ट्रंप के टैरिफ का तूफान: 5 ट्रिलियन डॉलर अमेरिकी संपत्ति का नुकसान भारतीय अर्थव्यवस्था के बराबर, अब ज़रूरी है सतर्क रणनीति

एक समय था जब दुनिया एक साझा नियमों और वैश्विक सहयोग के दौर से गुजर रही थी। वैश्वीकरण और मुक्त व्यापार के उस युग में ऐसा लगता था कि सभी देश मिलकर आगे बढ़ सकते हैं — एक “विन-विन” सिस्टम, जहाँ हर किसी को फायदा हो।
लेकिन अब वो दौर बीत चुका है।
अमेरिका ने हाल ही में ‘लिबरेशन डे’ पर जिस तरह से नई टैरिफ नीति का ऐलान किया है, वह दुनिया की आर्थिक धारा को ही मोड़ता नज़र आ रहा है। अब यह स्पष्ट हो गया है कि नियमों पर आधारित वैश्विक व्यापार व्यवस्था का अंत हो चुका है — और हम एक नए, कहीं ज़्यादा अनिश्चित और ख़तरनाक युग में प्रवेश कर चुके हैं।
चीन और अमेरिका के बीच चल रहा व्यापार युद्ध (Trade War) अब एक खतरनाक मोड़ पर पहुँच चुका है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा हाल ही में घोषित नए टैरिफ्स के बाद ना सिर्फ अमेरिकी बाजारों में हाहाकार मचा है, बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था की स्थिरता पर भी गंभीर सवाल उठ खड़े हुए हैं। इस बार अमेरिका और चीन के बीच आर्थिक टकराव ने जो रूप लिया है, उसका असर पूरी दुनिया पर दिख रहा है — खासतौर पर उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं और बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर।
5 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान: अमेरिकी संपत्ति का विनाश, भारत की GDP के बराबर
ट्रंप द्वारा चीन से आने वाले सेमीकंडक्टर और तकनीकी उत्पादों पर उच्च टैरिफ लगाने के ऐलान के बाद, वॉल स्ट्रीट में तेज़ गिरावट दर्ज की गई। अनुमान के अनुसार, अमेरिकी कंपनियों और निवेशकों को कुल मिलाकर लगभग 5 ट्रिलियन डॉलर (करीब ₹435 लाख करोड़) का नुकसान हुआ है।
यह रकम भारत की पूरी अर्थव्यवस्था (GDP) के बराबर है, जो वैश्विक मंच पर एक तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था मानी जाती है।
यहां यह देखना अत्यंत आवश्यक है कि भारत जैसा विशाल देश, जहां आज़ादी के लगभग 80 वर्ष पूरे होने को हैं, अपनी अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंचाने के लिए पिछले 11 वर्षों से पूरी मोदी सरकार अथक प्रयास कर रही है। वहीं ट्रंप साहब के एक फैसले ने पूरे विश्व की आर्थिक और व्यापारिक संरचना को झकझोर कर रख दिया है।
इस तथ्य से यह स्पष्ट होता है कि एक गलत नीति निर्णय कैसे किसी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक स्तर पर हिला सकता है।
ट्रंप की आक्रामक नीति और चीन की प्रतिक्रिया
डोनाल्ड ट्रंप पहले ही चीन से आयातित $550 अरब डॉलर के उत्पादों पर 25% से अधिक का टैरिफ लगा चुके हैं। इस नीति का उद्देश्य था अमेरिकी बाजार को “चीन पर निर्भरता” से मुक्त करना और घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देना। लेकिन इसके परिणाम अब स्पष्ट रूप से नकारात्मक दिखने लगे हैं।
जवाब में चीन ने अमेरिका से आयात होने वाले 16 सेमीकंडक्टर उत्पादों पर 34% तक का टैरिफ लगाया है और कुछ पर प्रतिबंध भी लगाया है। यह कदम सीधे अमेरिकी टेक्नोलॉजी सेक्टर को निशाना बनाता है, जिससे अमेरिकी कंपनियाँ मुश्किल में आ गई हैं।
अब कैसा दिखेगा ये नया दौर?
अमेरिका, जो दशकों तक वैश्विक मुक्त व्यापार प्रणाली का सबसे बड़ा समर्थक था, अब उस पूरी प्रणाली से पीछे हट गया है। वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गनाइज़ेशन (WTO) जैसी संस्थाओं के ज़रिये दुनिया भर में जो नियम-क़ायदे बने थे, उन्हें अब नजरअंदाज किया जा रहा है।
अमेरिका अब देश-दर-देश अलग-अलग टैरिफ तय कर रहा है — जिसे वो “रिसिप्रोकल टैरिफ” कह रहा है।
यानी अब यह तय नहीं होगा कि किसी उत्पाद पर कितना शुल्क लगेगा, बल्कि यह देखा जाएगा कि कौन-सा देश अमेरिका को क्या देता है — और उसी के आधार पर टैक्स तय होंगे।
एक छोटा लेकिन खतरनाक कदम
शायद किसी एक देश पर लगने वाला 10% टैरिफ ज्यादा बड़ा मुद्दा न लगे। लेकिन असली चिंता इस कदम के पीछे की सोच है।
अगर बाकी देश भी यही रवैया अपनाते हैं — कि WTO के नियमों को दरकिनार करके वे भी केवल अपनी शर्तों पर ट्रेड करेंगे — तो पूरी दुनिया की सप्लाई चेन चरमरा सकती है। छोटे और विकासशील देश, जिनकी अर्थव्यवस्था विदेशी व्यापार पर निर्भर है, हाशिए पर चले जाएंगे, उन्हें वैश्विक व्यापार से बाहर किया जा सकता है।
वैश्विक मंदी का खतरा मंडरा रहा है
अमेरिका के इस फैसले के असर से वॉल स्ट्रीट में 5 ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा की पूंजी उड़ गई — जो भारत की कुल अर्थव्यवस्था (GDP) के बराबर है। सोचिए, एक नीति की घोषणा से अमेरिका ने जितनी संपत्ति गंवाई, वो एक पूरे देश की सालाना आर्थिक गतिविधियों के समान है।
ऐसे में ज़रूरत है कि आने वाले फैसलों को बेहद सावधानी से लिया जाए। अगर यही रुख जारी रहा तो वैश्विक व्यापार युद्ध को रोकना मुश्किल होगा।
कई देशों ने पहले ही जवाबी टैरिफ की तैयारी शुरू कर दी है — यूरोपियन यूनियन, कनाडा, मैक्सिको जैसे देश अब खुद अमेरिकी उत्पादों पर भारी शुल्क लगाने पर विचार कर रहे हैं।
इतिहास की चेतावनी
दुनिया ने इससे पहले ऐसा दौर 1930 के दशक में देखा था, जब व्यापार युद्धों ने आर्थिक मंदी को जन्म दिया, और आगे चलकर यह हालात द्वितीय विश्व युद्ध तक पहुंच गए। अगर अब भी वैश्विक समुदाय ने संयम नहीं दिखाया, तो हालात दोहराए जा सकते हैं।
अंतरराष्ट्रीय नियम टूट रहे हैं
आज की हकीकत यही है कि वैश्विक संस्थाएं कमजोर हो रही हैं। देशों के बीच सहयोग की बजाय प्रतिस्पर्धा और स्वार्थ हावी हो रहा है। बड़ी अर्थव्यवस्थाएं अब ताक़त और दबाव के बल पर अपने फ़ैसले थोप रही हैं।
इस माहौल में छोटे और खुली अर्थव्यवस्था वाले देशों के लिए यह दौर खासा चुनौतीपूर्ण हो सकता है। उन्हें या तो बड़ी शक्तियों की शर्तें माननी होंगी या फिर बाहर कर दिए जाएंगे।
क्या करना होगा अब?
अब देश को न सिर्फ आर्थिक स्तर पर, बल्कि मानसिक रूप से भी तैयार रहना होगा। व्यापार में गिरावट, निवेश में संकोच और कच्चे माल की कीमतों में उथल-पुथल जैसे झटकों के लिए तैयार रहना जरूरी है।
मज़बूत साझेदारियाँ, रणनीतिक निवेश और आंतरिक क्षमता का निर्माण — यही रास्ता है, जिससे कोई देश खुद को इन वैश्विक हलचलों के बीच खड़ा रख सकता है।
निष्कर्ष: ये नया वैश्विक यथार्थ है
ये कोई अस्थायी संकट नहीं है। यह एक नई वैश्विक व्यवस्था की शुरुआत है। ऐसे में यह मानना कि पुराने नियम और सुरक्षा कवच अब भी काम करेंगे, एक भ्रम होगा।
जो देश अभी से सतर्क और संगठित हैं, वही इस वैश्विक तूफान में टिक पाएंगे। बाकियों के लिए आने वाला समय और भी कठिन हो सकता है।
मुझे ऐसा लगता है कि कहीं ऐसा न हो कि अमेरिका के भीतर ही लोगों में गहरा असंतोष उत्पन्न हो, जो या तो किसी सिविल वॉर (गृहयुद्ध) का रूप ले ले, या वहां मध्यावधि चुनाव की नौबत आ जाए, या फिर ट्रंप की पार्टी कोई और बड़ा फैसला ले ले — जो निश्चित रूप से जोखिम भरा और चौंकाने वाला हो सकता है।
मैं हमेशा से यह कहता आया हूं कि विश्व के किसी भी नेता, राजनेता, अर्थशास्त्री या किसी भी महत्वपूर्ण पद पर बैठे व्यक्ति को ऐसे संवेदनशील वक्तव्यों से बचना चाहिए। कोई भी बड़ा फैसला लेने से पहले यह तुलनात्मक अध्ययन करना अत्यंत आवश्यक है कि उस फैसले का प्रभाव सबसे पहले उनकी राजनीति पर, फिर उनकी जनता पर, और उसके बाद उनकी अर्थव्यवस्था तथा शेयर बाजार के मार्केट कैपिटलाइज़ेशन पर क्या असर डालेगा।
हमने भारत में भी यह कई बार देखा है — सरकारें कभी-कभी 1000 से 2000 करोड़ रुपये के टैक्स लगाने की लालसा में 10,000 से 20,000 करोड़ रुपये के मार्केट कैपिटलाइज़ेशन को गंवा देती हैं। नुकसान आम जनता का होता है — सरकारों और नेताओं पर इसका सीधा असर नहीं पड़ता।
लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बैठे हुए उच्च पदों के लोगों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे संवेदनशीलता, सहनशीलता, और विवेक का प्रदर्शन करें और हर कदम सोच-समझकर उठाएं।
मुझे उम्मीद है कि आने वाले एक से डेढ़ महीने में इन परिस्थितियों में बड़े बदलाव देखने को मिलेंगे। यह भी संभव है कि ट्रंप सरकार को बड़ा रोलबैक करना पड़े। जब पूरा विश्व एक स्वर में जागेगा, तो कोई भी देश — चाहे वह कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो — दबाव में आए बिना नहीं रह पाएगा।
और यही तो लोकतंत्र की असली खूबसूरती और ताकत है।
धन्यवाद,
सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक, इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री
जयपुर, राजस्थान
suneelduttgoyal@gmail.com