जनसांख्यिकी का चेतावनी-संकेत — समाज के लिए स्पष्ट आह्वान

जनसांख्यिकी का चेतावनी-संकेत — समाज के लिए स्पष्ट आह्वान
यह समय भावनाओं की नहीं, प्रमाणों की राजनीति का है—भारत की जनसंख्या बनावट बदल रही है, परिवार-निर्णयों की धुरी खिसक रही है, और यदि आज निर्णय नहीं लिए गए तो कल संस्कार-श्रृंखला और समाज-आधार दोनों दुर्बल होंगे; यह केवल सामाजिक प्रश्न नहीं, सनातन की जीवन-धारा पर सीधी चुनौती है। 2011 की जनगणना, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे और मान्य अंतरराष्ट्रीय आकलन स्पष्ट संकेत दे चुके हैं—उत्तरदायित्व अब हमारे हाथ में है।
धर्म-वार अनुपात पर अंतिम आधिकारिक तस्वीर 2011 की जनगणना है—इसी के अनुसार हिंदू 79.8%, मुस्लिम 14.23%, ईसाई 2.30%, सिख 1.72%, बौद्ध 0.70%, जैन 0.37% और शेष अन्य/अनिर्दिष्ट; जिम्मेदार विमर्श को जब तक नई गणना न आए, इसी आधार पर टिकना होगा—अनुमानों पर नहीं। हिस्सेदारी के बदलाव एकल कारण से नहीं होते, बल्कि जन्मदर, शिक्षा, शहरीकरण, रोजगार और प्रवासन जैसे संरचनात्मक कारकों के संयुक्त प्रभाव से बनते-बिगड़ते हैं; अतः रणनीति भावनात्मक नहीं, प्रमाण-आधारित होनी चाहिए।
परिवार और TFR: विलंब की वास्तविक कीमत
कुल प्रजनन दर TFR प्रतिस्थापन स्तर से नीचे 2.0 तक आ चुकी है—अर्थ स्पष्ट है: स्थिरीकरण के बाद वृद्धावस्था तेज़ी से उभरेगी और पीढ़ीगत सहारा-तंत्र पर दबाव बढ़ेगा; यदि विवाह और मातृत्व/पितृत्व लगातार टलते रहे, तो दादा–पोते का स्वाभाविक सेतु दुर्लभ होता जाएगा, संस्कार-प्रवाह कमजोर होगा। यह स्थिति “कम बच्चे” से अधिक “बहुत देर से निर्णय” का परिणाम बन रही है—इसे पहचाने बिना समाधान नहीं मिलेगा।
शिक्षा–स्वास्थ्य की लागत: अदृश्य लेकिन निर्णायक बोझ
निजी शिक्षा एवं सामान्य स्वास्थ्य में खर्च और फीस बढ़ोतरी मध्यम वर्ग को दूसरे बच्चे के निर्णय से पीछे धकेलती है; सार्वजनिक ढांचे पर भरोसा बहाल न होने से परिवार लागत-भय में फँसता है और यही भय जनसांख्यिकी को दिशा देता है। स्वास्थ्य में जेब से सीधा खर्च ऊँचा रहने के कारण एक गंभीर बीमारी परिवार की वर्षों की बचत खा जाती है—यह अदृश्य बोझ परिवार-आकार, वृद्ध-देखभाल और भविष्य-निवेश जैसे निजी निर्णयों तक पहुँचकर समाज-स्तर की प्रवृत्ति बना देता है; बजट विश्लेषण लगातार इसी चेतावनी की ओर संकेत करता है।
प्रवासन: पुल बनाएँ—दरार नहीं
उच्च शिक्षा के लिए 13 लाख से अधिक भारतीय छात्र विदेश जा चुके हैं; यह शैक्षिक प्रवास अक्सर दीर्घकालिक बसावट में बदलता है—देश के भीतर विवाह–परिवार–जन्मदर की धारा पर इसका अप्रत्यक्ष असर वास्तविक है। समाधान रोकथाम नहीं, “सर्कुलर मोबिलिटी” है—ऐसा नीति-तंत्र जो वापसी को सम्मान, अवसर और स्थिरता दे। रिसर्च फंडिंग, उद्योग–अकादमी क्लस्टर, और उच्च-कौशल नौकरियों का स्थानीय इकोसिस्टम जितना समृद्ध होगा, उतनी ही संभावना कि कौशल भी लौटे और परिवार-निर्णय भी भारत-केंद्रित हों। पासपोर्ट और मंत्रालयीय संचार इस फैलाव की चौड़ाई दर्ज कर रहे हैं—अब रणनीति उन्हीं पुलों को गढ़ने की है ताकि प्रवासन दरार न बने, पुल बने।
वृद्धावस्था: आसन्न लहर, टालना अब संभव नहीं
अगले दशकों में वृद्ध आबादी लगभग पाँच में से एक तक पहुँच सकती है और 80+ वर्ग सबसे तेज़ बढ़ेगा—यह केवल अस्पतालों की समस्या नहीं; यह दीर्घकालिक देखभाल, समुदाय-आधारित सहारा और आय-सुरक्षा की समेकित परीक्षा है। यदि आज ढाँचे नहीं बने, तो कल घर-परिवार—जो सनातन जीवन-शैली का मेरुदंड हैं—सबसे पहले दबाव में आएँगे। यह चेतावनी कोई भय-कथा नहीं, बल्कि सुविदित प्रवृत्ति है; तैयारी न हुई तो लागत और पीड़ा दोनों बढ़ेंगे। इसीलिए जेरियाट्रिक केयर मिशन, होम-केयर, डे-केयर, प्रशिक्षित केयर-वर्कफोर्स, और दीर्घकालिक देखभाल-बीमा जैसे समाधानों को अभी से स्केल-अप करना होगा—यही सेवा-परंपरा का आधुनिक विस्तार है।
जागरण-सूत्र: सनातनी समाज के ठोस कदम
शिक्षा को लोक-निवेश बनाएं: सार्वजनिक विद्यालय–विश्वविद्यालय में गुणवत्ता मानक, शिक्षक-क्षमता और जवाबदेही पर दृढ़ मांग; निजी संस्थानों में शुल्क-नियमन व परिणाम-आधारित पारदर्शिता, ताकि शिक्षा “उच्च-लागत उपभोग” नहीं, “उच्च-मूल्य निवेश” बने और परिवार-निर्णय लागत-भय से मुक्त हों।
समय पर परिवार-निर्णय: करियर के साथ विवाह–मातृत्व/पितृत्व को जीवन-योजना का औपचारिक हिस्सा बनाना—डेटा स्पष्ट कहता है कि अत्यधिक विलंब पीढ़ीगत निरंतरता को चोट पहुँचाता है; समाज को प्रेरक वातावरण और सहूलियतें देनी होंगी।
स्वास्थ्य में सार्वजनिक क्षमता: प्राथमिक–द्वितीयक–तृतीयक सभी स्तरों पर सार्वजनिक बिस्तर, मानव संसाधन और दवाएँ; कैंसर, कार्डियक और जेरियाट्रिक सेवाओं के मजबूत सार्वजनिक विकल्प बनाकर जेब से खर्च घटाएँ—यही परिवार-जोखिम को स्थिर करेगा।
सर्कुलर मोबिलिटी के पुल: रिसर्च फंडिंग, उद्योग–अकादमी क्लस्टर, उच्च-कौशल नौकरियाँ और “रिटर्न फेलोशिप” से विदेश-शिक्षित युवाओं के लिए वापसी का मार्ग आसान करें—यह कौशल भी लाएगा, परिवार-निर्णयों को भी भारत-केंद्रित बनाएगा।
वृद्ध-समर्थ समाज: होम-केयर, डे-केयर, जेरियाट्रिक प्रशिक्षण और दीर्घकालिक देखभाल बीमा का स्केल-अप—यह सेवा-परंपरा का आधुनिक विस्तार है; मंदिर–ट्रस्ट और समुदाय इसमें नैतिक–संगठनात्मक नेतृत्व दें।
धर्म-वार विमर्श: अनुशासन ही सुरक्षा-कवच
जब तक नई जनगणना नहीं आती, 2011 ही अंतिम आधिकारिक तस्वीर है; अनुमानित तालिकाएँ बहस जगा सकती हैं, पर नीति और समाज को भटका भी सकती हैं—सनातनी समाज का दायित्व है कि तथ्य-अनुशासन को आधार बनाए और उसी पर रणनीति गढ़े; यही गंभीरता दीर्घकालिक सम्मान और स्थिरता दिलाती है।
नीति-गवर्नेंस: “कितने” नहीं, “कैसे” पर केंद्रित
जनसंख्या-नीति का केंद्र संख्या-लक्ष्यों से आगे बढ़कर “परिवार-निर्माण सुगमता” और “मानव पूँजी” पर होना चाहिए—यही वह दृष्टि है जो TFR, प्रवासन और वृद्धावस्था को एक साथ साधती है। एक परिवार-नीति समन्वय तंत्र शिक्षा, स्वास्थ्य, श्रम, आवास और विदेश प्रशासन के साझा सूचकांकों पर वार्षिक लक्ष्य तय कर सार्वजनिक रिपोर्ट-कार्ड जारी करे; समाज को पता रहे कि सुधार कहाँ हो रहे हैं और कहाँ जोर देना है—पारदर्शिता ही विश्वास बनाती है।
अंतिम आह्वान: पाँच दीप तभी स्थिर जलेंगे
कुल प्रजनन दर प्रतिस्थापन से नीचे, शिक्षा–स्वास्थ्य महँगे, प्रवासन तेज़ और वृद्धावस्था की लहर सामने—चार दिशाओं से आती घंटियाँ एक ही संदेश दे रही हैं: अभी निर्णायक बनें। समाधान भी चारों दिशाओं से आएँगे—स्कूल और अस्पतालों में सार्वजनिक विश्वसनीयता, निजी क्षेत्र में पारदर्शिता, श्रम-बाज़ार में गुणवत्तापरक अवसर, और परिवार-निर्णयों के लिए सामाजिक–नीतिगत सहारा; सनातनी हिंदुओं के लिए संदेश स्पष्ट है—घर, कुल, गुरु, समाज और राष्ट्र—ये पाँच दीप तभी स्थिर जलेंगे जब आँकड़ों का सच स्वीकार कर आज नीति और व्यवहार में परिवर्तन लाया जाए; आज की निर्णायकता ही कल की परंपरा की रक्षा है।
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