जनसांख्यिकी का चेतावनी-संकेत — समाज के लिए स्पष्ट आह्वान

जनसांख्यिकी का चेतावनी-संकेत — समाज के लिए स्पष्ट आह्वान
यह समय भावनाओं की नहीं, प्रमाणों की राजनीति का है—भारत की जनसंख्या बनावट बदल रही है, परिवार-निर्णयों की धुरी खिसक रही है, और यदि आज निर्णय नहीं लिए गए तो कल संस्कार-श्रृंखला और समाज-आधार दोनों दुर्बल होंगे; यह केवल सामाजिक प्रश्न नहीं, सनातन की जीवन-धारा पर सीधी चुनौती है। 2011 की जनगणना, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे और मान्य अंतरराष्ट्रीय आकलन स्पष्ट संकेत दे चुके हैं—उत्तरदायित्व अब हमारे हाथ में है।​

धर्म-वार अनुपात पर अंतिम आधिकारिक तस्वीर 2011 की जनगणना है—इसी के अनुसार हिंदू 79.8%, मुस्लिम 14.23%, ईसाई 2.30%, सिख 1.72%, बौद्ध 0.70%, जैन 0.37% और शेष अन्य/अनिर्दिष्ट; जिम्मेदार विमर्श को जब तक नई गणना न आए, इसी आधार पर टिकना होगा—अनुमानों पर नहीं। हिस्सेदारी के बदलाव एकल कारण से नहीं होते, बल्कि जन्मदर, शिक्षा, शहरीकरण, रोजगार और प्रवासन जैसे संरचनात्मक कारकों के संयुक्त प्रभाव से बनते-बिगड़ते हैं; अतः रणनीति भावनात्मक नहीं, प्रमाण-आधारित होनी चाहिए।​

परिवार और TFR: विलंब की वास्तविक कीमत
कुल प्रजनन दर TFR प्रतिस्थापन स्तर से नीचे 2.0 तक आ चुकी है—अर्थ स्पष्ट है: स्थिरीकरण के बाद वृद्धावस्था तेज़ी से उभरेगी और पीढ़ीगत सहारा-तंत्र पर दबाव बढ़ेगा; यदि विवाह और मातृत्व/पितृत्व लगातार टलते रहे, तो दादा–पोते का स्वाभाविक सेतु दुर्लभ होता जाएगा, संस्कार-प्रवाह कमजोर होगा। यह स्थिति “कम बच्चे” से अधिक “बहुत देर से निर्णय” का परिणाम बन रही है—इसे पहचाने बिना समाधान नहीं मिलेगा।​

शिक्षा–स्वास्थ्य की लागत: अदृश्य लेकिन निर्णायक बोझ
निजी शिक्षा एवं सामान्य स्वास्थ्य में खर्च और फीस बढ़ोतरी मध्यम वर्ग को दूसरे बच्चे के निर्णय से पीछे धकेलती है; सार्वजनिक ढांचे पर भरोसा बहाल न होने से परिवार लागत-भय में फँसता है और यही भय जनसांख्यिकी को दिशा देता है। स्वास्थ्य में जेब से सीधा खर्च ऊँचा रहने के कारण एक गंभीर बीमारी परिवार की वर्षों की बचत खा जाती है—यह अदृश्य बोझ परिवार-आकार, वृद्ध-देखभाल और भविष्य-निवेश जैसे निजी निर्णयों तक पहुँचकर समाज-स्तर की प्रवृत्ति बना देता है; बजट विश्लेषण लगातार इसी चेतावनी की ओर संकेत करता है।​

प्रवासन: पुल बनाएँ—दरार नहीं
उच्च शिक्षा के लिए 13 लाख से अधिक भारतीय छात्र विदेश जा चुके हैं; यह शैक्षिक प्रवास अक्सर दीर्घकालिक बसावट में बदलता है—देश के भीतर विवाह–परिवार–जन्मदर की धारा पर इसका अप्रत्यक्ष असर वास्तविक है। समाधान रोकथाम नहीं, “सर्कुलर मोबिलिटी” है—ऐसा नीति-तंत्र जो वापसी को सम्मान, अवसर और स्थिरता दे। रिसर्च फंडिंग, उद्योग–अकादमी क्लस्टर, और उच्च-कौशल नौकरियों का स्थानीय इकोसिस्टम जितना समृद्ध होगा, उतनी ही संभावना कि कौशल भी लौटे और परिवार-निर्णय भी भारत-केंद्रित हों। पासपोर्ट और मंत्रालयीय संचार इस फैलाव की चौड़ाई दर्ज कर रहे हैं—अब रणनीति उन्हीं पुलों को गढ़ने की है ताकि प्रवासन दरार न बने, पुल बने।

वृद्धावस्था: आसन्न लहर, टालना अब संभव नहीं
अगले दशकों में वृद्ध आबादी लगभग पाँच में से एक तक पहुँच सकती है और 80+ वर्ग सबसे तेज़ बढ़ेगा—यह केवल अस्पतालों की समस्या नहीं; यह दीर्घकालिक देखभाल, समुदाय-आधारित सहारा और आय-सुरक्षा की समेकित परीक्षा है। यदि आज ढाँचे नहीं बने, तो कल घर-परिवार—जो सनातन जीवन-शैली का मेरुदंड हैं—सबसे पहले दबाव में आएँगे। यह चेतावनी कोई भय-कथा नहीं, बल्कि सुविदित प्रवृत्ति है; तैयारी न हुई तो लागत और पीड़ा दोनों बढ़ेंगे। इसीलिए जेरियाट्रिक केयर मिशन, होम-केयर, डे-केयर, प्रशिक्षित केयर-वर्कफोर्स, और दीर्घकालिक देखभाल-बीमा जैसे समाधानों को अभी से स्केल-अप करना होगा—यही सेवा-परंपरा का आधुनिक विस्तार है।

जागरण-सूत्र: सनातनी समाज के ठोस कदम
शिक्षा को लोक-निवेश बनाएं: सार्वजनिक विद्यालय–विश्वविद्यालय में गुणवत्ता मानक, शिक्षक-क्षमता और जवाबदेही पर दृढ़ मांग; निजी संस्थानों में शुल्क-नियमन व परिणाम-आधारित पारदर्शिता, ताकि शिक्षा “उच्च-लागत उपभोग” नहीं, “उच्च-मूल्य निवेश” बने और परिवार-निर्णय लागत-भय से मुक्त हों।​
समय पर परिवार-निर्णय: करियर के साथ विवाह–मातृत्व/पितृत्व को जीवन-योजना का औपचारिक हिस्सा बनाना—डेटा स्पष्ट कहता है कि अत्यधिक विलंब पीढ़ीगत निरंतरता को चोट पहुँचाता है; समाज को प्रेरक वातावरण और सहूलियतें देनी होंगी।​

स्वास्थ्य में सार्वजनिक क्षमता: प्राथमिक–द्वितीयक–तृतीयक सभी स्तरों पर सार्वजनिक बिस्तर, मानव संसाधन और दवाएँ; कैंसर, कार्डियक और जेरियाट्रिक सेवाओं के मजबूत सार्वजनिक विकल्प बनाकर जेब से खर्च घटाएँ—यही परिवार-जोखिम को स्थिर करेगा।​

सर्कुलर मोबिलिटी के पुल: रिसर्च फंडिंग, उद्योग–अकादमी क्लस्टर, उच्च-कौशल नौकरियाँ और “रिटर्न फेलोशिप” से विदेश-शिक्षित युवाओं के लिए वापसी का मार्ग आसान करें—यह कौशल भी लाएगा, परिवार-निर्णयों को भी भारत-केंद्रित बनाएगा।​

वृद्ध-समर्थ समाज: होम-केयर, डे-केयर, जेरियाट्रिक प्रशिक्षण और दीर्घकालिक देखभाल बीमा का स्केल-अप—यह सेवा-परंपरा का आधुनिक विस्तार है; मंदिर–ट्रस्ट और समुदाय इसमें नैतिक–संगठनात्मक नेतृत्व दें।​

धर्म-वार विमर्श: अनुशासन ही सुरक्षा-कवच
जब तक नई जनगणना नहीं आती, 2011 ही अंतिम आधिकारिक तस्वीर है; अनुमानित तालिकाएँ बहस जगा सकती हैं, पर नीति और समाज को भटका भी सकती हैं—सनातनी समाज का दायित्व है कि तथ्य-अनुशासन को आधार बनाए और उसी पर रणनीति गढ़े; यही गंभीरता दीर्घकालिक सम्मान और स्थिरता दिलाती है।​

नीति-गवर्नेंस: “कितने” नहीं, “कैसे” पर केंद्रित
जनसंख्या-नीति का केंद्र संख्या-लक्ष्यों से आगे बढ़कर “परिवार-निर्माण सुगमता” और “मानव पूँजी” पर होना चाहिए—यही वह दृष्टि है जो TFR, प्रवासन और वृद्धावस्था को एक साथ साधती है। एक परिवार-नीति समन्वय तंत्र शिक्षा, स्वास्थ्य, श्रम, आवास और विदेश प्रशासन के साझा सूचकांकों पर वार्षिक लक्ष्य तय कर सार्वजनिक रिपोर्ट-कार्ड जारी करे; समाज को पता रहे कि सुधार कहाँ हो रहे हैं और कहाँ जोर देना है—पारदर्शिता ही विश्वास बनाती है।

अंतिम आह्वान: पाँच दीप तभी स्थिर जलेंगे
कुल प्रजनन दर प्रतिस्थापन से नीचे, शिक्षा–स्वास्थ्य महँगे, प्रवासन तेज़ और वृद्धावस्था की लहर सामने—चार दिशाओं से आती घंटियाँ एक ही संदेश दे रही हैं: अभी निर्णायक बनें। समाधान भी चारों दिशाओं से आएँगे—स्कूल और अस्पतालों में सार्वजनिक विश्वसनीयता, निजी क्षेत्र में पारदर्शिता, श्रम-बाज़ार में गुणवत्तापरक अवसर, और परिवार-निर्णयों के लिए सामाजिक–नीतिगत सहारा; सनातनी हिंदुओं के लिए संदेश स्पष्ट है—घर, कुल, गुरु, समाज और राष्ट्र—ये पाँच दीप तभी स्थिर जलेंगे जब आँकड़ों का सच स्वीकार कर आज नीति और व्यवहार में परिवर्तन लाया जाए; आज की निर्णायकता ही कल की परंपरा की रक्षा है।

धन्यवाद,

चेतावनी: धर्मांतरण के बढ़ते नेटवर्क और बदलता सामाजिक संतुलन

चेतावनी: धर्मांतरण के बढ़ते नेटवर्क और बदलता सामाजिक संतुलन

भारत की सांस्कृतिक आत्मा पर धीरे-धीरे होती चोट

भारत की सभ्यता हज़ारों वर्षों से विविधता और सहिष्णुता का प्रतीक रही है। यहाँ सनातन संस्कृति ने न केवल अनेक मत-पंथों को जन्म दिया, बल्कि उन्हें सह-अस्तित्व का स्थान भी दिया। परंतु पिछले कुछ दशकों में एक ऐसी प्रवृत्ति ने समाज के भीतर गहरी दरार डालनी शुरू की है — संगठित और योजनाबद्ध धर्मांतरण की प्रक्रिया, जो अब केवल धार्मिक या सामाजिक नहीं रही, बल्कि भू-राजनीतिक रणनीति का भी हिस्सा बन चुकी है।

भारत में धर्मांतरण की बढ़ती प्रक्रिया

स्वतंत्रता के बाद से लेकर आज तक, भारत ने कई बार धार्मिक असंतुलन की झलक देखी है। 1951 की जनगणना में देश में हिंदू जनसंख्या 84.1% थी, जबकि 2011 तक यह घटकर 79.8% रह गई। दूसरी ओर, मुस्लिम जनसंख्या 9.8% से बढ़कर 14.2% और ईसाई जनसंख्या 2.3% से बढ़कर 2.8% तक पहुँची।
यह परिवर्तन स्वाभाविक जनसंख्या वृद्धि का परिणाम भर नहीं है; कई राज्यों में संगठित मिशनरी गतिविधियों, विदेशी फंडिंग और स्थानीय प्रशासन की लापरवाही ने इस असंतुलन को गति दी है।

सबसे अधिक प्रभावित राज्य हैं —
छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, मध्य प्रदेश, असम, नगालैंड, मणिपुर, मिज़ोरम, केरल और तमिलनाडु।
इन राज्यों में या तो आदिवासी जनसंख्या अधिक है, या फिर आर्थिक रूप से पिछड़े समुदायों में धार्मिक सहायता और सामाजिक सेवाओं के नाम पर परिवर्तन की प्रक्रिया तेज़ी से चल रही है।

 

आदिवासी और ग्रामीण क्षेत्रों में मिशनरियों की पकड़

धर्मांतरण का सबसे गंभीर पक्ष यह है कि यह सीधे सामाजिक-आर्थिक असमानता का उपयोग करता है।
जहाँ सरकार की कल्याणकारी योजनाएँ नहीं पहुँच पातीं, वहाँ मिशनरी संस्थाएँ ‘सेवा’ के नाम पर घर-घर पहुँचती हैं। स्वास्थ्य केंद्र, स्कूल और मुफ्त राशन जैसी सुविधाओं के माध्यम से धीरे-धीरे धार्मिक पहचान बदलने की प्रेरणा दी जाती है।

उदाहरण के लिए, छत्तीसगढ़ और झारखंड के बस्तर, सरगुजा और गुमला जिले इस गतिविधि के प्रमुख केंद्र बन चुके हैं। स्थानीय भाषा और संस्कृति को अपनाने वाले प्रचारक आदिवासी समुदायों को यह विश्वास दिलाते हैं कि उनकी मूल पहचान ‘हिंदू धर्म’ से अलग है — जबकि वास्तविकता में वे सदियों से भारत की सांस्कृतिक धारा का अभिन्न अंग रहे हैं।

दक्षिण और उत्तर-पूर्व भारत में बढ़ती सक्रियता

केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे राज्यों में शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में चर्च-संचालित संस्थाओं की जड़ें बहुत गहरी हैं।
इनके माध्यम से न केवल समाजसेवा, बल्कि धार्मिक प्रचार-प्रसार भी एक समानांतर शक्ति बन चुका है।
वहीं पूर्वोत्तर भारत, विशेषकर नगालैंड, मिज़ोरम और मेघालय, अब लगभग पूरी तरह से ईसाई-बहुल समाज बन चुके हैं।
1950 में जहाँ ईसाई जनसंख्या नगालैंड में 15% थी, आज वह 90% से अधिक है। यह परिवर्तन केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और राजनीतिक पहचान का भी पुनर्गठन है।

राजस्थान में स्थिति

जब हम “धर्मांतरण” की बात करते हैं, तो यह विषय केवल दूर के आदिवासी इलाकों या राज्यों तक सीमित नहीं रहा। राजस्थान, हमारा अपना राज्य, इस विषय के केंद्र में आ गया है; यहाँ के अनुभव, घटनाएँ और सरकारी कार्रवाई हमें यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि हमारी सांस्कृतिक एकता और सामाजिक समझ कितनी मज़बूत है।

स्थानीय घटनाएँ जहाँ “धर्म परिवर्तन” का आरोप लगा
उदाहरण के लिए, दौसा जिले में “अगापे फैलोशिप चर्च” को आरोपों का सामना करना पड़ा कि वहाँ धर्मांतरण की गतिविधियाँ हो रही थीं। स्थानीय लोगों के विरोध और मीडिया रिपोर्ट्स के बाद प्रशासन ने जाँच शुरू की।  एक और मामला बांसवाड़ा का है, जहाँ एक नाबालिग लड़की ने आरोप लगाया कि प्रेम जाल और प्रेग्नेंसी के बाद उस पर जबरन धर्म परिवर्तन का दबाव बनाया गया। पुलिस ने मामले को दर्ज किया है। 

मीडिया रिपोर्ट्स में “प्रलोभन” या “प्रलोभन द्वारा धर्म परिवर्तन” के आरोप अक्सर सामने आते हैं, लेकिन जांच की प्रगति, न्यायालयिक कार्यवाही या दोष सिद्धि की दर बहुत कम पायी जाती है।

धर्मांतरण विरोधी बिल पास और केसों की संख्या
सितंबर 2025 में राजस्थान विधानसभा ने Rajasthan Prohibition of Unlawful Religious Conversion Bill, 2025 पारित किया। इस बिल के बाद सरकार ने स्वीकार किया है कि पिछले पाँच वर्षों में राज्य में केवल 13 धर्मांतरण मामले दर्ज हुए हैं। सरकार का दावा है कि “love jihad” नाम से कोई मामला दर्ज नहीं हुआ है। यह संख्या अपेक्षाकृत कम है, जो दिखाती है कि व्यापक, हिंसात्मक या जबरन धर्मांतरण की कथित घटनाएँ (जो अक्सर मीडिया या राजनीति में बड़ी बातें बन जाती हैं) वास्तविक घटनाओं की तुलना में कम हों। 

कानून की सख्ती और दंड का प्रावधान
नया कानून “प्रत्येक अनौचित या जबरन धर्मांतरण” को अपराध मानता है। यदि विवाह केवल धर्मांतरण के उद्देश्य से किया गया हो, तो विवाह को अवैध माना जाएगा। बल, प्रलोभन, छल आदि के माध्यम से किए गए परिवर्तन पर 7-14 साल जेल और ₹5-10 लाख जुर्माना जैसे प्रावधान हैं। मास / समूह धर्मांतरण की स्थिति में सजा और भी ज़्यादा है, और विशेष रूप से अनुसूचित जाति / जनजाति / नाबालिगों की सुरक्षा के लिए कठोर प्रावधान हैं।

नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश और इंडोनेशिया के उदाहरण

भारत के पड़ोसी देशों में भी यह रुझान दिखाई देता है।

  • नेपाल: जहाँ कभी हिंदू राष्ट्र की पहचान थी, वहाँ 2015 में नया संविधान “धर्मनिरपेक्ष” घोषित किया गया, और इसके बाद से मिशनरियों की गतिविधियों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई।
  • श्रीलंका: तमिल-बहुल इलाकों में चर्च नेटवर्क का विस्तार हुआ, जिसने स्थानीय सामाजिक ढाँचे को प्रभावित किया।
  • बांग्लादेश: 1971 के बाद से इस्लामीकरण की नीति ने हिंदू जनसंख्या को 20% से घटाकर 8% से भी कम कर दिया।
  • इंडोनेशिया: यहाँ मुस्लिम बहुल शासन व्यवस्था के बीच ईसाई प्रचार पर नियंत्रण के बावजूद बाहरी NGO फंडिंग से कुछ क्षेत्रों में जनसंख्या संतुलन बदलने के प्रयास हुए हैं।
  • लेबनान: कभी एक ईसाई, आधुनिक, उदार और सांस्कृतिक रूप से जीवंत मध्य – पूर्वी देश हुआ करता था — सन् 1970 तक वहाँ का समाज धार्मिक सहिष्णुता और सामाजिक खुलापन का प्रतीक माना जाता था। उस दौर में मुस्लिम शरणार्थियों को पनाह देने वाला लेबनान, धीरे-धीरे कट्टरपंथ और बाहरी राजनीतिक हस्तक्षेप का शिकार बन गया। परिणाम स्वरूप ईसाईयों को अपना देश छोड़ना पड़ा और आज यह आतंकवादियों का पसंदीदा देश है।
  • काबुल: इसी तरह, सन् 1990 से पहले का काबुल भी एक आज़ाद और आधुनिक शहर था — जहाँ महिलाएँ आधुनिक वस्त्र पहनकर सड़कों पर बेझिझक घूमती थीं, विश्वविद्यालयों में शिक्षा लेती थीं, और कला-संस्कृति का माहौल गहराई से बसा था। इतना ही नहीं, उस समय बॉलीवुड की कई फिल्मों की शूटिंग भी इन देशों में होती थी। लेकिन कुछ ही वर्षों में ये सभी शहर कट्टर विचारधारा, विदेशी फंडिंग और धार्मिक राजनीति के केंद्र बन गए — और आज वहाँ की स्थिति हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि अगर समाज समय रहते नहीं चेता, तो सभ्यता के केंद्र भी कट्टरता की गिरफ्त में आ सकते हैं। 

इन सभी देशों में एक समानता है — धर्मांतरण को भू-राजनीतिक शक्ति के रूप में प्रयोग करना, ताकि सांस्कृतिक पहचान को कमजोर कर राजनीतिक और रणनीतिक प्रभाव स्थापित किया जा सके।

अंतर्राष्ट्रीय राजनीति और भारत की चुनौती

धर्मांतरण अब केवल धार्मिक परिवर्तन का विषय नहीं रहा। यह एक वैश्विक सॉफ्ट-पावर टूल बन चुका है।
अमेरिका, यूरोप और कुछ अंतरराष्ट्रीय NGO नेटवर्क, “रिलीफ एंड फेथ बेस्ड डेवलपमेंट” के नाम पर भारत में अरबों डॉलर की विदेशी सहायता भेजते हैं।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, FCRA (Foreign Contribution Regulation Act) के तहत 2022-23 में भारत में कुल ₹23,000 करोड़ से अधिक विदेशी चंदा आया, जिसमें से धर्म आधारित NGO को सबसे अधिक हिस्सा मिला।

मेरा केंद्र सरकार के प्रति सुझाव है कि सभी ट्रस्ट, एनजीओ और सोसाइटीज़ जो कानून के तहत पंजीकृत हैं, उनकी आय‑कर विभाग द्वारा नियमित और आवश्यक स्क्रूटिनी की जानी चाहिए। इस तरह सरकार को पता चलेगा कि पैसा किस स्रोत से आ रहा है, किस उद्देश्य के लिए प्राप्त किया गया है और क्या वह देश की अखंडता के लिए खतरा बनता है। साथ ही यह भी जांचा जाना चाहिए कि प्राप्त धन का अंतिम उपयोग किस प्रकार से हो रहा है।

इन फंडों का दीर्घकालिक उद्देश्य सांस्कृतिक प्रभाव क्षेत्र का विस्तार करना होता है।
यही कारण है कि कई बार इन गतिविधियों के परिणामस्वरूप स्थानीय भाषाएँ, परंपराएँ और लोक-आस्था धीरे-धीरे समाप्त होती जाती हैं — और उसके स्थान पर पश्चिमी या अरबी प्रभाव वाला जीवन-दर्शन पनपता है।

सांस्कृतिक असंतुलन और सामाजिक तनाव

धर्मांतरण केवल धार्मिक आँकड़ों का विषय नहीं है। यह समाज में सांस्कृतिक असंतुलन और आपसी अविश्वास की जड़ें बोता है।
जब एक ही गाँव, परिवार या समुदाय के लोग अलग-अलग धार्मिक पहचान अपना लेते हैं, तो पीढ़ियों की एकता टूट जाती है।
यह विभाजन राजनीतिक लाभ का साधन बनता है — स्थानीय चुनावों में “धर्म आधारित मतदाता ध्रुवीकरण” के रूप में।

असम, झारखंड और छत्तीसगढ़ में कई बार देखा गया कि जहाँ धर्मांतरण तेज़ हुआ, वहीं सांप्रदायिक टकराव, हिंसा और जनसंख्या असंतुलन के खतरे भी बढ़े।
कुछ जिलों में स्थानीय आदिवासी अब खुद को हिंदू न कहकर “मूल निवासी” या “सरना” पहचान से जोड़ रहे हैं — जिसे अलग धर्म घोषित करने की मांग भी उठ रही है।
यह स्थिति भारत की सांस्कृतिक एकता के लिए गंभीर संकेत है।

आने वाले दशकों की दिशा

यदि यह प्रवृत्ति इसी गति से चलती रही, तो आने वाले 30-40 वर्षों में कई क्षेत्रों में धार्मिक जनसांख्यिकी पूरी तरह बदल सकती है।
भारत में धर्मांतरण के विरुद्ध कई राज्य जैसे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, उत्तराखंड पहले ही कड़े कानून बना चुके हैं।
परंतु इन कानूनों के प्रभाव को धरातल पर लागू करना अब भी चुनौती है — क्योंकि गतिविधियाँ अब डिजिटल, आर्थिक और अंतरराष्ट्रीय रूप में फैली हुई हैं।

आवश्यक उपाय और आत्म-पुनरावलोकन

स्थानीय डेटा संग्रह और पारदर्शिता
जिले-स्तर पर मामलों की संख्या, पुलिस रिपोर्ट, आरोपों की प्रकृति (प्रलोभन, विवाह, बल आदि) सार्वजनिक रूप से उपलब्ध होनी चाहिए। यह मीडिया या सामाजिक संगठनों की रिपोर्ट पर निर्भर नहीं होना चाहिए, बल्कि सरकारी रिकॉर्ड और न्यायालयीन प्रकरणों से समर्थित होना चाहिए।

 

पुलिस और न्यायालयीन प्रक्रिया में त्वरितता और निष्पक्षता
स्थानीय पुलिस को ऐसे मामलों में तेजी से कार्रवाई करनी चाहिए; पीड़ितों को न्यायालयीन प्रक्रिया में सुरक्षा और कानूनी मदद सुनिश्चित हो; झूठे आरोपों की जाँच हो; झूठे मामलों में कानूनी निष्कर्ष तक पहुँचने की संभावनाएँ हों।

 

सामाजिक सेवाओं का क्षेत्रीकरण
शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक न्याय कार्यक्रमों की पहुँच उन स्थानों पर जहाँ आर्थिक-शैक्षिक पिछड़ापन अधिक है, जैसे आदिवासी इलाकों, पिछड़े ब्लॉकों में। यदि लोगों को शिक्षा या स्वास्थ्य सुविधा के कारण धर्म परिवर्तन करना पड़ता है, यह संकेत है कि मूल आवश्यकता पूरी नहीं हो रही।

 

कानूनी सुरक्षा और अधिकारों की रक्षा
नया कानून प्रभावी है, पर इसे लागू करते समय धार्मिक स्वतंत्रता, संविधान की आस्था-स्वतंत्रता की गारंटी, और निजी जीवन की रक्षा का ध्यान रखना चाहिए। साथ ही इस तरह के कानूनों के दुरुपयोग की आशंका को कम करने के लिए शपथ पत्र, गवाह, दस्तावेज़ आदि की सख़्त जाँच हो।

 

समुदाय आधारित जागरूकता अभियान
लोकतांत्रिक होने के नाते हमें गाँवों, मोहल्लों, स्कूलों में इस विषय पर संवाद खोलना चाहिए — धर्म परिवर्तन के आरोपों की सच्चाई क्या है, अधिकार क्या हैं, कानूनी चुनौतियाँ क्या हैं। धार्मिक नेतृत्व (ग्राम धर्मगुरु, पुजारी, मौलवियों) को इस संवाद में शामिल करना चाहिए ताकि समाज के विश्वास टूटने से पहले संबोधन हो सके।

यह विषय केवल सरकार या सुरक्षा एजेंसियों के लिए नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए आत्मचिंतन का प्रश्न है।
हमें यह समझना होगा कि धर्मांतरण की जड़ें केवल बाहर से नहीं आतीं — वे वहीं उगती हैं जहाँ गरीबी, असमानता, शिक्षा और स्वास्थ्य की कमी है।
यदि हम इन बुनियादी समस्याओं का समाधान नहीं करेंगे, तो कोई भी कानून इस प्रवृत्ति को नहीं रोक सकेगा।

हमें शिक्षा और सेवा के क्षेत्र में अपने स्वयंसेवी संगठनों को सशक्त बनाना होगा।
गाँवों, पहाड़ी और जनजातीय इलाकों में ऐसे प्रयास होने चाहिए जो धर्म नहीं, बल्कि मानवता के आधार पर सेवा दें।
सांस्कृतिक जागरूकता को आधुनिक तकनीक के साथ जोड़ना, युवा पीढ़ी को अपनी जड़ों से परिचित कराना – यही इस चुनौती का स्थायी उत्तर है।

भारत की ताकत उसकी विविधता और सहिष्णुता में है, परंतु यह तभी टिक सकती है जब उसकी जड़ें मज़बूत रहें।
धर्मांतरण की यह बढ़ती लहर हमें यह सोचने पर विवश करती है कि क्या हम अपनी सांस्कृतिक आत्मा की रक्षा कर पा रहे हैं?
यह समय है आत्मपरीक्षण का — धर्म के आधार पर नहीं, बल्कि उस सभ्यतागत चेतना के आधार पर जिसने भारत को सदियों तक एकता में बाँधे रखा है।

 

धन्यवाद,


रोटेरियन सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक, इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री
पूर्व उपाध्यक्ष, जयपुर स्टॉक एक्सचेंज लिमिटेड
जयपुर, राजस्थान
suneelduttgoyal@gmail.com

भारतीय त्योहारों के पंचांग और छुट्टियों में विरोधाभास : समाधान की दिशा में एक पहल

भारत विविधताओं का देश है, जहाँ सनातन संस्कृति के अंतर्गत अनेकों त्योहार और पर्व मनाए जाते हैं। इन त्योहारों का उद्देश्य न केवल धार्मिक आस्था को व्यक्त करना होता है, बल्कि यह परिवार और समाज को जोड़ने, मानसिक शांति प्राप्त करने और राष्ट्रीय एकता को सशक्त करने का भी माध्यम हैं।
परंतु पिछले कुछ वर्षों में एक चिंताजनक प्रवृत्ति सामने आई है। अलग-अलग ब्राह्मण समाजों, मंदिर समितियों और धार्मिक संस्थानों द्वारा त्योहारों की तिथियों में विरोधाभास देखने को मिल रहा है। एक ही त्योहार को अलग-अलग राज्यों और समुदायों में अलग-अलग दिन मनाया जा रहा है। इसका सीधा असर आम नागरिकों, व्यापार जगत, सरकारी व निजी संस्थानों और शिक्षा जगत पर पड़ रहा है।

त्योहारों की तिथियों में असमानता: मूल समस्या
सनातन परंपरा में पर्व-त्योहार चंद्र पंचांग पर आधारित हैं। भारत में कई प्रमुख संस्थान, जैसे वाराणसी, उज्जैन, नासिक, कांची आदि, अपने-अपने पंचांग प्रकाशित करते हैं। इन पंचांगों में कभी-कभी अमावस्या, पूर्णिमा या नक्षत्र की गणना में सूक्ष्म अंतर हो जाता है।

इसका परिणाम यह होता है कि:
किसी वर्ष होली, दशहरा, दीपावली, राखी जैसे प्रमुख त्योहार दो अलग-अलग तिथियों पर मनाए जाते हैं।
कहीं बैंक और सरकारी संस्थान एक दिन छुट्टी करते हैं तो कहीं शेयर बाजार, निजी कंपनियाँ और स्कूल अलग दिन बंद रहते हैं। कई बार तो राज्य एवं केंद्र सरकारों की भी छुट्टियाँ अलग अलग दिन होती हैं।
परिवार के सदस्य, जो अलग-अलग क्षेत्रों या उद्योगों में कार्यरत हैं, एक साथ त्योहार नहीं मना पाते।

उदाहरण स्वरूप, इस वर्ष 20 अक्टूबर को बैंकों की छुट्टी रहेगी, जबकि उसी दिन शेयर बाजार खुला रहेगा । अगले दिन यानी 21 अक्टूबर को बैंक खुले, पर शेयर बाजार बंद रहेगा। और 22 अक्टूबर को फिर से बैंक बंद रहेंगे | इस तरह की असंगत स्थिति में कोई भी परिवार एक साथ त्योहार की तैयारी और उत्सव नहीं मना सकता।

राष्ट्रीय स्तर पर सेंट्रलाइज्ड कैलेंडर की आवश्यकता
भारत जैसे विशाल और विविध देश में, एकीकृत और सेंट्रलाइज्ड राष्ट्रीय कैलेंडर की आवश्यकता अब समय की माँग है।

प्रस्ताव है कि केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री कार्यालय एक केंद्रीय पंचांग प्राधिकरण (Central Panchang Authority) का गठन करें, जो पूरे देश के लिए आगामी 10 वर्षों का पंचांग तैयार करे। कुछ वर्ष पहले ऐसा सुना गया था की प्रधानमंत्री की मोदी जी ने काशी संस्कृत विश्विद्यालय को ये जिम्मा सौंपा था, इसके परिणाम अपेक्षित हैं।

इस पहल के लाभ:
एकरूपता: पूरे देश में सभी त्योहार एक ही दिन मनाए जाएंगे।
प्रशासनिक सुविधा: बैंक, शेयर बाजार, निजी और सरकारी स्कूल, केंद्र एवं राज्य के सरकारी कार्यालय और निजी कंपनियाँ सभी के लिए एक समान छुट्टी का कैलेंडर होगा।
धार्मिक मतभेद का समाधान: अलग-अलग संस्थानों के बीच अनावश्यक विवाद समाप्त होंगे।
अंतरराष्ट्रीय मान्यता: विदेशी पर्यटक भी सही तिथियों के अनुसार अपनी यात्रा योजनाएँ बना सकेंगे।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले ही भारतीय संस्कृति और परंपरा को वैश्विक स्तर पर मान्यता दिलाने की दिशा में अनेक प्रयास कर चुके हैं। यह उनके “एक भारत, श्रेष्ठ भारत” के विचार को मजबूत करेगा।

वर्तमान छुट्टियों की व्यवस्था की खामियाँ
अभी की छुट्टियों की व्यवस्था में कई खामियाँ हैं, जो आम नागरिकों और उद्योगों को प्रभावित करती हैं।
बीच-बीच में छुट्टियाँ: जैसे इस बार 19 अक्टूबर रविवार, 20 – 21 अक्टूबर कहीं छुट्टी कहीं कार्य दिवस, 22 अक्टूबर छुट्टी — यह पैटर्न परिवारों के लिए असुविधाजनक है।
उत्पादकता पर असर: कंपनियों को बार-बार रुकावट का सामना करना पड़ता है, जिससे कार्य की निरंतरता प्रभावित होती है।
पर्यटन और अर्थव्यवस्था पर असर: लोग लगातार छुट्टी न मिलने के कारण लंबी यात्रा नहीं कर पाते, जिससे पर्यटन उद्योग को नुकसान होता है।
स्कूल और माता-पिता की छुट्टियों में असंगति: जब बच्चों के स्कूल बंद हों और माता-पिता के कार्यस्थल खुले हों, तो परिवार एक साथ त्योहार का आनंद नहीं ले पाता।

सरकार को क्या करना चाहिए
सरकार इस समस्या के समाधान के लिए ठोस कदम उठा सकती है।
नीचे कुछ प्रमुख सुझाव दिए जा रहे हैं:
राष्ट्रीय स्तर का पंचांग तैयार हो – यह पंचांग वैज्ञानिक और खगोलशास्त्रीय मानकों के आधार पर हो।
कंप्यूटराइज्ड कैलेंडर सिस्टम – त्योहारों की छुट्टियाँ और कार्य दिवस स्वचालित रूप से अपडेट हों।
लॉन्ग वीकेंड नीति – यदि किसी त्योहार की छुट्टी मंगलवार या गुरुवार को आती है, तो उसके आस-पास के शनिवार को कार्य दिवस घोषित कर निरंतर तीन दिन की छुट्टी बनाई जाए।
कानूनी प्रावधान – कैलेंडर को स्कूलों, बैंकों, सरकारी व निजी संस्थानों द्वारा पालन करना अनिवार्य हो।
अग्रिम सूचना – अगले वर्ष का त्योहार और छुट्टी कैलेंडर कम से कम 3 महीने पहले घोषित किया जाए।

लॉन्ग वीकेंड का आर्थिक महत्व
यदि सरकार लॉन्ग वीकेंड नीति लागू करती है, तो इसका सकारात्मक प्रभाव देश की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ेगा।
पर्यटन को बढ़ावा:
जब लोगों को लगातार तीन-चार दिन की छुट्टी मिलेगी, तो वे यात्रा पर निकलेंगे।
इससे होटल, परिवहन, पर्यटन स्थलों और स्थानीय बाजारों की आय बढ़ेगी।

घरेलू खर्च में वृद्धि:
यात्रा से पहले लोग कपड़े, खाद्य सामग्री और अन्य वस्तुएँ खरीदते हैं।
त्योहार के दौरान शॉपिंग और खर्च बढ़ने से देश का पैसा देश में ही घूमेगा।

रोजगार सृजन:
पर्यटन उद्योग के विस्तार से हजारों प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रोजगार के अवसर पैदा होंगे।
इससे छोटे और मध्यम व्यवसाय भी लाभान्वित होंगे।

विदेशी निवेश और निजी क्षेत्र पर प्रभाव
एक और महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि भारत के कई निजी अस्पताल, बैंक और बड़े उद्योगों में विदेशी निवेश है।
जब अलग-अलग संस्थान अपनी सुविधा के अनुसार छुट्टियाँ घोषित करते हैं, तो यह विदेशी निवेशकों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए भ्रम की स्थिति पैदा करता है।
यदि सेंट्रलाइज्ड छुट्टी कैलेंडर हो, तो:
विदेशी निवेशकों को अपनी व्यापारिक योजनाएँ बनाने में आसानी होगी।
वैश्विक कंपनियाँ भारतीय बाजार को अधिक व्यवस्थित और विश्वसनीय मानेंगी।
Ease of Doing Business रैंकिंग में सुधार होगा।

अंतरराष्ट्रीय उदाहरण
कई देशों ने यह समस्या पहले ही हल कर ली है।
चीन में त्योहारों का कैलेंडर सरकार द्वारा पहले ही घोषित कर दिया जाता है।
जापान और सिंगापुर में लॉन्ग वीकेंड पॉलिसी के कारण पर्यटन और घरेलू उद्योग को बहुत लाभ हुआ है।
भारत भी इन देशों के अनुभवों से सीख लेकर बेहतर नीति बना सकता है।

एक संगठित प्रयास की आवश्यकता
भारत की सांस्कृतिक विरासत और त्योहारों की विविधता हमारी पहचान है। परंतु यदि इन्हीं त्योहारों की तिथियों में असमानता और छुट्टियों के असंगठित प्रबंधन से नागरिकों, उद्योगों और पर्यटन को नुकसान हो रहा है, तो यह राष्ट्रीय हानि है।
केंद्र और राज्य सरकारों को मिलकर एकीकृत, वैज्ञानिक और सेंट्रलाइज्ड त्योहार व छुट्टी कैलेंडर बनाने की दिशा में कदम बढ़ाना चाहिए।

यदि यह प्रणाली लागू होती है, तो:
परिवारों को एक साथ त्योहार मनाने का अवसर मिलेगा।
उद्योगों को बेहतर कार्य योजना बनाने में सुविधा होगी।
पर्यटन और अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन मिलेगा।
और सबसे महत्वपूर्ण, यह “एक भारत, श्रेष्ठ भारत” की दिशा में एक सशक्त कदम होगा।

हमारा भारत सरकार को सुझाव है कि इस विषय को गंभीरता से लिया जाए और आने वाले वर्षों में अक्टूबर महीने तक पूरे अगले वर्ष का त्योहार और छुट्टी कैलेंडर घोषित किया जाए, जिससे नागरिक, उद्योग और शैक्षिक संस्थान सब अपनी योजनाएँ सुव्यवस्थित तरीके से बना सकें।

धन्यवाद,

रोटेरियन सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक, इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री
पूर्व उपाध्यक्ष, जयपुर स्टॉक एक्सचेंज लिमिटेड
जयपुर, राजस्थान
suneelduttgoyal@gmail.com

करेंसी प्रबंधन में लापरवाही: सिक्कों की लागत से लेकर भ्रष्टाचार तक का जाल

  • करेंसी प्रबंधन में लापरवाही: सिक्कों की लागत से लेकर भ्रष्टाचार तक का जाल
  • नए नोटों की गड्डियों का बैंकों में अभाव लेकिन माफियाओं के पास हैं सुलभ।

भारत की आर्थिक व्यवस्था में नकदी और सिक्कों का महत्व किसी से छुपा नहीं है। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि जिस संवेदनशीलता और दूरदर्शिता के साथ देश में मुद्रा प्रबंधन होना चाहिए, वह नदारद दिखाई देती है। हालात इतने गंभीर हो गए हैं कि आज सरकार और आरबीआई के अधिकारियों की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाना ही नहीं, बल्कि कठोर कार्रवाई की आवश्यकता भी महसूस हो रही है।

आज से चालीस साल पहले जब एक पैसे और पाँच पैसे के सिक्के प्रचलन में थे, तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि एक दिन बीस रुपये के सिक्के भी बाजार में उतारे जाएंगे। लेकिन इस सफर में सरकार ने कभी यह नहीं सोचा कि जिस सिक्के को वह जारी कर रही है, उसकी लागत सरकार को कितनी भारी पड़ रही है। उदाहरण के लिए, आज सिक्का बनाने में ही सरकार को उसकी मुद्रा से अधिक की लागत आती है। यानी, सरकार प्रत्येक सिक्के पर सीधा घाटा झेल रही है

आरबीआई का भ्रष्टाचार का जाल

मैं आपको जयपुर स्थित भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) की शाखा, जो रामबाग सर्किल पर स्थित है, के बारे में एक कड़वा सच बताने जा रहा हूँ। यहाँ पर बैंक खुलने के दो घंटे पहले ही लोगों की लंबी लाइन लग जाती है। यह कोई सामान्य लाइन नहीं होती, बल्कि इनमें स्थायी (परमानेंट) लोग होते हैं जो सुबह से शाम तक वहीं मौजूद रहते हैं।

चाहे वह सिक्के लेने आए हों या नए नोटों की गड्डियां, इन कतारों में ज्यादातर लोग एक विशेष धर्म और संप्रदाय से जुड़े हुए होते हैं। दुखद बात यह है कि RBI के गार्ड से लेकर नोट और सिक्के जारी करने वाले कर्मचारियों और अधिकारियों तक, सब इस गोरखधंधे में शामिल होने से इंकार नहीं किया जा सकता। उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि ये लोग रोजाना आते हैं, बड़ी मात्रा में सिक्के और नोट उठाते हैं, और फिर बाहर जाकर उन्हें ब्लैक मार्केट में बेचते हैं। 

अगर कोई व्यक्ति केवल एक हफ्ते तक इस शाखा के बाहर खड़ा होकर निगरानी करे, तो वह पाएगा कि अधिकतर लोग रोजाना लाइन में वही मिलते हैं। इसका सीधा मतलब है कि ये लोग किसी और माफिया के लिए काम कर रहे हैं, और बदले में उन्हें कमीशन मिलता है।

सबसे बड़ी विडंबना यह है कि सब कुछ जानते हुए भी वहाँ कोई उन्हें रोकने वाला नहीं है। यह देखकर बेहद अफसोस होता है कि आखिर सरकार की इंटेलिजेंस एजेंसियां और पुलिस अधिकारी इन सब से अनजान कैसे हो सकते हैं? हर सुबह RBI के बाहर उसी चेहरे की भीड़ लगी रहती है। इस समस्या की जानकारी होने के बावजूद कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। यह केवल कुप्रबंधन नहीं, बल्कि सरकारी तंत्र की असफलता का जीता-जागता उदाहरण है।

यह अब इनका एक स्थायी रोजगार बन चुका है —

  • सुबह RBI की लाइन में लगो।
  • नए नोट और सिक्के प्राप्त करो।
  • फिर उन्हें अपने मालिकों या सरगनाओं को सौंप दो, जो इनका अवैध कारोबार और कालाबाजारी करते हैं।यह पूरी तरह से संगठित रैकेट है, ये ओर्गनाइज़्ड क्राइम है , और जब तक इस पर कड़ी कार्रवाई नहीं होगी, तब तक न तो कालाबाजारी रुकेगी और न ही आम जनता को सिक्के और नए नोट सही तरीके से उपलब्ध हो पाएंगे।

सूत्रों के अनुसार, जब आरबीआई का स्टाफ नए नोट या सिक्के बैंकों को जारी करता है, तो पहले ही बैंक शाखा में अधिकारियों को फोन कर दिया जाता है कि “हमारा आदमी” आने वाला है। शाखा प्रबंधक मजबूरी में उस “आदमी” को नए नोटों की गड्डियां दे देते हैं क्योंकि वे आरबीआई के स्टाफ से टकराव नहीं कर सकते। इसका नतीजा यह है कि आम जनता तक 10 और 20 रुपये के नए सिक्के या नोट बहुत कम मात्रा में पहुंचते हैं, जबकि रिकॉर्ड में यह दिखाया जाता है कि भारी मात्रा में सिक्के और नोट जारी किए गए।

असल में यह नोट और सिक्के ब्लैक मार्केट में बेचे जाते हैं। यानी आरबीआई का वह स्टाफ, जो राष्ट्रहित में काम करने के लिए बैठा है, वह खुद कालाबाजारी का हिस्सा बन गया है।

गलते सिक्कों का कारोबार

₹10 और ₹20 के सिक्कों की असली कीमत उनकी अंकित कीमत से कहीं अधिक है। उदाहरण के लिए, ₹10 का सिक्का गलाने पर उसका मेटल ₹13 से ₹14 तक बिकता है। नतीजा यह है कि संगठित गिरोह इन सिक्कों को बड़ी मात्रा में इकट्ठा कर गलाते हैं और मेटल के रूप में बेचते हैं। यह गतिविधि खुलेआम हो रही है और सरकार तथा इंटेलिजेंस एजेंसियों को इसकी जानकारी होनी चाहिये।

इसके बावजूद कोई कार्रवाई नहीं हो रही, जो यह दर्शाता है कि कहीं न कहीं ये एजेंसियां भी इस गोरखधंधे का हिस्सा बन चुकी हैं या जानबूझकर आंख मूंदे हुए हैं।

प्रधानमंत्री से अपील

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दूरदर्शी नेता माना जाता है। उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे इस गंभीर मुद्दे पर तत्काल संज्ञान लें। सरकार को चाहिए कि ₹20 तक के सिक्के और छोटे मूल्यवर्ग की करेंसी का निर्माण बंद करे।

साथ ही, यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि किसी भी करेंसी की उत्पादन लागत उसकी अंकित मूल्य के 20  प्रतिशत से अधिक न हो। उदाहरण के लिए, यदि सरकार ₹20 का सिक्का बना रही है, तो उसकी लागत ₹4  से अधिक नहीं होनी चाहिए। छोटे मूल्य के सिक्कों के लिए यह लागत और भी कम — लगभग ₹1.50 से ₹2 के बीच रहनी चाहिए। 

मेरा सरकार को सुझाव यह है कि वर्तमान में जितने भी सिक्के प्रचलन में हैं, उनका साइज़ वही रखा जाए, लेकिन उनका वज़न और उनमें उपयोग होने वाली धातु के मिश्रण व लागत कम की जाए। यह लागत इतनी कम होनी चाहिए कि यदि कोई व्यक्ति उस सिक्के को गलाकर बेचना भी चाहे, तो उसे उसके मुद्रित मूल्य के आधे दाम से भी कम मिले।

इससे न केवल सरकार का राजकोषीय घाटा कम होगा, बल्कि सिक्कों के निर्माण में लगने वाली लागत भी घटेगी। साथ ही, इस तरह की कालाबाजारी और अवैध धंधे जो आजकल चल रहे हैं, वे स्वतः ही बंद हो जाएंगे।

आज की स्थिति में ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार बिना किसी लागत विश्लेषण के सिक्कों और नोटों का उत्पादन कर रही है। यह न केवल आर्थिक दृष्टि से नुकसानदेह है, बल्कि इससे देश का राजकोषीय घाटा भी बढ़ रहा है। जब से प्रधानमंत्री मोदी की दूरदर्शिता से यूपीआई  का उपयोग ज़बरदस्त तरीके से बढ़ रहा है तो रिज़र्व बैंक एवं सरकार  की यह ज़िम्मेदारी बनती है की वह इस बात का पुनः अध्ययन करे की सर्कुलेशन में रेज़गारी और नोटों की कितनी ज़रूरत है। 

समाधान की दिशा में कदम

  1. ₹10 और ₹20 के सिक्कों के निर्माण की लागत का पुनर्निरीक्षण किया जाए। साथ ही इससे कम के सिक्कों का नया उत्पादन बंद कर देना चाहिये। 
  2. आरबीआई के चेस्ट और करेंसी डिलीवरी सिस्टम की स्वतंत्र जांच कराई जाए।
  3. छोटे मूल्यवर्ग की करेंसी की लागत पर सख्त नियंत्रण रखा जाए।
  4. ब्लैक मार्केट में नए नोटों की कालाबाजारी रोकने के लिए डिजिटल ट्रैकिंग सिस्टम लागू किया जाए।
  5. सिक्कों को गलाकर मेटल बेचने वाले नेटवर्क को पकड़ने के लिए इंटेलिजेंस एजेंसियों को जवाबदेह बनाया जाए।

निष्कर्ष

करेंसी केवल लेन-देन का माध्यम नहीं, बल्कि देश की आर्थिक साख का प्रतीक है। जब सिक्कों की लागत ही उनकी अंकित कीमत से अधिक हो जाए और संस्थानों में भ्रष्टाचार घर कर ले, तो यह न केवल आर्थिक खतरा है, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा का भी मुद्दा बन जाता है।

सरकार को चाहिए कि वह इस मुद्दे को गंभीरता से लेते हुए तत्काल कार्रवाई करे। अन्यथा, आने वाले वर्षों में यह समस्या इतनी विकराल हो सकती है कि देश की अर्थव्यवस्था को भारी क्षति पहुंचेगी।

देशवासी उम्मीद करते हैं कि केन्द्र सरकार इस मुद्दे को प्राथमिकता देंगे और मुद्रा प्रबंधन को सही दिशा में ले जाने के लिए कड़े कदम उठाएंगे।

धन्यवाद,
रोटेरियन सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक, इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री
पूर्व उपाध्यक्ष, जयपुर स्टॉक एक्सचेंज लिमिटेड
जयपुर, राजस्थान
suneelduttgoyal@gmail.com

 

R&D में निजी क्षेत्र को फ्री-हैंड: भारत की अगली छलांग का पासपोर्ट

R&D में निजी क्षेत्र को फ्री-हैंड: भारत की अगली छलांग का पासपोर्ट

भारत को अपनी अगली आर्थिक और रणनीतिक छलांग के लिए एक ही मंत्र चाहिए—निजी क्षेत्र को शोध और नवाचार में खुली छूट और बड़े प्रोत्साहन। आज भारत का कुल R&D निवेश जीडीपी के लगभग 0.5–0.7% के दायरे में अटका है, जबकि प्रमुख अर्थव्यवस्थाएं 3.5–4.5% तक पहुंच चुकी हैं। चीन न सिर्फ अधिक निवेश करता है, बल्कि कंपनियों को 125–150% तक के सुपर-डिडक्शन, लंपसम कैश बोनस और पेटेंट खर्च का रीइम्बर्समेंट जैसी उदार नीतियां देकर निवेश को गुणा देता है—अर्थात यदि कोई कंपनी ₹100 करोड़ R&D में लगाती है तो कुल सरकारी सहायता का प्रभाव ₹250–₹300 करोड़ तक हो जाता है।

भारत को भी यही करना होगा: लागत घटाइए, जोखिम बांटिए, और निजी पूंजी को नवाचार की दौड़ में आगे बढ़ाइए। भारत को सूचना-प्रौद्योगिकी, दूरसंचार-सर्विलांस/मॉनिटरिंग, रक्षा उत्पादन और मेडिकल-फार्मा R&D पर तत्काल प्राथमिकता देनी चाहिए, क्योंकि यही क्षेत्र आर्थिक सुरक्षा, तकनीकी संप्रभुता और रोजगार सृजन के सबसे मजबूत इंजन बन सकते हैं ।

सूचना-प्रौद्योगिकी और डिजिटल पब्लिक इन्फ्रास्ट्रक्चर (DPI)
भारत ने डिजिटल पब्लिक इन्फ्रास्ट्रक्चर को G20 स्तर पर परिभाषित और मान्यता दिलाई है, जिससे पहचान, भुगतान और डेटा-साझाकरण के माध्यम से समावेशी सेवा-प्रदायन का वैश्विक मानक स्थापित हुआ है । G20 टास्क फ़ोर्स की अंतिम रिपोर्ट बताती है कि DPI आर्थिक परिवर्तन, वित्तीय समावेशन और शासन-परिवर्तन का आधार बन चुका है और इसे वैश्विक दक्षिण तक बढ़ाने का रोडमैप स्पष्ट है ।

दूरसंचार और सर्विलांस-मॉनिटरिंग
राष्ट्रीय सुरक्षा और नागरिक सेवाओं की गुणवत्ता के लिए स्पेस-आधारित सर्विलांस/रीकॉन और संचार अवसंरचना का तीव्र विस्तार आवश्यक है, जिसे आगामी 3 वर्षों में 100–150 अतिरिक्त उपग्रह जोड़कर सुरक्षा और मॉनिटरिंग क्षमताओं को मजबूत करने की योजना से बल मिलेगा । वैश्विक प्रवृत्तियों के अनुरूप ऊर्जा व रक्षा R&D पर सरकारी समर्थन तेज़ी से बढ़ रहा है, जो उन्नत दूरसंचार और स्पेस-आधारित मॉनिटरिंग टेक्नोलॉजी में नवाचार को गति देने का अवसर है ।

रक्षा और साइबर: नई लड़ाइयों की तैयारी
भविष्य की लड़ाइयां “स्टार-वॉर” जैसी हाई-टेक वॉरफेयर होंगी—उपग्रहों, ड्रोन, AI, इलेक्ट्रॉनिक और साइबर डोमेनों में। यूक्रेन-रूस युद्ध ने दिखाया कि ₹50,000 का ड्रोन ₹100 करोड़ के टैंक को निष्क्रिय कर सकता है; शक्ति का समीकरण तकनीक से तय होगा। चीन की कक्षा में सैकड़ों निगरानी उपग्रह सक्रिय हैं; भारत के पास निगरानी/रीकॉन क्षमता में विस्तार की भारी गुंजाइश है।

यदि हमारी परमाणु पनडुब्बी परियोजना 2038 तक पूरी होगी, तो यह प्रश्न जरूरी है: तब तक तकनीक कहां पहुंच चुकी होगी? उत्तर साफ है—हमें समय-संवेदी, निजी भागीदारी-आधारित मॉडल अपनाना होगा, जहां डिजाइन से लेकर प्रोटोटाइपिंग तक निजी उद्योग और स्टार्टअप्स अग्रिम पंक्ति में हों, और सरकार एंकर-ग्राहक बने। साइबर सुरक्षा में भी निजी क्षेत्र को फ्री-हैंड, बड़े प्रोत्साहन और तेज़ अनुमतियां देकर रेड-टीमिंग, जीरो-ट्रस्ट, क्रिप्टोग्राफी, और सुरक्षा-ग्रेड हार्डवेयर/सॉफ्टवेयर में तेजी लानी होगी। अगला युद्ध भौतिक सीमाओं से पहले फाइबर और स्पेक्ट्रम में लड़ा जाएगा।

फार्मा और मेडिकल R&D: लैब-ऑफ़-द-वर्ल्ड की ओर
भारत सक्रिय फार्मास्युटिकल सामग्री (API) में वैश्विक ताकत है और अमेरिका सहित कई देशों को भारी मात्रा में निर्यात करता है। यह लाभ उठाने का समय है—किडनी, लिवर, ब्रेन, स्पाइन, मानसिक स्वास्थ्य, डायबिटीज, कैंसर, बोन मैरो, थैलेसीमिया जैसे क्षेत्रों में मिशन-मोड R&D को बढ़ावा देकर क्लीनिकल-टेक, बायोसिमिलर्स, जीन-थेरेपी और मेडिकल-डिवाइस में वैश्विक लीड ली जा सकती है। IP जनरेशन, क्लिनिकल ट्रायल इकोसिस्टम, रेगुलेटरी फास्ट-ट्रैक और अस्पताल-उद्योग-अकादमिक गठजोड़ से भारत “फार्मेसी ऑफ द वर्ल्ड” से “लैब ऑफ द वर्ल्ड” बन सकता है।

AI-IT और इंडस्ट्रियल R&D: प्रतिभा है, नीति चाहिए
AI, सेमीकंडक्टर उप-प्रणालियां, रोबोटिक्स, एडवांस्ड मटेरियल्स और ग्रीन-टेक में भारत के पास युवा प्रतिभा और IIT परिसरों से निकलती डीप-टेक कंपनियों का पूल है। बाधा है—उच्च पूंजी लागत, IP जोखिम, धीमी अनुमतियां और अनिश्चित मांग। सरकार यदि एंकर-ग्राहक बने, मानकीकरण और टेस्ट-बेड दे, और कर-प्रोत्साहन से लागत घटाए, तो निजी निवेश स्वतः बढ़ेगा। संक्षेप में, सरकार को दिशा और भरोसा देना है; पूंजी और क्रियान्वयन युवा कर देगा।

क्या करना होगा: एक साहसी प्रोत्साहन पैकेज
सुपर-डिडक्शन और कैश सपोर्ट: निजी R&D व्यय पर 150–200% सुपर-डिडक्शन; प्रोटोटाइप/TRL-लक्ष्य प्राप्ति पर लंपसम कैश बोनस; पेटेंट फाइलिंग/प्रोसीक्यूशन/विदेशी फाइलिंग फीस का 100% तक रीइम्बर्समेंट (सीलिंग के साथ)।

मैचिंग ग्रांट्स: ₹5–₹50 करोड़ तक मैचिंग-ग्रांट स्कीम, विशेषकर डीप-टेक/डिफेंस-टेक/बायो-टेक के लिए, जहां निजी पूंजी के साथ सरकार जोखिम साझा करे।

तेज़ अनुमतियां: डिफेंस और साइबर R&D के फील्ड-ट्रायल/इम्पोर्ट-लाइसेंस/एक्सपोर्ट NOC के लिए 30–90 दिन की टाइम-लिमिटेड, सिंगल-विंडो क्लियरेंस।
एंकर-प्रोक्योरमेंट: iDEX जैसे मॉडलों का विस्तार; “ट्रायल-टू-प्रोक्योर” फ्रेमवर्क ताकि सफल प्रोटोटाइप को तेज़ी से ऑर्डर मिलें; MSME/स्टार्टअप को कोटा।

IP कमर्शियलाइजेशन: सार्वजनिक लैब/PSU IP को स्टार्टअप्स हेतु रॉयल्टी-लाइट लाइसेंस; “सॉवरेन पेटेंट फंड” जो रणनीतिक पेटेंट खरीद/संरक्षण करे।

R&D वाउचर और टैक्स क्रेडिट: SMEs को प्रयोगशालाएं/टेस्ट-बेड उपयोग हेतु वाउचर; 10 वर्ष के लिए R&D टैक्स-क्रेडिट की स्थिरता ताकि प्लांट और प्रतिभा पर दीर्घकालीन निवेश हो।

त्वरित अवमूल्यन और Capex सपोर्ट: लैब उपकरण/क्लीन-रूम/टेस्ट-रिग पर 1–2 वर्ष में त्वरित अवमूल्यन; पूंजी-गहन डीप-टेक के लिए क्रेडिट गारंटी।

साइबर-टेक बूस्ट: राष्ट्रीय बग-बाउंटी/रेड-टीम कार्यक्रम; सरकार-उद्योग डेटा सैंडबॉक्स; सुरक्षा-ग्रेड ओपन-सोर्स के लिए अनुदान।

फार्मा-मिशन: रोग-विशेष मिशन (कैंसर, डायबिटीज, थैलेसीमिया, मानसिक स्वास्थ्य) के लिए स्तरित-ग्रांट, तेज़ नैतिक-स्वीकृतियां, और ग्लोबल ट्रायल नेटवर्क से कनेक्टिविटी।

टैलेंट और इन्क्यूबेशन: “एंटरप्रेन्योर-इन-रेज़िडेंस” फैलोशिप, शहर-स्तरीय डीप-टेक क्लस्टर, और विश्वविद्यालय-उद्योग संयुक्त लैब्स जिनके परिणामों की खरीद का पूर्व-प्रतिबद्ध रोडमैप हो।

शासन-सुधार: नीति की विश्वसनीयता ही पूंजी है
R&D निवेश का सबसे बड़ा मित्र नीति-स्थिरता है। 10-वर्षीय स्पष्ट रोडमैप, कर-नीति में उलटफेर से बचाव, मानकीकरण/टेस्टिंग ढांचे का आधुनिकीकरण, और डेटा/गोपनीयता/निर्यात नियमों की स्पष्टता—ये सब निजी जोखिम घटाते हैं।

सार्वजनिक क्षेत्र की “समस्या-सूचियां” नियमित रूप से जारी हों ताकि स्टार्टअप्स सटीक समाधान विकसित करें। सबसे बढ़कर, सरकार अनुमोदक से सक्षमकर्ता बने—न्यूनतम फॉर्म, अधिकतम विश्वास, और परिणाम-आधारित जवाबदेही।

निष्कर्ष: नेतृत्व की नियति और युवा की ऊर्जा
भारत के उद्योगपति और युवा इंजीनियर-साइंटिस्ट में वह क्षमता है जो वैश्विक मानचित्र बदल सकती है। उन्हें सिर्फ अधिकार, भरोसा और प्रोत्साहन चाहिए। सरकार की पूंजी से अधिक मूल्यवान है सरकार का स्पष्ट संकेत: निजी क्षेत्र को पूर्ण स्वतंत्रता, बड़े इंसेंटिव और तीव्र अनुमतियां मिलेंगी। यही समय है जब भारत लागत-प्रतिस्पर्धा से ज्ञान-प्रतिस्पर्धा की ओर निर्णायक कदम बढ़ाए—वरना कल की लड़ाइयों में आज की हिचकिचाहट हमारी सबसे बड़ी कमजोरी बन जाएगी।

धन्यवाद,

रोटेरियन सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक, इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री
पूर्व उपाध्यक्ष, जयपुर स्टॉक एक्सचेंज लिमिटेड
जयपुर, राजस्थान
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एक ही व्यक्ति का दो सीटों पर चुनाव लड़ना कहाँ तक जायज़ है?

एक ही व्यक्ति का दो सीटों पर चुनाव लड़ना कहाँ तक जायज़ है?
भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत यह है कि हर नागरिक को समान अधिकार के तहत वोट डालने और अपनी पसंद के प्रतिनिधि चुनने का हक़ मिला है। लेकिन समय-समय पर यह सवाल भी खड़ा होता है कि इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया के नाम पर जनता से लिया गया टैक्स आखिर खर्च कहाँ होता है? हाल के वर्षों में जिस मुद्दे ने बार-बार सुर्खियाँ बटोरी हैं, वह है — एक ही व्यक्ति का दो सीटों से चुनाव लड़ना।

दरअसल, आज “जनता की सेवा” शब्द नेताओं के लिए बदलकर “सत्ता प्राप्ति” और “कुर्सी बचाने” का खेल बन चुका है। नतीजा यह है कि कई बार सांसद या विधायक अपने वर्तमान पद या क्षेत्र को छोड़कर दूसरी जगह चुनाव लड़ने चले जाते हैं। अगर जीत गए तो वहाँ चले जाते हैं, और हार गए तो पुरानी कुर्सी पर लौट आते हैं। सवाल यह है कि तब उस खाली हुई सीट का क्या? उस पर जब उपचुनाव होता है, तो उसका पूरा खर्च किसकी जेब से जाता है? जवाब साफ है — जनता का पैसा।

दो सीटों से चुनाव लड़ने का खेल
भारत में दो सीटों से चुनाव लड़ने की परंपरा कोई नई राजनीतिक चाल नहीं, इसकी जड़ें नेहरू-गांधी युग तक जाती हैं—और स्वतंत्रता के बाद के शुरुआती दशकों से लेकर आज तक कई बड़े नेताओं ने इसे रणनीतिक ढाल की तरह प्रयोग किया है । भारतीय चुनावी प्रणाली में अभी यह प्रावधान है कि एक उम्मीदवार दो सीटों से चुनाव लड़ सकता है। इसे पहली बार 1951 के जनप्रतिनिधित्व कानून (Representation of People Act) में अनुमति दी गई थी। तब तर्क यह दिया गया था कि किसी उम्मीदवार को अगर दो जगह से जनता का समर्थन चाहिए, तो उसमें बुराई नहीं। लेकिन व्यावहारिक रूप से यह प्रावधान जनता के लिए मुसीबत और वित्तीय बोझ बन गया है। स्वतंत्र भारत के पहले आम चुनाव 1951-52 में कांग्रेस का वर्चस्व था, और चुनावी ढाँचा आरपीए 1951 के तहत स्थापित हुआ, जिसमें एक व्यक्ति को एक साथ एक से अधिक सीटों से नामांकन की अनुमति दी गई—यही प्रावधान आगे चलकर दो सीटों से लड़ने की वैधानिक आधारशिला बना ।

इंदिरा-राजीव से सोनिया-राहुल तक
कांग्रेस व्यवस्था के लंबे दौर में विपक्ष कमजोर होने के कारण बड़े नेताओं का “सुरक्षा” के रूप में एकाधिक सीटों से लड़ना समय के साथ अधिक दिखाई देने लगा। इंदिरा गांधी दो सीटों से लोकसभा चुनाव लड़ चुकी थीं—साल 1980 में उन्होंने रायबरेली (उत्तर प्रदेश) और मेडक (तब आंध्र प्रदेश) दोनों जगह से चुनाव लड़ा और दोनों सीटें जीतीं; बाद में उन्होंने मेडक सीट छोड़ दी। 1999 में सोनिया गांधी ने बेल्लारी (कर्नाटक) और अमेठी (उत्तर प्रदेश) से चुनाव लड़ा और दोनों सीटें जीतकर एक सीट छोड़ी—यही पैटर्न बाद के दशकों में भी बना रहा और उपचुनाव की बाध्यता सामने आती रही । 2019 में राहुल गांधी वायनाड और अमेठी से लड़े, वायनाड में जीते और अमेठी हारे—यह बताता है कि “डुअल कंटेस्ट” एक राजनीतिक जोखिम‑प्रबंधन उपकरण बना रहा, जिसका प्रभाव स्थानीय मतदाता पर और सार्वजनिक धन पर अलग‑अलग तरह से पड़ता है ।

यह भी देखा गया है की कई बार मौजूदा जनप्रतिनिधि इस्तीफा दे देते हैं ताकि खाली हुई सीट पर उपचुनाव द्वारा किसी बड़े नेता को जितवा सकें. डी बी चंद्रे गौड़ा (D.B. Chandre Gowda) चिकमगलूर के मौजूदा कांग्रेसी सांसद थे, जो 1971 और 1977 में इस सीट से जीत चुके थे लेकिन 1978 में इंदिरा गांधी की राजनीतिक वापसी के लिए पार्टी को एक “सुरक्षित सीट” की जरूरत थी इसीलिए उन्होंने अपनी सीट से इस्तीफा दे दिया, ताकि इंदिरा गांधी वहाँ से उपचुनाव लड़ सकें ।

लोकतांत्रिक प्रक्रिया के दुरुपयोग का यह एक श्रेष्ठ उदाहरण है।

कुछ अन्य उदाहरण
ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल जैसी कई क्षेत्रीय पार्टियों के नेता भी इसका इस्तेमाल कर चुके हैं।
नवीन पटनायक ने ओडिशा विधानसभा में एकाधिक सीटों से नामांकन किए
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी वाराणसी और वडोदरा, दोनों जगह से लड़े।
यानी यह एक आम राजनीतिक रणनीति बन चुकी है। यह रणनीति केवल नेता का “सुरक्षा कवच” बनती है, मगर जनता की जेब और विश्वास पर भारी पड़ती है।

जनता का कितना पैसा डूबता है? (सरकारी आँकड़े)
भारत में चुनाव कराना बहुत महंगा कार्य है। चुनाव आयोग की रिपोर्ट के अनुसार:
2019 के लोकसभा चुनाव पर लगभग ₹60,000 करोड़ का खर्च हुआ था (जिसमें सरकारी और राजनीतिक पार्टियों का खर्च दोनों शामिल हैं)।

भारत निर्वाचन आयोग (ECI) के अनुसार, एक लोकसभा उपचुनाव कराने का औसत खर्च 2–5 करोड़ रुपये होता है।

वहीं राज्य विधानसभा के उपचुनाव पर औसतन ₹1–2 करोड़ रुपये का खर्च आता है।

अब जरा सोचिए — सिर्फ इसलिए कि कोई बड़ा नेता दो सीटों पर चुनाव लड़कर एक सीट खाली कर दे, जनता के टैक्स का करोड़ों रुपया बर्बाद हो जाता है। यह पैसा शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क या रोजगार योजनाओं में खर्च हो सकता था।

जनता के साथ अन्याय
यह मुद्दा केवल आर्थिक नहीं, बल्कि नैतिक भी है। जब जनता वोट डालती है, तो वह उम्मीद करती है कि उसका प्रतिनिधि पूरे कार्यकाल तक उसकी सेवा करेगा। लेकिन जब प्रतिनिधि दूसरी जगह चला जाता है, तो उसी जनता को फिर से महीनों प्रचार, मतदान और चुनाव की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है।

यानी एक तरफ जनता पर आर्थिक बोझ, और दूसरी तरफ जनता की राजनीतिक भावनाओं से खिलवाड़। क्या यह सीधे-सीधे विश्वासघात नहीं है?

समाधान क्या हो सकता है?

अब सवाल यह उठता है कि इसका व्यावहारिक समाधान क्या है?
1. दूसरे नंबर वाले प्रत्याशी को विजयी घोषित करना
एक तर्क यह है कि अगर कोई नेता दो सीटों पर जीतता है और फिर एक सीट छोड़ देता है, तो उस सीट पर दोबारा चुनाव कराने के बजाय रनर-अप (दूसरे स्थान पर आने वाले) को विजयी घोषित कर दिया जाए।
इससे करोड़ों रुपये बचेंगे।
नेता सोच-समझकर ही कई सीटों से चुनाव लड़ेंगे, क्योंकि सीट छोड़ते ही उनका विरोधी मजबूत होगा।

2. उपचुनाव का खर्च पार्टी या उम्मीदवार से वसूलना
अगर कोई प्रत्याशी सीट छोड़ता है, तो उस सीट के उपचुनाव का पूरा खर्च उसके या उसकी पार्टी से वसूला जाए। इससे उन्हें जनता के टैक्स की कीमत पता चलेगी।

3. केवल एक सीट से चुनाव लड़ने का प्रावधान
वैसे एक सबसे सीधा हल यह है कि कानून में संशोधन करके उम्मीदवार को केवल एक ही सीट से चुनाव लड़ने की अनुमति दी जाए।

1996 में भारत निर्वाचन आयोग ने केंद्र सरकार को रिपोर्ट भेजकर सुझाव दिया था कि एक उम्मीदवार को केवल एक सीट से चुनाव लड़ने दिया जाए।
लेकिन अब तक राजनीतिक दलों ने अपने हितों के चलते इस सिफारिश को लागू नहीं होने दिया।

अंतरराष्ट्रीय अनुभव
दुनिया के कई लोकतांत्रिक देशों ने पहले ही यह प्रथा खत्म कर दी है।
ब्रिटेन और यूनाइटेड स्टेट्स में उम्मीदवार एक समय में सिर्फ एक ही सीट से चुनाव लड़ सकता है।

बांग्लादेश जैसे देशों ने भी इस पर रोक लगा रखी है।
तो सवाल यह है कि भारत जैसे सबसे बड़े लोकतंत्र में जनता के टैक्स के पैसे को ऐसे व्यर्थ बर्बाद करने की इजाज़त क्यों हो?

लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि
लोकतंत्र का मुख्य आधार यह है कि जनता सर्वोपरि है। नेताओं की व्यक्तिगत रणनीति या महत्वाकांक्षा जनता से बड़ी नहीं हो सकती। अगर एक सीट छोड़ने से करोड़ों रुपया बर्बाद होता है और जनता को दोबारा मतदान की मशक्कत करनी पड़ती है, तो यह साफ तौर पर अन्याय है।

आज जब देश विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसे असली मुद्दों से जूझ रहा है, तब चुनावी व्यवस्था को इतना महंगा और जटिल बनाने का कोई औचित्य नहीं है। यह वक्त है कि चुनाव आयोग और सरकार मिलकर इस पर सख्त सुधार लाएँ।

अगर कोई व्यक्ति जेल में है तो वो अपना वोट नहीं डाल सकता लेकिन वही कैदी भले ही दो साल से जेल में है तो वो चुनाव लड़ कर सांसद या विधायक बन सकता है. तो क्या वो जीता हुआ प्रत्याशी अपने क्षेत्र के मतदाताओं के साथ न्याय कर रहा है ? उदाहरण के लिए, कश्मीर के बारामूला से सांसद शेख़ अब्दुल रशीद, जो इंजीनियर रशीद के नाम से भी जाना जाता है और तिहाड़ जेल में दिल्ली में बंद हैं ।

आम समझ से देखें तो जो व्यक्ति जनता की सेवा करने और मिलने‑जुलने के लिए “उपलब्ध” ही नहीं है, वह कैसे इलाके की समस्याएँ सुनेगा, जनसुनवाई करेगा या कामकाज देखेगा—जेल की दीवारें उसे लोगों से अलग कर देती हैं, और जनता उससे मिल भी नहीं पाती ।

इसी वजह से लोग कहते हैं कि यह लोकतंत्र का मज़ाक है: जनता तो वोट देने कतार में खड़ी रहती है, लेकिन लाखों लोग जो सिर्फ मुकदमे के चलते जेल में हैं, वोट नहीं डाल पाते, और दूसरी तरफ कोई बंदी कागज़ी औपचारिकताएँ पूरी करके चुनाव में उम्मीदवार बन सकता है । बहुत से संगठनों और कानूनी बहसों में यह मांग उठी है जेल में रहने के दौरान चुनाव लड़ने पर साफ‑साफ रोक या सख्त शर्तें लगाई जाएँ, ताकि हक़ और ज़िम्मेदारी का संतुलन बना रहे और जनता का भरोसा कायम रहे ।

निष्कर्ष
आज जब हर परिवार महँगाई, बेरोजगारी और टैक्स के बोझ से दबा हुआ है, तब जनता का पैसा नेताओं की महत्वाकांक्षाओं पर खर्च करना लोकतंत्र का मज़ाक है। अगर अनावश्यक उपचुनाव रोके जाएँ, तो करोड़ों रुपये का सदुपयोग शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी ढाँचे पर हो सकता है।

इसलिए अब वक्त आ गया है कि चुनाव आयोग, संसद और सरकार इस मुद्दे पर गंभीर बहस करे।

लोकतंत्र मज़बूत तभी होगा जब जनता का सम्मान रहेगा और उसके हित के विपरीत कोई नियम नहीं होगा। दो सीटों पर चुनाव लड़ना राजनीति का खेल नहीं, बल्कि जनता के साथ मज़ाक है — और इसको कानून बनाकर खत्म करना ही लोकतांत्रिक ईमानदारी की पहली शर्त है।

धन्यवाद,

रोटेरियन सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक, इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री
पूर्व उपाध्यक्ष, जयपुर स्टॉक एक्सचेंज लिमिटेड
जयपुर, राजस्थान
suneelduttgoyal@gmail.com

कर सुधार की नई राह: जीएसटी, पेट्रोलियम और शराब नीति पर विमर्श

कर सुधार की नई राह: जीएसटी, पेट्रोलियम और शराब नीति पर विमर्श

स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से राष्ट्र को संबोधित करते हुए कर दायरे में व्यापक सुधार की ओर संकेत दिया। उन्होंने कहा कि वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) की मौजूदा दरों में बदलाव कर प्रणाली को ज्यादा सरल और सुगम बनाया जाएगा। यह घोषणा निश्चित रूप से अर्थव्यवस्था, उद्योग जगत, उपभोक्ताओं और राज्यों के लिए दूरगामी प्रभाव डालने वाली है।

भारत में कर व्यवस्था अक्सर जटिल और बहुस्तरीय रही है। जीएसटी लागू होने के बाद भी, इसके स्लैब यानी दरें लोगों के लिए उलझन का विषय बनी रहीं। वर्तमान में 0%, 5%, 12%, 18% और 28% जैसी कई दरों के चलते न सिर्फ आम जनता बल्कि कारोबारियों को भी भारी दिक्कतें आती हैं। यदि केंद्र सरकार वास्तव में 28% और 12% दरों को खत्म कर शेष दरों को व्यवस्थित कर दे, तो यह ‘वन नेशन, वन टैक्स’ की दिशा में एक बड़ा कदम साबित होगा।

जीएसटी स्लैब का सरलीकरण
प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद इस दिशा में चर्चा होना जरूरी है कि जिन वस्तुओं पर 12% जीएसटी लगता है, उनमें से ज्यादातर आम उपभोग के खाद्य पदार्थ, दवाइयाँ और दैनिक जीवन की अन्य ज़रूरी वस्तुएँ हैं। इन्हें 5% के दायरे में लाने से महंगाई पर नियंत्रण पाया जा सकता है और उपभोक्ताओं को सीधा लाभ मिलेगा।

दूसरी ओर, 18% जीएसटी सर्विस सेक्टर पर अपेक्षाकृत भारी पड़ता है। बीमा, स्वास्थ्य सेवाएँ, शिक्षा और डिजिटल सेवाएँ इस श्रेणी में शामिल हैं। सामान्य परिवार के बजट में इन सबकी लागत बढ़ जाती है। कई अर्थशास्त्री यह सुझाव दे चुके हैं कि 12% और 18% की दरों को समेकित कर 15% का एक मध्यम स्लैब बनाया जाए। इससे कर-संरचना सरल होगी और उपभोक्ताओं पर अत्यधिक भार भी नहीं पड़ेगा।

इसके अतिरिक्त, स्वास्थ्य और जीवन बीमा जैसी अनिवार्य सेवाओं को 5% के दायरे में लाना एक व्यावहारिक समाधान होगा। इन पर शून्य कर लगाना दीर्घकालिक रूप से समझदारी नहीं मानी जा सकती, क्योंकि सरकार को भी राजस्व चाहिए होता है। लेकिन इन सेवाओं की आमजन तक पहुँच सुनिश्चित करने के लिए कर दर को न्यूनतम स्तर पर रखना अत्यंत आवश्यक है।

पेट्रोलियम उत्पाद और “वन नेशन, वन प्राइस” की आवश्यकता
भारत की ऊर्जा जरूरतों का अधिकांश हिस्सा पेट्रोलियम उत्पादों पर निर्भर है। दुर्भाग्य से, इन पर अब तक जीएसटी लागू नहीं किया गया है और राज्यों की अलग-अलग दरों ने एक असमान कर व्यवस्था पैदा कर दी है। जिन राज्यों में करों की दरें अलग-अलग हैं, वहाँ उनके सीमा क्षेत्रों यानी बॉर्डर पर स्थित पेट्रोल पंपों की बिक्री में स्पष्ट असमानता देखी जा सकती है। राज्यों के बीच दरों में इस भिन्नता के कारण न केवल उपभोक्ता कम दर वाले राज्यों की ओर आकर्षित होते हैं, बल्कि पेट्रोल और डीज़ल की तस्करी जैसी समस्याएँ भी जन्म लेती हैं। ऐसी स्थिति पर प्रभावी नियंत्रण के लिए आवश्यक है कि पूरे देश में पेट्रोलियम उत्पादों की दरें समान हों ताकि न तो तस्करी को बढ़ावा मिले और न ही सीमा क्षेत्र के पेट्रोल पंपों को नुकसान उठाना पड़े।

यदि पेट्रोल और डीजल को जीएसटी के दायरे में लाया जाए और पूरे देश में एक समान दर तय हो, तो इससे दो बड़े लाभ होंगे—

1. लेवल प्लेइंग फील्ड: सभी उद्योगों और व्यवसायों को ऊर्जा एक समान कीमत पर मिलेगी जिससे प्रतिस्पर्धा में समानता आएगी।
2. राजस्व वितरण में पारदर्शिता: केंद्र सरकार अतिरिक्त कर लगाकर राज्यों को समुचित हिस्सा दे सकती है।

हां, यह सच है कि राज्यों को तत्काल राजस्व हानि उठानी पड़ सकती है, पर दीर्घकालिक दृष्टि से यह नुकसान नहीं बल्कि एक सतत समाधान है। केंद्र यदि जीएसटी काउंसिल के माध्यम से राजस्व साझा करने की नीति बनाए, तो राज्यों का भरोसा भी बना रहेगा।

गुणवत्ता और पर्यावरणीय दृष्टि से सुधार
भारत ने “भारत स्टेज-6” मानकों को लागू कर वाहन ईंधन की गुणवत्ता और प्रदूषण नियंत्रण की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाया है। अगर सभी पेट्रोलियम कंपनियों को मर्ज कर एक समान उत्पादन और सप्लाई श्रृंखला बनाई जाए, तो उच्च गुणवत्ता वाला ईंधन पूरे देश में समान दर पर उपलब्ध हो सकता है। इससे न केवल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी आएगी बल्कि उपभोक्ताओं को भी मानक गुणवत्ता वाला ईंधन मिलेगा।

शराब नीति में सुधार
पेट्रोलियम जितना संवेदनशील विषय है, शराब नीति उससे भी अधिक विवादास्पद है। आज भारत में शराब की खपत तीव्र गति से बढ़ रही है। सामाजिक और स्वास्थ्य संबंधी पहलुओं को दरकिनार करते हुए यह उद्योग राजस्व हासिल करने का प्रमुख साधन बना हुआ है।

वास्तविक समस्या यह है कि शराब पर हर राज्य ने अपनी मनमानी दरें तय कर रखी हैं। कहीं-कहीं ऊंचे करों की वजह से तस्करी और अवैध शराब का व्यापार फल-फूल रहा है। कई रिपोर्ट्स इशारा करती हैं कि शराब माफिया और अधिकारियों के गठजोड़ से भ्रष्टाचार और टैक्स की चोरी जमकर होती है।

अगर जीएसटी काउंसिल साहस दिखाकर शराब की निर्माण लागत से लेकर एमआरपी तक एक समान दर तय कर दे, तो यह सिस्टम अधिक पारदर्शी हो जाएगा। सरकार को बड़े स्तर पर राजस्व का नुकसान नहीं होगा, बल्कि उल्टा—जो पैसा भ्रष्टाचार और काले बाजार में जा रहा है, वह सरकारी खजाने में आएगा।
सामाजिक रूप से भी यह सुधार आवश्यक है। शराब की आसानी से उपलब्धता और दरों में असमानता न सिर्फ उपभोक्ताओं को गुमराह करती है बल्कि अवैध व्यापार को भी बढ़ावा देती है। यदि पूरे देश में एक समान दर लागू हो, तो शराब माफिया पर नियंत्रण होगा और समाज पर इसके नकारात्मक असर को कुछ हद तक कम किया जा सकेगा।

निष्कर्ष
भारत आज एक ऐसी आर्थिक स्थिति में है जहाँ कर सुधार न केवल राजस्व संग्रहण का प्रश्न है, बल्कि जनहित एवं सामाजिक समरसता का मुद्दा भी है। जीएसटी में सरलीकरण, पेट्रोलियम उत्पादों का राष्ट्रीय स्तर पर एक मूल्य, और शराब पर 一 कर नीति, तीन ऐसे कदम हैं जो भारतीय अर्थव्यवस्था को पारदर्शी, प्रतिस्पर्धात्मक और न्यायसंगत बना सकते हैं।

निश्चित रूप से, इन सुधारों को लागू करने में राजनीतिक इच्छाशक्ति और संघीय सहयोग की बड़ी आवश्यकता होगी। लेकिन यदि संसद, राज्य सरकारें और जीएसटी काउंसिल मिलकर सामंजस्य स्थापित करें, तो यह देश को एक ऐसे “नई कर संरचना” की ओर ले जाएगा जिसमें सरलता, पारदर्शिता और समानता—तीनों के संतुलन के साथ विकास संभव होगा।

भारत को अब सवाल यह नहीं पूछना चाहिए कि “क्या यह संभव है?” बल्कि यह सोचना चाहिए कि “इसे कब लागू करना है।”

धन्यवाद,

रोटेरियन सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक, इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री
पूर्व उपाध्यक्ष, जयपुर स्टॉक एक्सचेंज लिमिटेड
जयपुर, राजस्थान
suneelduttgoyal@gmail.com

प्रमोटरों द्वारा शेयर बेचना: निवेशकों के लिए एक गंभीर चेतावनी

प्रमोटरों द्वारा शेयर बेचना: निवेशकों के लिए एक गंभीर चेतावनी

पिछले कुछ समय से भारतीय शेयर बाजार में एक चिंताजनक ट्रेंड देखने को मिल रहा है। कंपनियों के प्रमोटर या तो अपने शेयर गिरवी रख देते हैं या फिर उन्हें बेचकर भारी-भरकम रकम कमा लेते हैं। इन कदमों को ‘कंपनी के हित’ में बताया जाता है। लेकिन क्या वाकई ऐसा है? या फिर यह शेयरधारकों को दिया जाने वाला एक भोंडा बहाना है? आम निवेशक के दिमाग में यह सवाल स्वाभाविक उठता है।

अक्सर, प्रबंधन यह दावा करता है कि कंपनी को पूंजी की जरूरत है, इसलिए प्रमोटर ने अपनी निजी होल्डिंग्स गिरवी रख दीं। एक ऐसी धारणा पैदा की जाती है कि देखो, प्रमोटर कंपनी के लिए कितना वचनबद्ध है कि उसने अपनी निजी संपत्ति तक दांव पर लगा दी। यह कहानी इस तरह से गढ़ी जाती है कि आम निवेशक अच्छा महसूस करे और सवाल पूछना भूल जाए।

लेकिन असली सवाल तो यह है कि आखिर कंपनी इतनी मुश्किल हालात में क्यों पहुंच गई कि उसे प्रमोटर के शेयर गिरवी रखने पड़े? क्या कंपनी के ऑडिटर, स्टॉक एक्सचेंज, या उधारदाताओं को इसकी कोई जानकारी नहीं होती? और सबसे बड़ा सवाल, आम शेयरधारक कंपनी से यह पूछने की हिम्मत क्यों नहीं करता कि उसकी कंपनी को पैसों की इतनी जरूरत क्यों आन पड़ी? असल में, प्रमोटर द्वारा गिरवी रखे गये या बेचे गए शेयरों से जो पैसा आता है, वह अगर कंपनी में डेट के रूप में डाला जाता है, तो कंपनी की बैलेंस शीट पर सिर्फ कर्ज़ का बोझ और बढ़ जाता है। एक कर्ज चुकाने के लिए दूसरा कर्ज लेना, देसी भाषा में कहें तो, ‘झममन की टोपी मम्मन पर से उतारकर किसी अन्य पर डालने’ जैसा है।

हाल ही की एक बड़ी घटना ने इस चिंता को और बढ़ा दिया है। अपोलो हॉस्पिटल्स एंटरप्राइजेज की एक प्रमोटर, श्रीमती सुनीता रेड्डी ने अपनी 3.36% हिस्सेदारी, जिसकी कीमत लगभग 1489 करोड़ रुपए है, बाजार में बेच दी। इसकी वजह कंपनी के कर्ज को चुकाने के लिए बताई जा रही है। यहां सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि कंपनी कानून (कम्पनीज एक्ट) में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि एक प्रमोटर (जोकि एक सम्बंधित पार्टी है) सीधे तौर पर कंपनी का कर्ज चुका सके। ऐसा संभव ही नहीं है कि श्रीमती रेड्डी ने शेयर बेचे और उस पैसे को सीधे कंपनी के कर्ज दाताओं को दे दिया।

तो फिर खेल क्या है? ज्यादातर मामलों में, यही देखने को मिलता है कि प्रमोटर द्वारा शेयर बेचने से जो रकम आती है, उसे कंपनी को एक लोन के रूप में दिया जाता है। फिर इसी लोन के पैसे से कंपनी अपना पुराना कर्ज चुकाती है। मतलब साफ है – एक कर्ज चुकाने के लिए दूसरा कर्ज ले लिया गया। बस कर्ज देने वाला अब कोई बाहरी बैंक नहीं, बल्कि खुद प्रमोटर है। इससे कंपनी की वित्तीय हालत पर कोई फर्क नहीं पड़ता, सिर्फ कर्ज का स्रोत बदल जाता है।

अब सवाल यह है कि मार्केट रेगुलेटर सेबी इन सब पर क्यों नहीं रोक लगाता? क्या सेबी सो रही है? क्या उसे कंपनीज एक्ट के नियमों की जानकारी नहीं है? जरूर है। शायद तकनीकी तौर पर यह पूरी तरह से रूल्स का उल्लंघन नहीं है, इसलिए सेबी खामोश है। लेकिन सवाल नियमों का नहीं, नैतिकता और पारदर्शिता का है। क्या यह उचित है? बिल्कुल नहीं।

यह ट्रेंड निवेशकों के लिए एक बड़ा खतरा है। हो सकता है कि कोई प्रमोटर बाजार के मौके को देखते हुए धीरे-धीरे अपनी हिस्सेदारी कम कर रहा हो (निकलने की तैयारी में हो), और ‘कंपनी के हित’ का झूठा बहाना बना रहा हो। यह एक गंभीर मामला है, जो आने वाले समय में बड़े स्कैम के रूप में सामने आ सकता है।

हमारा मानना है कि सेबी को तुरंत हस्तक्षेप करना चाहिए। उसे हर उस कंपनी की जांच करनी चाहिए, जिसके प्रमोटरों ने अपने शेयर गिरवी रखे हैं या हाल में बेचें हैं। यह पता लगाना चाहिए कि शेयर बेचने के पीछे की असली वजह क्या है। क्या यह वजह उचित और निवेशकों के हित में है? निवेशकों को भी सतर्क होने की जरूरत है। आँख बंद करके भरोसा न करें। कंपनी के मैनेजमेंट से सवाल पूछें। अपने हक की लड़ाई लड़ें।

आखिरकार, शेयर बाजार पूरी तरह से विश्वास (ट्रस्ट) और विश्वसनीयता (क्रेडिबिलिटी) पर ही तो चलता है। अगर यह विश्वास टूटा, तो बाजार का आधार ही हिल जाएगा, जिससे देश की इकोनॉमी को भी गहरा झटका लग सकता है। यह सिर्फ पैसों का खेल नहीं, लोगों के भरोसे और भविष्य का सवाल है।

धन्यवाद,

रोटेरियन सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक, इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री
पूर्व उपाध्यक्ष, जयपुर स्टॉक एक्सचेंज लिमिटेड
जयपुर, राजस्थान
suneelduttgoyal@gmail.com

रोशनी लौटाने का संकल्प: नेत्रदान को जन-आंदोलन बनाइए

कॉर्निया अंधता उन समस्याओं में है जिन्हें सही सिस्टम और समय पर कदमों से तेजी से कम किया जा सकता है—जरूरत है जागरूकता को कार्रवाई में बदलने की, अस्पताल-आधारित रिट्रीवल को बढ़ाने की, और यह सुनिश्चित करने की कि दान हुआ हर कॉर्निया अधिकतम लोगों की रोशनी लौटाए। राजस्थान आई बैंक सोसाइटी (EBSR) की ताज़ा तिमाही रिपोर्ट दिखाती है कि पक्का इरादा, अच्छी काउंसलिंग और तेज़ प्रोसेसिंग मिलकर कैसे बड़ा असर लाते हैं।

क्यों जरूरी है
भारत में दृष्टिदोष और अंधता का कुल बोझ घटा है, लेकिन कॉर्निया अंधता ऐसा क्षेत्र है जहां प्रत्यारोपण से सीधे रोशनी लौट सकती है—यानी समस्या के साथ समाधान भी मौजूद है। राष्ट्रीय अंधत्व एवं दृष्टिदोष सर्वे (2015–19) ने दिखाया कि देश में अंधता का कुल प्रचलन 0.36% तक घटा, पर कॉर्निया सहित रोके जा सकने वाले कारणों पर सतत फोकस 2025 तक 0.25% के लक्ष्य के लिए जरूरी है।

राजस्थान का उदाहरण
जनवरी–जून 2025 में EBSR ने 1,518 कॉर्निया जुटाए और 930 प्रत्यारोपण करवाए; Q1 की उपयोगिता 56% से Q2 में 67% तक पहुँची, और जून में 197 ट्रांसप्लांट तथा 82.77% उपयोगिता का मासिक रिकॉर्ड बना। स्थापना से जून 2025 तक EBSR ने 25,808 कॉर्निया प्राप्त कर 16,597 प्रत्यारोपण कराए हैं, और बताया है कि राज्य में उपयोग होने वाले कुल कॉर्निया का लगभग 96% वह सप्लाई करता है—यह पैमाने, गुणवत्ता आश्वासन और समुदाय-भागीदारी का मजबूत मॉडल है।

देश की तस्वीर: सरकारी डेटा क्या कहता है
भारत सरकार के NPCB&VI के अनुसार 2019 तक अंधता प्रचलन 0.36% पर आ चुका था और 2025 तक 0.25% का राष्ट्रीय लक्ष्य तय है—यानी प्रोग्रामेटिक सुधार सही दिशा दे रहे हैं।

लोकसभा में सरकार ने बताया कि औसतन 40–50% दान की गई आंखें/कॉर्निया सालाना प्रत्यारोपण में उपयोग हो पाती हैं; गुणवत्ता, उम्र और मेडिकल कारणों से सभी ऊतक ऑप्टिकल ग्रेड नहीं बन पाते—यही गैप HCRP और लैब-सक्षम प्रक्रिया से पाटा जा सकता है।

2024–25 तक NPCBVI के माध्यम से 1.17 करोड़ से अधिक लोग विभिन्न नेत्र सेवाओं से लाभान्वित हुए; इसमें कैटरेक्ट, चश्मे, और अन्य रोग-प्रबंधन के साथ केरेटोप्लास्टी भी शामिल है—यह इकोसिस्टम कॉर्निया के असर को गुणा देने वाली बैकबोन है।

नीति इतिहास बताता है कि सरकार ने आई बैंकों/एडिसी को फंडिंग, स्टाफ ट्रेनिंग, और प्रति जोड़ी कॉर्निया पर प्रतिपूर्ति जैसी सहूलियतें दीं; लक्ष्य 1 लाख वार्षिक ट्रांसप्लांट तक स्केल करना था—अस्पताल-आधारित रिट्रीवल से उपयोगिता 50–72% तक जाती दिखी है।

क्या सबसे ज्यादा असर करता है
अस्पताल से सीधी प्राप्ति (HCRP): ICU/इमरजेंसी/मॉर्चरी में प्रशिक्षित काउंसलर समय पर सहमति और बेहतर ऊतक दिलाते हैं, जिससे उपयोगिता और ट्रांसप्लांट दोनों बढ़ते हैं। सरकारी स्वीकारोक्ति के मुताबिक उपयोगिता 40–50% के औसत से ऊपर ले जाने के लिए यही सबसे बड़ा लीवर है।

उपयोगिता-फर्स्ट सोच: सर्जन नेटवर्क, समय पर लैब टेस्ट (सेरोलॉजी, स्पेक्युलर माइक्रोस्कोपी), और लेमलर तकनीकें (DSEK/DMEK/DALK) एक कॉर्निया से दो मरीजों तक को लाभ पहुँचा सकती हैं।

भरोसा और सम्मान: राजस्थान की जमीनी कहानियाँ—चलती एंबुलेंस में नेत्रदान, तीसरे दिन की बैठक में सार्वजनिक सम्मान—दिखाती हैं कि संवेदनशील संवाद और पारदर्शिता से परिवार समय पर हाँ कहते हैं।

नीति और सिस्टम: तुरंत क्या करें
HCRP को सार्वभौमिक बनाइए: सभी मेडिकल कॉलेजों और बड़े अस्पतालों में 24×7 काउंसलर व रिट्रीवल टीम, मॉर्चरी एक्सेस और फास्ट-ट्रैक लैब सपोर्ट अनिवार्य हों; राज्यों के डैशबोर्ड “कलेक्शन” नहीं, “उपयोगिता और ऑपरेशन” पर रैंक करें।

उपयोगिता पर फंडिंग: अनुदान/CSR प्रोत्साहन उन आई बैंकों को प्राथमिकता दें जो लगातार 60–70%+ उपयोगिता दिखाएँ और जिलों तक लेमलर ट्रेनिंग पहुँचाएँ।

रुकावटें हटाइए: मेडिकल-लीगल क्लियरेंस, ट्रांसपोर्ट और इंटर-स्टेट एक्सचेंज के मानक समय-सीमा के साथ तय हों; जिला-स्तर पर सेरोलॉजी और स्पेक्युलर की उपलब्धता डिस्कार्ड कम करती है।

डेटा पारदर्शिता: NPCBVI डैशबोर्ड पर तिमाही राज्यवार कलेक्शन, ट्रांसप्लांटेबल-ग्रेड यील्ड और वास्तविक ट्रांसप्लांट प्रकाशित होते रहें, ताकि “कलेक्शन बनाम उपयोगिता” का अंतर न रहे।

जन-भागीदारी: NSS/कॉलेज, धार्मिक व सामुदायिक नेतृत्व और शोक-समय संवाद की स्क्रिप्ट—जिन्हें राजस्थान अपना रहा है—को व्यापक बनाइए, ताकि फॉर्म से ज्यादा “परिवार की तैयारी” हो और हेल्पलाइन पर समय से कॉल पहुँचे।

राजस्थान से देश की सीख
Q2 की उछाल—एक महीने में 197 ट्रांसप्लांट और 82.77% उपयोगिता—यह साबित करती है कि जब अस्पताल रिट्रीवल, काउंसलिंग और लैब-लॉजिस्टिक्स एक सूत्र में आ जाते हैं, तो हर दान लगभग तय रोशनी में बदलता है। यही मॉडल राष्ट्रीय स्तर पर अपनाने से 40–50% की औसत उपयोगिता को 60–70%+ तक ले जाना संभव है।

तुरंत कदम
सरकारें: HCRP का सार्वभौमीकरण, उपयोगिता-आधारित स्कोरकार्ड, लेमलर ट्रेनिंग, और इंटर-स्टेट ऊतक-विनिमय के समयबद्ध मानक तय करें—2025 के 0.25% लक्ष्य की दिशा में यह तेज़ी जरूरी है।

अस्पताल: ICU/ER/मॉर्चरी में आई-डोनेशन चैंपियन नामित करें और ऑन-कॉल रिट्रीवल SOPs लागू करें—यही “घंटों के भीतर सहमति” को संभव बनाता है।
नागरिक: परिवार से अभी बात करें, टोल-फ्री नंबर सहेजें, और मौत के कुछ घंटों में सूचना दें—यही वो पल है जो संवेदना को दृष्टि में बदल देता है।

हर कॉर्निया ऑपरेशन थिएटर तक पहुँचना चाहिए—और हर “हाँ” एक इलाज में बदलनी चाहिए। देश के पास नीति, कार्यक्रम और अनुभव का खाका मौजूद है; राजस्थान यह दिखा रहा है कि जमीन पर इसे कैसे जिया जाता है।

धन्यवाद,

रोटेरियन सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक, इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री
पूर्व उपाध्यक्ष, जयपुर स्टॉक एक्सचेंज लिमिटेड
जयपुर, राजस्थान
suneelduttgoyal@gmail.com

लेखक खुद भी अपने नेत्रदान का पंजीकरण करा चुके हैं | इसके अलावा अंगदान एवं देह दान का भी पंजीकरण कराया हुआ है |

सामाजिक सरोकार और परिवारों का मिलन। कहां से चले हम ! और कहां पहुंच गए ? अंत क्या होगा पता नहीं !

जीवन में अपने से जुड़े लोगों से मिलते-जुलते समय हमारा दिखावा करना या अत्याधिक अपने आप के व्यवहार में सम्पन्नता दिखाना — यह सब कुछ समय के लिए आपको धनी व सुखी इंसान होने का संकेत तो दे सकता है, लेकिन समय के साथ वास्तविकता को हम छुपा नहीं सकते। हम अपने आप को दिखावा और ढोंग के माध्यम से मानसिक तनाव के रूप में परेशानी महसूस करने लग जाते हैं।

दिखावे व बराबरी की होड़ हमें आर्थिक रूप से कमजोर ही बनाती है क्योंकि बराबरी करने के लिए हमें अपनी हैसियत व कमाई से अधिक खर्च करना पड़ता है। इससे हम कर्ज का बोझ अपने कंधों पर बेवजह उठाते हुए अपने जीवन को दुखी कर लेते हैं।

जीवन में कभी भी औरों से अधिक धनवान दिखाने में सिवाय नुकसान के कुछ भी प्राप्त नहीं होता।

अगर अपने को सुखी रखना है तो जो पास है उसमें संतोष व आनंद लेना चाहिए और यह भूल जाना चाहिए कि लोग क्या सोचेंगे।

क्योंकि अंत में व्यवस्था स्वयं की ही काम आती है। दिखावे से प्रभावित रिश्ते जीवन में कभी साथ नहीं देते।

हमारे सांसारिक जीवन में मेल-जोल का अवसर शादी-विवाह, सम्मेलन, घर में कुआं पूजन, पुत्र उत्सव या पुत्री उत्सव जैसे कार्यक्रमों में हुआ करता था। उन्हीं अवसरों पर सारे रिश्तेदार-नातेदारों से मुलाकात होती थी। लेकिन आजकल वह परंपरा भी खत्म होती जा रही है। अब तो वहां भी चर्चा होती है कि कौन कितनी महंगी कार से आया है, कितने महंगे कपड़े पहन रखे हैं, कौन-सा मोबाइल फोन हाथ में है, कौन-सी परफ्यूम लगाई है, बच्चे किस बड़े स्कूल या कॉलेज में पढ़ रहे हैं, कौन देश में है या विदेश में, कितना पैकेज ले रहा है।

हम यह भूल गए कि पहले तीन-चार भाई या पांच भाई परिवारों में रहते थे और जब इकट्ठे होते थे तो भाई-बंधु और परिवार के सदस्य साथ आते थे। चाचा-मामा और रिश्तेदारों के बीच अपनापन झलकता था। मुलाकातें दिल से होती थीं, न कि अपनी कमाई का दिखावा करने के लिए।

आजकल की शादियों का बदलता स्वरूप

पहले शादियां मोहल्ले या धर्मशाला में होती थीं। मेहमान आसपास के घरों में ठहरते थे। सब साथ बैठकर पत्तल-दोने में भोजन करते थे। गद्दे-रजाई बिछा दिए जाते थे और साधारण व्यवस्था में भी अपनापन झलकता था।

लेकिन अब हालात पूरी तरह बदल गए हैं। आजकल शादियां महंगे रिसॉर्ट्स और डेस्टिनेशन वेडिंग्स में होने लगी हैं। शादी से दो दिन पहले ही पूरा परिवार रिसॉर्ट में शिफ्ट हो जाता है और मेहमान सीधे वहीं पहुंचते हैं। जिसके पास चारपहिया वाहन है वही वहां तक पहुंच सकता है, दोपहिया वालों के लिए यह संभव नहीं।

अब निमंत्रण भी वर्गानुसार बंट गए हैं —

  • किसी को केवल लेडीज़ संगीत में बुलाना,
  • किसी को सिर्फ रिसेप्शन में,
  • किसी को कॉकटेल पार्टी में,
  • और VIP परिवार को सभी कार्यक्रमों में।

इस निमंत्रण में अपनापन की भावना खत्म हो चुकी है। सिर्फ मतलब के व्यक्तियों को या परिवारों को आमंत्रित किया जाता है।

कई बार देखा गया है कि जो लोग बारात में शामिल होने के लिए आते हैं उन्हें दूल्हा-दुल्हन का नाम या शकल मालूम ही नहीं होती और भविष्य में कभी दूल्हा-दुल्हन मिल जाए तो उन्हें पहचानते भी नहीं है।

शादियों का दिखावटीपन

महिला संगीत के लिए महंगे कोरियोग्राफर बुलाए जाते हैं। मेहंदी में सबको हरे कपड़े पहनने की अनिवार्यता होती है, हल्दी में पीले कुर्ते-पायजामे। जो न पहने, उसे हीन दृष्टि से देखा जाता है।

इवेंट मैनेजमेंट वालों ने शादी की परंपरा को एक प्रदर्शनी में बदल दिया है। दूल्हा-दुल्हन पर से ध्यान हटकर सजावट, डांसर्स, परफॉर्मेंस और दिखावे पर चला जाता है। 10-15 लोग आ रहे हैं अधनंगे कपड़ों में डांस करने, कोई झंडा उठा रहा है, कोई बैनर उठा रहा है, कोई टोपी पहन रहा है, कोई फूल उछाल रहा है, कोई पता नहीं वह गरीब विचित्रता के मानवता के सबूत पेश किए जाते हैं कि हां हम बहुत पैसे वाले हैं और हम इस खर्च का वहन कर सकते हैं। वह खुद भूल जाते हैं, लड़के और लड़की, वर और वधू पक्ष में दोनों लोग कि वह अपने बेटे-बेटी की शादी करने आए हैं और उनका भविष्य/जीवन जो है वह पूजा-पाठ के सहारे चलेगा, भगवान के सहारे चलेगा, इन इवेंट वालों के सहारे नहीं चलेगा। लेकिन उन दोनों पक्षकारों का पूरा ध्यान जो होता है वह इवेंट की बारीकियों पर होता है कि उसने पैर कैसा रखना है, उसने हाथ कैसे रखना है, उसने कंधे पर क्या करना है, ऐसा किया कि नहीं किया, नहीं किया तो इवेंट वाले का पैसा काट दो 

फोटोग्राफर्स और वीडियोग्राफर्स 6-8 कैमरे लगाकर ऐसे-ऐसे एंगल से तस्वीरें खींचते हैं जिनका कोई मतलब नहीं होता। सैकड़ों GB डेटा इकट्ठा होता है जिसे कोई देखने की जहमत तक नहीं उठाता। लेकिन खर्चा लाखों में हो जाता है।

बारात प्रोसेशन में 5 से 10 हजार नाच-गाने पर उड़ा देते हैं।

इसके बाद रिसेप्शन स्टार्ट होता है। स्टेज पर वरमाला अब फिल्मी स्टाइल में होती है। पहले लड़की और लड़के वाले मिलकर हंसी-मजाक करके वरमाला करवाते थे। आजकल स्टेज पर धुंए की धूनी छोड़ देते हैं। दूल्हा-दुल्हन को अकेले छोड़ दिया जाता है, बाकी सब को दूर भगा दिया जाता है

और फिल्मी स्टाइल में स्लो मोशन में वह एक दूसरे को वरमाला पहनाते हैं, साथ ही नकली आतिशबाजी भी होती है। स्टेज के पास एक स्क्रीन लगा रहता है, उसमें प्री-वेडिंग शूट की वीडियो चलती रहती है। उसमें यह बताया जाता है कि शादी से पहले ही लड़की-लड़के से मिल चुकी है और कितने अंग प्रदर्शन वाले कपड़े पहन कर

कहीं चट्टान पर

कहीं बगीचे में

कहीं कुएं पर

कहीं बावड़ी में

कहीं श्मशान में, कहीं नकली फूलों के बीच अपने परिवार की ……………?

रिश्तों में आती दूरी

पहले रिश्तेदार शादी में मिलते थे तो घंटों साथ बैठते थे, बातें करते थे। अब अमीरी का दिखावा इतना बढ़ गया है कि सब अपने-अपने कमरे में बंद रहते हैं। मिलना-जुलना सिर्फ औपचारिकता भर रह गया है। एक सामान्य आदमी के लिए भी सोचो। अगर हमें भगवान ने पैसा दे दिया या दौलत और शोहरत दे दी तो उसका इतना दुरुपयोग, दिखावा या प्रदर्शन मत करो कि आपके यहां जो बारात में आया हुआ व्यक्ति है वह अपने आप पर शर्मिंदगी फील करें कि मैं कैसे वहाँ जाऊंगा? लिफाफा दूंगा चले आऊंगा। आपके लिए इंपॉर्टेंट वह भी है जिसको आपने निमंत्रण दिया है। हो सकता है वह आपके मुकाबले दौलत वाला व्यक्ति नहीं हो लेकिन उसे इतनी आत्मग्लानि फील होती है कि व्यक्ति उक्त शादी में आकर अपने आप को बौना महसूस करता है। वह तो यह जिम्मेदारी मेजबान की है कि जो अपने मेहमानों के अंदर ऐसे इंप्रेशन ना छोड़े कि वह अपने आप के अंदर गिल्ट फील करें।

लिफाफे और गिफ्ट भी अब दिखावे पर आधारित हो गए हैं। लिफाफा और गिफ्ट देने के भी हालत अब यह है कि जिन लोगों को हम सलाम ठोकते हैं उनको तो 11, 21 और 51 हजार या लाखों रुपए की गिफ्ट दी जाएगी, जबकि वह खुद बहुत सक्षम और साधन संपन्न लोग होते हैं और जो लोग हमें सलाम ठोकते हैं, वह हमारे मातहत भी हो सकते हैं और हमसे धन-संपदा में छोटे भी हो सकते हैं, तो उनको उसके लिए 2100 – 5100 का लिफाफा देकर निपटा दिया जाता है, जबकि उसके परिवार को रुपयों की ज्यादा आवश्यकता होती है।

संस्कारों का ह्रास

अक्सर देखता हूँ कि करोड़ों खर्च करने वाले लोग पंडित जी को दक्षिणा देने में एक घंटा बहस करते हैं, और मात्र 5100-11000  रुपये देकर टाल देते हैं। जबकि दूल्हे की साली सिर्फ जूते चोरी के नाम पर हज़ारों रुपये ले लेती हैं। शादी खत्म होते ही उस ब्राह्मण का, जो 12-24 घंटे से सेवा में था, कोई ध्यान भी नहीं रखता। वह दयनीय स्थिति में अपना सामान समेटकर चला जाता है।

यह विरोधाभास दुख देता है: एक मैकेनिक, प्रति विजिट जो बमुश्किल  एक घंटे का काम करता है, बिना सवाल किए 500-1000 रुपये ले जाता है, जबकि एक विद्वान ब्राह्मण, जिसने वर्षों पढ़ाई की है, पूरे दिन के काम के बाद भी उचित सम्मान और पारिश्रमिक नहीं पाता।

सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि शादी अब आध्यात्मिक अनुष्ठान न होकर मनोरंजन का साधन बन गई है। न मुहूर्त का पालन होता है, न पूजा की पवित्रता का ध्यान रखा जाता है। लोग मंत्रों के बीच हँसी-मजाक करते हैं, जो इस पवित्र परंपरा के प्रति गहरी बेरुखी दर्शाता है।

मेरा अपने मध्यमवर्गीय समाज बंधुओं से निवेदन है कि —

  • पैसा आपका है, आपने कमाया है।
  • खुशी का अवसर है, उसे मनाइए।
  • लेकिन किसी की देखा-देखी, कर्ज लेकर दिखावा मत कीजिए।

4-5 घंटे के रिसेप्शन में अपनी जीवनभर की पूंजी मत गवा दीजिए।

इससे कहीं बेहतर है कि अपने बच्चों को स्थाई संपत्ति, सोना-चांदी दीजिए। साथ ही उनके नाम से कोई दान या सार्वजनिक सेवा कार्य भी करिए ताकि आने वाली पीढ़ी तक यह संदेश पहुंचे कि शादी सिर्फ खर्च और दिखावे की नहीं, सामाजिक जिम्मेदारी की भी होती है।

धन्यवाद,


रोटेरियन सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक, इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री
पूर्व उपाध्यक्ष, जयपुर स्टॉक एक्सचेंज लिमिटेड
जयपुर, राजस्थान
suneelduttgoyal@gmail.com