता है क्योंकि इनकी कार्यप्रणाली में एक स्पष्ट पैटर्न दिखता है – जो कंपनियां इनके ‘सिस्टम’ में फिट नहीं होतीं, उन्हें निशाना बनाया जाता है।

सरकार की तत्काल जिम्मेदारी – अब और देर नहीं
इस गंभीर मुद्दे पर सरकार को तुरंत गहन छानबीन करनी चाहिए। यह जांच सिर्फ इन चैनलों की वित्तीय पारदर्शिता तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि इनके फंडिंग सोर्स, विदेशी निवेश, और उन ताकतों की पहचान भी करनी चाहिए जो भारतीय अर्थव्यवस्था को अस्थिर करने में रुचि रख सकती हैं।
जब मीडिया की आड़ में व्यावसायिक हित और राष्ट्रीय सुरक्षा के सवाल जुड़ जाते हैं, तो यह सिर्फ शेयर बाजार का मामला नहीं रह जाता – यह देश की आर्थिक संप्रभुता का प्रश्न बन जाता है।

मैनेजमेंट इंटरव्यू और मार्केटिंग का खेल
आजकल चैनलों पर “नो योर मैनेजमेंट” जैसे शो चल रहे हैं, जो दरअसल एक सुनियोजित धोखाधड़ी का हिस्सा हैं। इन शोज के पीछे चैनल की मार्केटिंग टीम महीनों पहले कंपनियों के मैनेजमेंट से संपर्क करती है, स्क्रिप्टेड सवाल-जवाब तय होते हैं, और तय समय पर उन्हें टीवी पर लाया जाता है – तेजी के दौर में या मंदी के दौर में, जैसा बाजार को प्रभावित करने के लिए जरूरी हो।

इसका नतीजा यह होता है कि शेयरों में भारी उतार-चढ़ाव आता है। अगर सेबी पिछले दो-तीन महीने के टॉप 200-300 ट्रेडर्स के खातों की जांच करे, तो सच्चाई सामने आ जाएगी कि किस तरह से बाजार को मैनिपुलेट किया जाता है।
हिंडनबर्ग जैसी कंपनियों के शॉर्ट सेलर्स भी यही सब करते हैं — वे बड़ा खेल खेलते हैं, जबकि भारतीय टीवी पर कुछ लोग छोटा खेल खेलते हैं।

टीवी चैनल और उन पर आने वाले विशिष्ट विश्लेषकों की हालत यह है कि वे रोज़ कोई न कोई नई-नई शीर्षक और विषय लेकर आते हैं — जैसे अगर क्रिकेट का मौसम है, तो “IPL 20 में क्या होगा?”, “T20 की टॉप टीम कौन?”, यदि गणेश चतुर्थी है, तो “गणेश जी की कृपा किन शेयरों पर बरसेगी?”, या फिर “सास, बहू और साजिश” की जगह “सास, बहू और शेयर बाज़ार” जैसे नाम रखकर मार्केट को हिप्नोटाइज़ करने का प्रयास करते हैं।

इस तरह के टाइटल्स और शो की प्रस्तुति से वे निवेशकों को भ्रमित करते हैं और मार्केट में नकारात्मक तरीके से असर डालते हैं। यह सब टीवी चैनलों की मार्केटिंग स्ट्रैटेजी का हिस्सा है — कि कैसे ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को प्रभावित किया जाए, उन्हें मूर्ख बनाया जाए और मार्केट से आसान तरीके से पैसा कमाया जाए, और अपनी टी आर पी कैसे बढ़ाई जाये।

क्योंकि कानून इस क्षेत्र में न तो बहुत स्पष्ट है और न ही सख्त, इसलिए टीवी चैनल, विश्लेषक और एंकर ऐसे कंटेंट बनाते हैं जो किसी न किसी प्रकार की मनोवैज्ञानिक मार्केटिंग रणनीति हो — जिससे उनकी टीआरपी बढ़े और निवेशक उनकी बातों में आकर अपनी बुद्धि का इस्तेमाल किए बिना ही कदम उठाएं।
इस पूरे खेल का उद्देश्य विश्लेषकों और चैनलों को अधिकतम लाभ पहुंचाना है — उन्हें निवेशकों के नुकसान से कोई सरोकार नहीं होता।

सेबी और सरकार की जिम्मेदारी –
सेबी की जिम्मेदारी है कि वह हर निवेशक के एक-एक रुपये की सुरक्षा की गारंटी दे। लेकिन आज हालात यह हैं कि सेबी खुद दंतविहीन नजर आ रही है। जिन विश्लेषकों ने करोड़ों कमाए, उन पर मामूली पेनल्टी लगती है, और वे फिर से सक्रिय हो जाते हैं। आम निवेशक को न तो उसका पैसा वापस मिलता है, न ही न्याय।

यह एक तरह का साइबर फ्रॉड है, जिसमें लोगों को प्रलोभन देकर उनके विवेक को हिप्नोटाइज किया जाता है।

संसद में उठने चाहिए कड़े सवाल
मैं दोनों सदनों के सभी सम्मानित सांसद महोदयों से यह जोरदार अपील करता हूँ कि वे माननीय वित्त मंत्री महोदय से यह जानकारी अवश्य प्राप्त करें तथा संसद में इस विषय पर तीखे प्रश्न उठाएँ:

अब तक ऐसे कितने विश्लेषकों के विरुद्ध कार्रवाई की गई है?

उनसे कितनी राशि वसूल या ज़ब्त की गई है?

जो निवेशक उनके झांसे में आकर प्रभावित हुए और ठगे गए, उन्हें कितना नुकसान हुआ?

इस नुकसान की भरपाई सेबी ने किस प्रकार की है?

क्या उन निवेशकों को न्याय मिला?

संसद में यह सवाल उठाना जरूरी है कि सेबी ने टीवी चैनलों और विश्लेषकों की सांठगांठ को रोकने के लिए क्या कठोर कदम उठाए हैं? क्या ऐसे कायदे-कानून बनाए गए हैं जिससे निवेशक इन चैनलों और विश्लेषकों के प्रभाव से बच सकें? वर्तमान में सेबी के नियम इतने कमजोर हैं कि विश्लेषक करोड़ों कमाते हैं और मामूली पेनल्टी भुगतकर फिर से सक्रिय हो जाते हैं।

सेबी और सरकार को तत्काल करने होंगे कड़े कदम

सेबी को चाहिए कि वह टीवी चैनलों पर आने वाले विश्लेषकों की स्थायी रूप से जांच करे, और बिना अनुमति के किसी भी तरह की सलाह देने पर सख्त प्रतिबंध लगाए।

टीवी चैनलों द्वारा कंपनियों के नतीजों पर अपनी राय देने की प्रक्रिया पर तत्काल रोक लगे।

“नो योर मैनेजमेंट” जैसे शोज की सख्त निगरानी हो, ज्यादा बेहतर हो कि इस प्रकार के शोज को बंद ही कर दिया जाए और चैनल मार्केटिंग टीम, एंकर, विश्लेषकों के फोन और अकाउंट्स की जांच की जाए।

आम निवेशक को मुफ्त की सलाह से बचना चाहिए, और केवल प्रमाणित, फीस लेकर सलाह देने वाले सलाहकारों पर ही भरोसा करना चाहिए।

अब या कभी नहीं –
अब जबकि यह एक स्थापित तथ्य बन चुका है कि टीवी चैनलों पर मुफ्त टिप्स और सलाह देने वाले विश्लेषक न तो ईमानदार हैं और न ही निष्पक्ष हैं, बल्कि उनके अपने निहित स्वार्थ हैं, तो फिर सेबी इस हेरफेर भरी प्रथा पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगा रही है? विकसित देशों में इस तरह की प्रथाओं की सख्त मनाही है – अमेरिका में प्रतिभूति एवं विनिमय आयोग और यूरोप में यूरोपीय प्रतिभूति एवं बाजार प्राधिकरण जैसी संस्थाएं इस तरह के मैनिपुलेशन को बर्दाश्त नहीं करतीं। वहां टीवी पर आने वाले हर विश्लेषक को अपने हितों का खुलासा करना पड़ता है, और बिना रजिस्ट्रेशन के कोई भी व्यक्ति निवेश सलाह नहीं दे सकता।

भारत में जब हजारों करोड़ों का घोटाला हो चुका है, जब संजीव भसीन से लेकर असमिता पटेल तक के मामले सामने आ चुके हैं, जब यह साबित हो चुका है कि ये तथाकथित विशेषज्ञ पहले शेयर खरीदते हैं और फिर टीवी पर उनकी सिफारिश करते हैं, तो फिर सेबी की यह चुप्पी समझ से परे है। क्या सेबी को लगता है कि भारतीय निवेशक विकसित देशों के निवेशकों से कम सुरक्षा के हकदार हैं? क्या हमारे यहां आम निवेशक की गाढ़ी कमाई की कोई कीमत नहीं है?

सेबी को तुरंत इस मैनिपुलेटिव प्रथा पर स्थायी प्रतिबंध लगाना चाहिए, क्योंकि अब यह सिर्फ नियामक विफलता नहीं, बल्कि भोले-भाले निवेशकों के साथ धोखाधड़ी में मूक सहयोग का मामला बन गया है। जब तक यह व्यवस्था जारी रहेगी, तब तक आम निवेशक इन चैनलों और विश्लेषकों के चंगुल में फंसता रहेगा, और उसकी मेहनत की कमाई इन तथाकथित विशेषज्ञों की जेब में जाती रहेगी।

जैसे चुनाव प्रचार मतदान से पहले बंद हो जाता है ताकि मतदाता अपने विवेक से फैसला कर सके, वैसे ही शेयर बाजार में भी टीवी चैनलों की यह कवरेज सीमित होनी चाहिए। सरकार, वित्त मंत्रालय, कॉर्पोरेट मंत्रालय, सेबी, एनएसई, बीएसई – सभी को मिलकर इस खेल पर सख्त लगाम लगानी चाहिए।
वरना वह दिन दूर नहीं जब आम निवेशक की गाढ़ी कमाई पूरी तरह लुट जाएगी, और बाजार का नियंत्रण सरकार के हाथ से बाहर हो जाएगा। अब वक्त आ गया है कि सेबी और सरकार मिलकर इस मायावी जाल को तोड़ें, सख्त कानून बनाएं, और दोषियों को कड़ी सजा दें। तभी शेयर बाजार सच में पारदर्शी, सुरक्षित और आम निवेशक के लिए फायदेमंद बन सकेगा।

यह सिर्फ एक आर्थिक मुद्दा नहीं है – यह राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला है। और इसे इसी नजरिए से देखा जाना चाहिए।

धन्यवाद,

सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक, इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री
पूर्व उपाध्यक्ष, जयपुर स्टॉक एक्सचेंज लिमिटेड
जयपुर, राजस्थान
suneelduttgoyal@gmail.com

क्या मुस्कान सकारात्मकता का चेहरा मात्र है, या दिल के भीतर छिपे दर्द का मुखौटा?

हमेशा मुस्कराना ज़रूरी नहीं होता
— जब पॉजिटिविटी भी बोझ बन जाती है
“सब ठीक हो जाएगा।”
“कम से कम ऐसा तो नहीं हुआ।”
“सोचो, इससे बुरा भी हो सकता था।”
“मुस्कुराओ, सब अच्छा है।”
“ईश्वर जो करता है वह अच्छा करता है।”
“ना मालूम आज की बुराई में आने वाले भविष्य में कितनी अच्छाइयाँ छिपी हों।”
“तुम तो बहुत बोल्ड हो यार, बस इतनी सी परेशानी में रो रहे हो?”
“तुम तो लोगों का सहारा हो, हमें सहारा देते हो — आज खुद ही टूट गए?”
“ईश्वर ने तुम्हें बहुत सक्षम बनाया है।”
“तुम खुद रिसोर्सफुल हो। तुम्हारा इतना बड़ा सर्किल है — फिर किस बात की परेशानी?”

लेकिन शायद लोग यह भूल जाते हैं कि ऊपर कही गई सारी बातें मात्र एक दिखावा हैं — जिसे अंग्रेज़ी में कहते हैं “आई शैडो”।

यह एक ऐसी भूल-भुलैया है कि लोग तकलीफ़ में आने पर अक्सर साथ छोड़ देते हैं, या साथ नहीं देते, या साथ देना नहीं चाहते, और कोई न कोई बहाना बना लेते हैं। ऐसे लोगों को पहचानना हमारे लिए ज़रूरी है।

आज लगभग सभी को आवश्यकता है एक ऐसे भरोसेमंद दोस्त या साथी की, जिससे वह अपनी बातें विश्वास के साथ साझा कर सके, तकलीफ़ में सलाह-मशवरा कर सके, और उसके अनुसार भविष्य में निर्णय लेने की क्षमता को और बेहतर बना सके। लेकिन दुख इसी बात का है कि आज जीवन में यही चीज़ सबसे ज़्यादा कमी की बन गई है।

आज आप जिस दोस्त को अपनी कमी बता दोगे, सलाह लेते समय — तो यह मान कर चलिए कि आने वाले समय में वही शायद आपका सबसे बड़ा दुश्मन बन जाए, तो कोई बड़ी बात नहीं होगी।

लोगों का चरित्र, ईमान, और संवेदनाएं इतनी सस्ती हो गई हैं कि लोग छोटी-छोटी बातों पर, चंद रुपयों के लिए या अपने ईगो की संतुष्टि के लिए, वर्षों पुराने संबंध और साथ को तोड़ने में एक क्षण भी नहीं लगाते।

अब समय ऐसा आ गया है कि रिश्तों या दोस्ती को लंबा निभाने के बजाय, जब भी किसी से जुड़ाव हो — कुछ दिन बाद ही कोई काम कहकर देख लीजिए। यदि वह काम कर दें तो एक अर्थ निकलेगा, और न करें तो आप उनसे दूरी बना लें।

कितनी बार ये वाक्य हमारे कानों में पड़े हैं — दोस्त से, रिश्तेदार से, या कभी खुद से भी।

पहली नज़र में ये वाक्य सहारा लगते हैं — जैसे डूबते को शब्दों की लकड़ी मिल गई हो।

लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि ये शब्द, ये ‘पॉजिटिविटी’, किसी दिन हमारे लिए एक बोझ बन जाएँ?

हाँ, पॉजिटिविटी भी टॉक्सिक हो सकती है। अजीब लगता है, लेकिन यह सच है।
हम इंसान हैं। हमारे भीतर दुख, ग़ुस्सा, असंतोष, थकान, भय — ये सब भावनाएँ होती हैं। इनका बाहर आना, महसूस किया जाना और रिश्तों में जगह पाना ज़रूरी है।

लेकिन जब समाज या हमारे अपने ही हमसे यह अपेक्षा करने लगते हैं कि हम हर हाल में ‘सकारात्मक’ रहें — तब यह उम्मीद एक बोझ बन जाती है। और यही बोझ धीरे-धीरे हमें हमारी सच्ची भावनाओं से काट देता है।

किसी को खो देने पर, दिल टूटने पर, नौकरी छूटने पर, या सिर्फ थक कर बैठने की इच्छा में भी यदि हमें सिर्फ “पॉजिटिव रहो” की सलाह मिलती है — तो यह हमारी टूटन को अस्वीकार करना होता है।

नकारात्मक सोच हावी होने की एक और वजह है — न्यूक्लियर फैमिली।
पति-पत्नी अकेले रहते हैं। बच्चे पैदा किए तो ठीक है, नहीं किए तो भी ठीक है। अगर बच्चे हैं भी, तो वे हॉस्टल में पढ़ रहे होते हैं।
ज़रा सी भी तकरार हो जाए, या पत्नी के पास कोई कार्य करने लायक अवसर न हो — वैसे भी आजकल घरों में कुछ ख़ास करने को नहीं बचा है।
जिन घरों में सिर्फ दो कमरों का फ्लैट है, वहाँ भी यदि महिला काम नहीं कर रही है तो दिन भर सोशल मीडिया और टीवी पर ही समय बितता है। ऐसी स्थिति में नकारात्मक ऊर्जा का प्रवेश होना स्वाभाविक है।

आज के इस तकनीकी युग की सबसे बड़ी खराबी यह है कि यह सकारात्मकता का उतना तेज़ी से प्रसार नहीं कर पा रही, लेकिन नकारात्मकता का बहुत तेज़ प्रचार-प्रसार हो रहा है — और वह दिलों-दिमाग पर हावी हो जाती है।

“टॉक्सिक पॉजिटिविटी” वही है — जब किसी की सच्ची तकलीफ़ को, उनके दर्द और कमज़ोरी को यह कहकर ढांपने की कोशिश की जाती है कि:
“तुम्हें तो खुश रहना चाहिए।”
“इसमें भी कुछ अच्छा देखो।”
“कम से कम तुम ज़िंदा तो हो।”
इसे समझिए ऐसे — जैसे किसी गहरे ज़ख्म पर फूल चिपका देना।
बाहर से सुंदर दिखेगा, लेकिन भीतर से रिसता खून अब भी वहीं होगा।

रिश्तों में यह और भी खतरनाक हो जाता है।
जब कोई अपना टूट रहा हो, और हम उसे उसकी भावनाओं को जीने की जगह सिर्फ ‘सकारात्मक सोचने’ की सीख दे रहे हों — तब वह स्वयं को अकेला महसूस करने लगता है।

उसे लगता है कि उसका दुख स्वीकार्य नहीं है, वह स्वयं ‘कमज़ोर’ है।
कभी-कभी तो हम खुद अपने भीतर यह टॉक्सिक पॉजिटिविटी पाल लेते हैं।

अपने आप से कहते हैं —
“रोना नहीं है।”
“मज़बूत बनो।”
“मैं फील नहीं कर सकता।”
“जो बीत गया, सो गया।”
लेकिन दिल रोना चाहता है।
मन सिसकना चाहता है।
शरीर थक कर रुकना चाहता है।
क्या होगा, अगर हम कुछ पल के लिए ‘असली’ हो जाएं?
अगर हम अपने आँसुओं को बहने दें?
अगर किसी अपने से कहें — “मैं आज टूट रहा हूँ”, और वो बस गले लगा ले — बिना कोई सलाह दिए?

हमारे रिश्तों की गहराई वहीं से शुरू होती है — जब हम एक-दूसरे को सुनते हैं, महसूस करते हैं, और यह अधिकार देते हैं कि “तुम आज कमज़ोर हो सकते हो।”
हम यह क्यों भूल जाते हैं कि प्रकाश की अहमियत तभी है जब अंधेरे को भी जगह दी जाए?

सकारात्मक सोच अच्छी बात है,
लेकिन जब यह हमारी संवेदनाओं, थकान और असलियत को दबा देती है — तब यह एक मुखौटा बन जाती है।
एक ऐसा नकाब, जिसे उतारते-उतारते लोग थक जाते हैं।
हमें अपने अपनों को, बच्चों को, और साथियों को यह बताना ज़रूरी है कि जीवन में सब कुछ ‘ठीक’ होना आवश्यक नहीं।
कभी-कभी ‘ठीक नहीं होना’ भी ठीक होता है।
तो अगली बार जब कोई अपने दुख के साथ आपके पास आए —
तो बस चुपचाप बैठिए, उसका हाथ थामिए और कहिए —
“मैं सुन रहा हूँ। रो लो। मैं यहाँ हूँ।”

धन्यवाद,

सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक, इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री,
पूर्व उपाध्यक्ष , जयपुर स्टॉक एक्सचेंज लिमिटेड,
जयपुर, राजस्थान
suneelduttgoyal@gmail.com

Why Mutual Funds Should Also Be Brought into Demat Format

India’s capital market is continuously evolving. The digitisation revolution in Indian financial markets has brought unprecedented changes over the past decades. Keeping in mind technology, transparency, and protection of investors’ interests, the Securities and Exchange Board of India (SEBI) and the government have taken several visionary decisions from time to time. Bringing all securities listed on stock exchanges to 100% demat (dematerialised) format was one such step that reduced the possibilities of fraud in the share market and made transactions quick and transparent.

SEBI and the government keep beating the drum of digitalisation, but why are they deliberately maintaining backwardness in the case of mutual funds? By converting shares and private company shares to demat format, they have shown that they know how to prevent fraud. Then why haven’t steps been taken so far towards making mutual funds – an important investment instrument worth ₹72 lakh crores – mandatory in demat format? Is this deliberate negligence?

Current Market Size and Significance
The country’s Asset Management Companies (AMCs) handle the money of crores of investors. According to the latest figures released by the Association of Mutual Funds in India (AMFI), the total AUM at the end of May 2025 was ₹72.18 lakh crores. This shows sufficient growth compared to previous months and remarkable year-on-year growth, with the industry’s AUM crossing the ₹70 trillion mark in April 2025.

This is beyond understanding: mutual funds’ volume today is almost equal to the volume of listed securities. Despite this, it remains stuck in traditional and complex systems. Bringing mutual fund units to 100% demat format will not only make investors’ work easier but will bring revolutionary change to the entire market. Just as RBI fixes the rates of dollars and foreign currencies every day, mutual funds’ NAV is announced daily, so why can’t these same units be bought and sold at the same day’s price? Is it lack of technology or lack of willpower?

Current Situation and Challenges
Currently, investors have two options for investing in mutual funds – either through Statement of Account (SOA) or through demat account. However, demat format is merely an option, not mandatory. This creates several problems such as delays in redemption, excessive paperwork, and difficulty for investors in getting a comprehensive view of their portfolio.

The size of India’s mutual fund industry is massive. By May 2025, the Assets Under Management (AUM) of the Indian mutual fund industry has reached ₹72.20 lakh crores. This figure shows how popular mutual funds have become among Indian investors. Such a large market requires a uniform, transparent, and efficient system.

Benefits of Demat Format
Making mutual funds mandatory in demat format will have several important benefits:

Benefits for Investors
Real-time Transactions: Investors will be able to instantly redeem and purchase online, getting the latest price of the same day without waiting for a day.

Integrated Portfolio View: Investors will be able to see all their investments – shares, bonds, and mutual funds – in the same demat account, making portfolio management easier.

Reduction in Paperwork: Keeping mutual funds in demat format will eliminate the need for physical documents or paperwork. All work being paperless will help realise the honourable Modi government’s Digital India dream.

Benefits for the Market
Volume Growth in Market: Making mutual funds tradeable will immediately result in a remarkable increase of more than ₹72 lakh crores in market volume based on current valuations.

Control on Wrong Selling: Possibilities of wrong selling of schemes by agents or distributors will be eliminated.

Opportunities for Brokers: Share market brokers will get large volumes, leading to growth in their business.

Digital Transformation: The entire mutual fund system will become digital, promoting India’s digital financial transformation.

Benefits for Fund Managers
Fund managers will get relief from the mental pressure of daily redemptions and new investments. Free from redemption pressure, they will be able to work on better and long-term strategies, making their investment decisions better.

Proposed Implementation Model to make mutual funds tradeable:
NSE’s Mutual Fund Service System (MFSS): NSE already provides MFSS, similarly BSE has BSE Star, through which investors can buy and sell mutual fund units. This system can be expanded and made mandatory for all mutual funds.

Trading Based on Daily NAV: Just as RBI fixes rates for foreign currencies every day, mutual fund companies announce their NAV every evening. Trading can happen the next day based on this NAV.
Use of Depository System: Depositories like NSDL and CSDL already provide the facility to keep mutual fund units in demat form. This arrangement can be made mandatory.

Expectations from the Government and SEBI
When SEBI has made demat format mandatory for listed securities and private limited companies, the time has come for the government and SEBI to discuss with all stakeholders and implement this important reform. By bringing mutual funds to mandatory demat format, India’s share market should be given a new foundation of transparency, liquidity, and investor confidence. This will not only be convenient for investors but will mark the beginning of a new era for the entire financial market.

The government and SEBI should prepare a roadmap to implement this change in collaboration with all stakeholders – Asset Management Companies, stock exchanges, depositories, and investors. This step will promote transparency, efficiency, and digitalisation in Indian financial markets, ultimately benefiting investors.

This change in India’s financial markets will mark the beginning of a new life, new era, and new direction, which will make an important contribution to our country’s economic development.

Thanks,
Rtn. Suneel Dutt Goyal
Director General, Imperial Chamber of Commerce & Industry (ICCI)
Ex. Vice President – Jaipur Stock Exchange Ltd.
Jaipur, Rajasthan
suneelduttgoyal@gmail.com

म्यूचुअल फंड्स को भी डीमैट में लाना क्यों ज़रूरी है?

भारत में पूंजी बाजार लगातार विकसित हो रहा है। भारतीय वित्तीय बाजार में डिजिटलीकरण की क्रांति ने पिछले दशकों में अभूतपूर्व परिवर्तन लाए हैं। टेक्नोलॉजी, पारदर्शिता और निवेशकों के हितों की रक्षा को ध्यान में रखते हुए भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) और सरकार ने समय-समय पर कई दूरदर्शी निर्णय लिए हैं। स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध सभी सिक्योरिटीज को 100% डीमैट (डिमैटेरियलाइज़्ड ) फॉर्मेट में लाना ऐसा ही एक कदम था, जिसने शेयर बाजार में धोखाधड़ी की संभावनाओं को कम किया और लेनदेन को त्वरित एवं पारदर्शी बनाया।

सेबी और सरकार डिजिटलीकरण का ढिंढोरा तो पीटती हैं, मगर म्यूचुअल फंड्स के मामले में जानबूझकर पिछड़ापन क्यों बनाए हुए हैं? शेयरों और प्राइवेट कंपनी शेयरों को डीमैट में बदलकर उन्होंने दिखा दिया कि वे जानते हैं कि कैसे धोखाधड़ी रोकी जाती है। फिर इस ₹72 लाख करोड़ के एक महत्वपूर्ण निवेश के साधन म्यूचुअल फंड्स को डीमैट में अनिवार्य करने की दिशा में अब तक कदम क्यों नहीं उठाया गया? क्या यह जानबूझकर की गई लापरवाही है?

देश की एसेट मैनेजमेंट कंपनियां (ए एम सी ) करोड़ों निवेशकों का पैसा संभालती हैं। एसोसिएशन ऑफ म्यूचुअल फंड्स इन इंडिया (एम्फी) द्वारा जारी नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, मई 2025 के अंत में कुल एयूएम ₹72.18 लाख करोड़ था। यह पिछले महीनों की तुलना में पर्याप्त वृद्धि और साल-दर-साल उल्लेखनीय वृद्धि दर्शाता है, जिसमें उद्योग का एयूएम अप्रैल 2025 में ₹70 ट्रिलियन का आंकड़ा पार कर गया है।

यह बात समझ से परे है: म्यूचुअल फंड्स का वॉल्यूम आज लिस्टेड सिक्योरिटीज के वॉल्यूम के लगभग बराबर है। इसके बावजूद यह पारंपरिक और जटिल व्यवस्थाओं में फंसा हुआ है। म्यूचुअल फंड यूनिट्स को 100% डीमैट में लाने से न केवल निवेशकों का काम आसान होगा, बल्कि पूरे बाजार में क्रांतिकारी बदलाव होगा।
जैसे आरबीआई हर रोज डॉलर और विदेशी मुद्राओं की दर तय करता है, वैसे ही म्यूचुअल फंड्स की एनएवी तो रोज घोषित होती है, फिर यही यूनिट्स उसी दिन के भाव पर क्यों नहीं खरीदी-बेची जा सकतीं? क्या तकनीक नहीं है, या फिर इच्छाशक्ति की कमी है?

वर्तमान स्थिति और चुनौतियां
वर्तमान में, म्यूचुअल फंड्स में निवेश के लिए निवेशकों के पास दो विकल्प हैं – या तो स्टेटमेंट ऑफ अकाउंट (एसओए) के माध्यम से या फिर डीमैट अकाउंट के माध्यम से। हालांकि, डीमैट फॉर्मेट एक विकल्प मात्र है, अनिवार्य नहीं। इससे कई समस्याएं उत्पन्न होती हैं, जैसे रिडेम्पशन में देरी, पेपरवर्क की अधिकता, और निवेशकों के लिए अपने पोर्टफोलियो का समग्र दृश्य प्राप्त करने में कठिनाई।

भारत में म्यूचुअल फंड उद्योग का आकार विशाल है। मई 2025 तक, भारतीय म्यूचुअल फंड उद्योग का एसेट अंडर मैनेजमेंट (एयूएम) ₹72.20 लाख करोड़ तक पहुंच गया है। यह आंकड़ा दर्शाता है कि म्यूचुअल फंड्स अब भारतीय निवेशकों के बीच कितने लोकप्रिय हो गए हैं। इतने बड़े बाजार के लिए एक समान, पारदर्शी और कुशल प्रणाली की आवश्यकता है।

डीमैट फॉर्मेट के लाभ
म्यूचुअल फंड्स को अनिवार्य रूप से डीमैट फॉर्मेट में लाने से कई महत्वपूर्ण लाभ होंगे:

निवेशकों के लिए लाभ
रियल-टाइम ट्रांजैक्शन: निवेशक तुरंत ऑनलाइन रिडेम्पशन और खरीद कर सकेंगे, जिससे उन्हें उसी दिन का नवीनतम मूल्य मिलेगा, बिना एक दिन का इंतज़ार किए।

एकीकृत पोर्टफोलियो दृश्य: निवेशक अपने सभी निवेशों – शेयर, बॉन्ड और म्यूचुअल फंड्स – को एक ही डीमैट अकाउंट में देख सकेंगे, जिससे पोर्टफोलियो प्रबंधन आसान होगा।

पेपरवर्क में कमी: डीमैट फॉर्मेट में म्यूचुअल फंड्स रखने से भौतिक दस्तावेजों या पेपरवर्क की आवश्यकता समाप्त हो जाएगी।समस्त कार्य पेपर लेस होने की वजह से माननीय मोदी सरकार का डिजिटल इंडिया का सपना साकार होता है |

बाजार के लिए लाभ
बाजार में वॉल्यूम वृद्धि: म्यूचुअल फंड्स को ट्रेडेबल बनाने से बाजार में वॉल्यूम में तुरंत प्रभाव से वर्तमान मूल्यांकन के हिसाब से बेहतर 72 लाख करोड रुपए से भी अधिक की उल्लेखनीय वृद्धि होगी।

रॉन्ग सेलिंग पर लगाम: एजेंट्स या डिस्ट्रीब्यूटर्स द्वारा स्कीम की गलत बिक्री की संभावनाएं खत्म हो जाएंगी।

ब्रोकर्स के लिए अवसर: शेयर बाजार के ब्रोकर्स के पास बड़ा वॉल्यूम आएगा, जिससे उनके व्यवसाय में वृद्धि होगी।

डिजिटल परिवर्तन: पूरा म्यूचुअल फंड सिस्टम डिजिटल हो जाएगा, जिससे भारत के डिजिटल वित्तीय परिवर्तन को बढ़ावा मिलेगा।

फंड मैनेजर्स के लिए लाभ
फंड मैनेजर्स पर दैनिक रिडेम्पशन और नए निवेश के मानसिक दबाव से मुक्ति मिलेगी। रिडेम्प्शन के दबाव से मुक्त होकर वे बेहतर और दीर्घकालिक रणनीतियों पर काम कर पाएंगे, जिससे उनके निवेश निर्णय बेहतर होंगे।

कार्यान्वयन का प्रस्तावित मॉडल
म्यूचुअल फंड्स को ट्रेडेबल बनाने के लिए एक मॉडल प्रस्तावित किया जा सकता है:
एनएसई का म्यूचुअल फंड सर्विस सिस्टम (एमएफएसएस): एनएसई पहले से ही एमएफएसएस प्रदान करता है, इसी प्रकार बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज में बीएसई स्टार, जिसके माध्यम से निवेशक म्यूचुअल फंड यूनिट्स खरीद और बेच सकते हैं। इस प्रणाली को विस्तारित करके सभी म्यूचुअल फंड्स के लिए अनिवार्य किया जा सकता है।

डेली एनएवी के आधार पर ट्रेडिंग: जैसे आरबीआई हर दिन विदेशी मुद्राओं के लिए रेट तय करता है, वैसे ही म्यूचुअल फंड कंपनियां हर शाम अपनी एनएवी घोषित करती हैं। इसी एनएवी के आधार पर अगले दिन की ट्रेडिंग हो सकती है।
डिपॉजिटरी सिस्टम का उपयोग: एनएसडीएल और सीएसडीएल जैसे डिपॉजिटरीज पहले से ही म्यूचुअल फंड यूनिट्स को डीमैट फॉर्म में रखने की सुविधा प्रदान करते हैं। इस व्यवस्था को अनिवार्य बनाया जा सकता है।

सरकार और सेबी से अपेक्षा
जब सेबी ने लिस्टेड सिक्योरिटीज और प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों के लिए डीमैट फॉर्मेट अनिवार्य कर दिया है, तो समय आ गया है कि सरकार और सेबी सभी स्टेकहोल्डर्स से चर्चा कर इस महत्वपूर्ण सुधार को लागू करें। म्यूचुअल फंड्स को अनिवार्य डीमैट फॉर्मेट में लाकर भारत के शेयर बाजार को पारदर्शिता, तरलता और निवेशकों के विश्वास का नया आधार दिया जाए। यह न केवल निवेशकों के लिए सुविधाजनक होगा, बल्कि पूरे वित्तीय बाजार के लिए एक नए युग की शुरुआत होगी।

सरकार और सेबी को सभी हितधारकों – एसेट मैनेजमेंट कंपनियों, स्टॉक एक्सचेंजों, डिपॉजिटरीज और निवेशकों – के साथ मिलकर इस परिवर्तन को लागू करने के लिए एक रोडमैप तैयार करना चाहिए। यह कदम भारतीय वित्तीय बाजारों में पारदर्शिता, कुशलता और डिजिटलीकरण को बढ़ावा देगा, जिससे अंततः निवेशकों का कल्याण होगा।

भारत के वित्तीय बाजारों में यह परिवर्तन एक नए जीवन, नए युग और नई दिशा की शुरुआत होगी, जो हमारे देश के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान देगा।

धन्यवाद,

सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक, इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री
पूर्व उपाध्यक्ष, जयपुर स्टॉक एक्सचेंज लिमिटेड
जयपुर, राजस्थान
suneelduttgoyal@gmail.com

नई और पुरानी पीढ़ी के बीच द्वंद्व और प्रतिद्वंद : एक विचारणीय प्रश्न !

आज, हमारे भारत के बारे में एक कड़वा सच लिखने बैठा हूँ। बात है नई जमाने के लोगों और पुरानी पीढ़ी के बीच के फासले की। दोनों की सोच, समझ और ज़िंदगी देखने का नज़रिया कितना अलग हो गया है, ये गौर करने वाली बात है। ये भी देखना ज़रूरी है कि इस सोच के फर्क का हमारे समाज पर क्या असर पड़ रहा है? फायदा क्या है, नुकसान क्या हो रहा है?

पुरानी पीढ़ी का नज़रिया:
वो लोग जिन्होंने गुलामी का दौर देखा, आज़ादी की लड़ाई देखी, देश का बंटवारा झेला, और फिर उसके बाद धीरे-धीरे बढ़ते भारत को देखा… उनकी ज़िंदगी बिल्कुल अलग हालात में गुज़री। उनके मूल्य बने थे त्याग, संयम और सबके भले की सोच पर। कम संसाधनों में गुज़ारा करना, मुश्किलों का सामना करना उनकी आदत में शुमार था। उनकी जड़ें परंपरा और रिवाज़ों में गहरी थीं। समाज को कैसे बांधे रखें, ये उनकी पहली प्राथमिकता थी।

नई पीढ़ी का रुख:
इधर नई पीढ़ी, जो टेक्नोलॉजी और ग्लोबलाइजेशन के बीच पली-बढ़ी है, उसकी सोच और ख्वाहिशें बिल्कुल बदल गई हैं। ये ज्यादा महत्वाकांक्षी हैं, आज़ाद ख्याल हैं और अपनी निजी ज़िंदगी को तरजीह देते हैं। इंटरनेट के ज़रिए दुनिया भर का अनावश्यक एवं अवांछनीय ज्ञान जिसकी उन्हें कोई आवश्यकता नहीं है वह उनकी मुट्ठी में है, जिससे उनकी सोच का दायरा काफी बदल गया है या बड़ा हुआ है। ये एक्सपेरिमेंट और नई चीज़ों को पसंद करते हैं। समाज में बदलाव को लेकर खुले दिमाग के हैं।

कहाँ दिखता है ये फर्क?
ये फर्क हर जगह दिख जाता है:
पढ़ाई-लिखाई: पुराने लोगों के लिए शिक्षा का मतलब था ज्ञान और चरित्र बनाना। आज के युवा इसे करियर बनाने और पैसा कमाने का ज़रिया मानते हैं।
नौकरी-धंधा: पहले स्टेबिलिटी और सुरक्षा सबसे बड़ी बात थी। आज का युवा जोखिम उठाकर अपना काम शुरू करना (स्टार्टअप) चाहता है।

परिवार और रिश्ते: पुरानी पीढ़ी संयुक्त परिवार और सामाजिक ज़िम्मेदारियों को तवज्जो देती थी। नई पीढ़ी अपनी आज़ादी और प्राइवेसी, अपने ख्याल अपने विचार और अपने फैसलों को भले ही वह आज के इस खतरनाक युग में खरे न उतरते हो और केवल मात्र उनको दिखावे का भ्रम हो, मैं सही हूं और मैं ही ठीक हूं, को ज्यादा अहमियत देती है।

समाज पर क्या असर?
इस बदलाव का समाज पर गहरा असर पड़ा है। एक तरफ, नई पीढ़ी की आधुनिक सोच और टेक्नोलॉजी की जानकारी ने देश को तेज़ी से आगे बढ़ाया है। नए उद्योग खुले हैं, नौकरियों के रास्ते बने हैं, भारत का दुनिया में दबदबा बढ़ा है।

लेकिन दूसरी तरफ, एक कड़वी हकीकत ये भी है कि पुरानी पीढ़ी के सिद्धांतों और मूल्यों को नज़रअंदाज़ करने से समाज में कई बुराइयाँ आई हैं। पारिवारिक बंधन ढीले पड़े हैं। “मैं” और “मेरा” की भावना बढ़ी है। सहनशीलता, बड़ों का आदर, उनके अनुभव की क़दर करने की समझ – ये सब कहीं खो सा गया है। मेरा निजी तजुर्बा और मानना यही है कि आज की पीढ़ी के बहुत से लोग मौके का फायदा उठाने वाले (अवसरवादी) बन गए हैं। और ऐसा करके वो खुद का ही नुकसान कर रहे हैं। उन्हें बुजुर्गों का तजुर्बा एक ऐसी पूंजी है, जो मुफ़्त में मिल सकती है, लेकिन वे उसे पाना ही नहीं चाहते। अपने आप को ही सबसे ज्यादा जानकार समझने की ग़लतफहमी में जी रहे हैं।

आज का युवा मानता है कि जो वो जानता है, वो उसके भविष्य के लिए काफी है। पर असलियत इससे उलट है। जिन लोगों ने 30-40-50 साल की ज़िंदगी के तजुर्बे देखे हैं, उन्होंने भारत में हर तरह के बदलाव को अपनी आँखों से देखा है – टेक्नोलॉजी, यातायात, संचार, लेखन, मशीनों का ज़माना, कंप्यूटर का दौर, गाड़ियों का बोलबाला… सब कुछ! मगर नई पीढ़ी उस अनुभव से कुछ सीखना ही नहीं चाहती। वो बेलाग ज़िंदगी जीना चाहते हैं। मेरा मानना है कि ये स्वच्छंदता नहीं, बल्कि उछलकूद (अनियंत्रित) प्रवृत्ति है। इसी वजह से ज़िंदगी में ज़रा सी भी मुसीबत आते ही, वो घबरा जाते हैं और गलत कदम उठाने को तैयार हो जाते हैं। उनमें वो धैर्य, वो परिपक्वता नहीं है। अगर सरकारी काम हो तो तुरंत रिश्वत देकर छुटकारा पाना चाहते हैं, चाहे उसके लिए कितना ही ज्यादा गुना पैसा ही क्यों न देना पड़े। संघर्ष करना उन्हें पसंद नहीं। दोस्ती का भी यही हाल है। छोटी सी बात पर मनमुटाव होते ही 10 – 20 साल पुरानी दोस्ती भी दो मिनट में ख़त्म कर देते हैं। और फिर किसी को भी अपनी ग़लती मानने में शर्म आती है। और परिणाम स्वरूप रिश्ते बिगड़ जाते हैं।

परिवारों की नई मुसीबतें:
पिछले 20-25 सालों में मैंने परिवारों में कुछ नए तरह के झगड़े भी देखे हैं:
माँ-बाप की खींचतान का फायदा: अगर पति-पत्नी में तनाव रहता है या उनकी सोच अलग है, तो बच्चे इसका पूरा फायदा उठाते हैं। जिस काम के लिए उन्हें लगता है पापा मना कर देंगे, वो मम्मी से कहते हैं। और अगर लगता है मम्मी नहीं मानेंगी, तो पापा से पूछते हैं। नतीजा? माँ-बाप में झगड़ा हो जाता है, और बच्चे चैन से अपनी मनमर्जी करते रहते हैं।

बच्चों को गलत तरीके से अपने पाले में करना: कई बार माएँ बच्चों को ये सोचकर ज्यादा लाड़-प्यार देने लगती हैं कि बुढ़ापे में यही काम आएंगे। वो बच्चों को पिता की बात न मानने के लिए उकसाती हैं। बच्चों का सामने या पति के पीठ पीछे वह अपने पति की बुराइयां करने में नहीं चूकती और तरह-तरह के लालच देकर, हर ग़लत-सही ख्वाहिश पूरी करके, बच्चों को अपनी तरफ कर लेती हैं। नतीजा? बच्चे अपने पिता से दूर हो जाते हैं। उनके दिल में ये बैठ जाता है कि पापा ही उनके दुश्मन हैं, जबकि हकीकत बिल्कुल अलग होती है। क्योंकि सोचिए न… हर बाप की ख्वाहिश होती है कि उसके बच्चे उससे भी ज्यादा काबिल बनें, ज्यादा सब्र वाले बनें, ज्यादा समझदार बनें, दौलत और शोहरत पाएँ और देश-दुनिया में नाम रोशन करें।

तो रास्ता क्या है?
साफ है कि दोनों पीढ़ियों के बीच एक सेहतमंद बातचीत और समझदारी पैदा करनी ही होगी। हमें बुजुर्गों के तजुर्बे और ज्ञान का सम्मान करना सीखना होगा। साथ ही, नई पीढ़ी की सोच और उसके सपनों को भी समझना होगा। सिर्फ तभी हम एक ऐसा मजबूत और खुशहाल भारत बना पाएंगे जहाँ पुरानी बातों और नई सोच का सही मेल हो। यही एक रास्ता है आगे बढ़ने का।

धन्यवाद,

सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक, इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री,
पूर्व उपाध्यक्ष , जयपुर स्टॉक एक्सचेंज लिमिटेड,!
जयपुर, राजस्थान
suneelduttgoyal@gmail.com

वन नेशन, वन स्टॉक एक्सचेंज – क्या वक्त आ गया है बीएसई और एनएसईके विलय का?

भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्थाओं में से एक है, और हमारे देश का शेयर बाजार इस ग्रोथ की रीढ़  जैसा है। निवेश, कारोबार और फाइनेंशियल स्टेबिलिटी के लिए एक मजबूत स्टॉक एक्सचेंज सिस्टम बहुत जरूरी है। फिलहाल भारत में दो बड़े स्टॉक एक्सचेंज हैं — बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज (बीएसई) और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई)। दोनों ने पिछले कई सालों में लोगों को निवेश के बारे में जागरूक किया, पारदर्शिता दी और एक अच्छा, भरोसेमंद शेयर बाजार सिस्टम खड़ा किया। दोनों की स्थापना और विकास की कहानी अलग-अलग है, लेकिन दोनों ने देश के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। बीएसई की स्थापना 1875 में हुई थी, जो इसे एशिया का सबसे पुराना और दुनिया के सबसे पुराने स्टॉक एक्सचेंजों में से एक बनाती है। वहीं एनएसई की शुरुआत 1992 में हुई, जिसे भारतीय वित्तीय संस्थानों जैसे स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, लाइफ इंश्योरेंस कॉरपोरेशन, जनरल इंश्योरेंस कॉरपोरेशन और इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट बैंक ऑफ इंडिया ने मिलकर प्रमोट किया था।

मगर अब समय आ गया है कि एक बड़ा प्रश्न पूछा जाए — क्या भारत को “वन नेशन, वन स्टॉक एक्सचेंज” मॉडल अपनाना चाहिए?
यह सवाल अब केवल चर्चा का विषय नहीं, बल्कि आर्थिक सुधार और नीतिगत निर्णयों की सूची में सबसे ऊपर होना चाहिए। यह एक ऐसा निर्णय हो सकता है जो भारत को वैश्विक पूंजी बाजारों में अग्रणी भूमिका में लाकर खड़ा कर दे। 

एक झलक दोनों स्टॉक एक्सचेंजों की

  • निवेशकों की संख्या की बात करें तो बीएसई के पास लगभग 12 करोड़ निवेशक खाते हैं जबकि एनएसई के लगभग 8 करोड़ निवेशक खाते हैं। यह दर्शाता है कि दोनों एक्सचेंजों का निवेशक आधार बहुत बड़ा और व्यापक है।
  • लिस्टेड कंपनियों की संख्या के मामले में बीएसई आगे है, जिसमें 5,595 से अधिक कंपनियां सूचीबद्ध हैं, जबकि एनएसईमें लगभग 2,266 कंपनियां लिस्टेड हैं। बीएसई के प्रमुख सूचकांकों में सेंसेक्स, बीएसई 100, बीएसई 500, मिडकैप , और स्मॉलकैप  शामिल हैं, जबकि एनएसई का मुख्य सूचकांक निफ्टी 50 है, बैंक निफ्टी, साथ ही निफ्टी नेक्स्ट 50 और निफ्टी 500 जैसे सूचकांक भी प्रचलित हैं।
  • दोनों एक्सचेंजों की बड़ी और प्रमुख लिस्टेड कंपनियों की सूची में रिलायंस इंडस्ट्रीज, एचडीएफसी  बैंक, टीसीएस , भारती एयरटेल, आईसीआईसीआई  बैंक, एसबीआई , इंफोसिस , बजाज फाइनेंस, हिंदुस्तान यूनिलीवर, आईटीसी  और एलआईसी  जैसी बड़ी कंपनियां लिस्टेड हैं। ये कंपनियां दोनों एक्सचेंजों पर लिस्टेड हैं और भारतीय अर्थव्यवस्था की मजबूत आधारशिला हैं।
  • इन दोनों एक्सचेंजों पर लिस्टेड कंपनियों में काफी ओवरलैप है, यानी कई कंपनियां दोनों जगह सूचीबद्ध हैं। विशेषज्ञों के अनुसार, लगभग 1,800 से 2,000 कंपनियाँ ऐसी हैं जो बीएसई और एनएसई दोनों पर लिस्टेड हैं। इस दोहरी लिस्टिंग की वजह से कंपनियों को दोहरी फीस और अनुपालन की जटिलताओं का सामना करना पड़ता है, जो विलय की जरूरत को और भी मजबूत बनाता है। 
  • बीएसई भारत इंटरनेशनल एक्सचेंज (इंडिया  आईएनएक्स) का भी संचालन करता है, जो भारत का पहला अंतरराष्ट्रीय एक्सचेंज है और अंतरराष्ट्रीय निवेशकों को ध्यान में रखकर बनाया गया है।
  • मार्केट कैपिटलाइजेशन की बात करें तो बीएसई का कुल बाजार पूंजीकरण लगभग ₹4.27 लाख करोड़ (लगभग 5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर) के आसपास है, जबकि एनएसईका मार्केट कैपिटलाइजेशन इससे थोड़ा अधिक है, जो ₹5 लाख करोड़ (लगभग 6 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर) के करीब पहुंच चुका है। हालांकि, एनएसई के पास भारत का सबसे बड़ा डेरिवेटिव्स और कैश मार्केट सेगमेंट है और यह वैश्विक स्तर पर सबसे ज्यादा वॉल्यूम वाला डेरिवेटिव्स एक्सचेंज माना जाता है। यह अंतर दोनों एक्सचेंजों की ट्रेडिंग वॉल्यूम और कंपनियों की संख्या में अंतर को दर्शाता है।
  • भारत और विदेशों में दोनों एक्सचेंजों के हजारों ट्रेडिंग टर्मिनल्स मौजूद हैं, जो निवेशकों और ट्रेडर्स को बाजार से जोड़ते हैं। यह कहा जा सकता है कि दोनों एक्सचेंजों की पहुंच देश के कोने-कोने तक फैली हुई है।
  • कुल कारोबार की बात करें तो बीएसई में 2024-25 के दौरान कुल कारोबार ₹1.58 ट्रिलियन के आसपास रहा, जिसमें रोजाना औसत इक्विटी टर्नओवर ₹5,000 से ₹7,000 करोड़ के बीच था। 
  • वहीं एनएसईदुनिया का सबसे बड़ा डेरिवेटिव एक्सचेंज है, जहां रोजाना औसत इक्विटी टर्नओवर ₹70,000 से ₹80,000 करोड़ तक पहुंचता है और कुल कारोबार लाखों करोड़ रुपये में होता है।

दोनों एक्सचेंजों का इतिहास गौरवशाली है, लेकिन इनके बीच अत्यधिक दोहराव भी देखा जाता है — तकनीकी आधारभूत ढांचा, मानव संसाधन, क्लियरिंग कॉर्पोरेशन, रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया, और निवेशक सेवा से लेकर नियामकीय अनुपालन तक।

तो फिर सवाल ये है — क्या दो स्टॉक एक्सचेंज रखना ज़रूरी है?

या फिर समय आ गया है कि हम एक संयुक्त, मजबूत और पारदर्शी “इंडियन स्टॉक एक्सचेंज” या “भारतीय पूँजी बाज़ार”  की तरफ बढ़ें?

 “वन नेशन, वन स्टॉक एक्सचेंज” के संभावित लाभ

  1. व्यापार में सरलता
    जब निवेशकों और ट्रेडर्स को अलग-अलग सिस्टम, शुल्क संरचनाओं, नियमों और टेक्निकल पोर्टलों से नहीं जूझना पड़ेगा, तो उनका अनुभव सहज होगा। इससे छोटे और मध्यम निवेशकों का आत्मविश्वास भी बढ़ेगा।

  2. तरलता (लिक्विडिटी) में इज़ाफा
    एकीकृत स्टॉक एक्सचेंज से सभी ऑर्डर और वॉल्यूम एक ही जगह पर केंद्रित होंगे, जिससे शेयरों में बाय-सेल स्प्रेड कम होंगे और वोलाटिलिटी भी घटेगी। इससे नए निवेशकों को बाज़ार में प्रवेश करना आसान होगा।
  3. कर्मचारियों और संसाधनों का समेकन
    कर्मचारियों के लिए भी यह विलय कोई खतरा नहीं है, बल्कि अवसर है। दोनों एक्सचेंजों के कर्मचारियों को नई तकनीकों के अनुरूप पुनः प्रशिक्षण (रि- स्किलिंग) दिया जाएगा और उन्हें उन्नत तकनीकी वातावरण में बेहतर भूमिका निभाने का अवसर मिलेगा। इससे मानव संसाधनों का बेहतर उपयोग होगा और कर्मचारियों की दक्षता बढ़ेगी।
  4. निवेशकों के लिए पारदर्शिता और सुविधा
    एक ही ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म से निवेशक को सारे शेयर, ईटीएफ और डेरिवेटिव एक ही जगह मिलेंगे। इससे भ्रम भी कम होगा और विश्वसनीयता भी बढ़ेगी। बीएसई में एसएमई स्टॉक लिस्टिंग की फोर्मलिटीज़ अलग होतीं हैं और एनएसई में एसएमई इमर्ज के नाम से अलग स्टॉक एक्सचेंज है। बीएसई और  एनएसई मिल जायेंगे तो एसएमई स्टॉक लिस्टिंग और इन्वेस्टमेंट और बेहतर हो जायेगा। 

  5. वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा
    अगर भारत का एक ही स्टॉक एक्सचेंज होगा, जो पूरी ट्रेडिंग को संचालित करेगा, तो वह एनवाईएसई  (अमेरिका), एलएसई  (लंदन) और टीएसई  (टोक्यो) जैसे वैश्विक एक्सचेंजों के समकक्ष खड़ा हो सकेगा। इससे विदेशी निवेशकों का भरोसा बढ़ेगा और भारत को एफआईआई  और एफडीआई  दोनों के प्रवाह में बढ़ोतरी मिलेगी।

 

निष्कर्ष

“वन नेशन, वन स्टॉक एक्सचेंज” का विचार आज भारत के पूंजी बाजार को अधिक सक्षम, पारदर्शी और सुलभ बना सकता है। इससे ना सिर्फ निवेशकों को लाभ होगा, बल्कि सरकार, कंपनियों और विदेशी निवेशकों को भी एक सरल, केंद्रीकृत प्रणाली मिलेगी।

यह विचार सुनने में भले ही अतिवादी लगे, लेकिन जब दुनिया के कई विकसित देशों में एकीकृत स्टॉक एक्सचेंज मॉडल सफल रहा है, तो भारत जैसे विशाल लेकिन तकनीकी रूप से सक्षम देश को इससे पीछे नहीं रहना चाहिए। वैश्विक स्तर पर यूरोनेक्स्ट  जैसे एकीकृत मॉडल्स ने दिखाया है कि यह दृष्टिकोण तरलता को 30% तक बढ़ा सकता है, साथ ही क्रॉस-बॉर्डर ट्रेडिंग को सरल बना सकता है। 

तकनीकी दृष्टि से भी आने वाले समय में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, मशीन लर्निंग, ब्लॉकचेन और क्लाउड कंप्यूटिंग जैसी तकनीकों का प्रभाव बढ़ेगा। इन तकनीकों को लागू करने के लिए भारी निवेश की आवश्यकता होगी, जिसे दो एक्सचेंजों द्वारा अलग-अलग करना व्यावहारिक नहीं होगा। एक साझा तकनीकी आधार से न केवल संचालन कुशल होगा, बल्कि भविष्य की चुनौतियों का सामना भी बेहतर तरीके से किया जा सकेगा।

अब जबकि एनएसई अपने आईपीओ  की तैयारी कर रहा है, यह सही समय है कि इस पर गंभीरता से विचार हो और एक राष्ट्र, एक स्टॉक एक्सचेंज की दिशा में कदम बढ़ाए जाएं।

धन्यवाद,


सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक, इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री
पूर्व उपाध्यक्ष , जयपुर स्टॉक एक्सचेंज लिमिटेड
जयपुर, राजस्थान
suneelduttgoyal@gmail.com