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चेतावनी: धर्मांतरण के बढ़ते नेटवर्क और बदलता सामाजिक संतुलन

चेतावनी: धर्मांतरण के बढ़ते नेटवर्क और बदलता सामाजिक संतुलन

भारत की सांस्कृतिक आत्मा पर धीरे-धीरे होती चोट

भारत की सभ्यता हज़ारों वर्षों से विविधता और सहिष्णुता का प्रतीक रही है। यहाँ सनातन संस्कृति ने न केवल अनेक मत-पंथों को जन्म दिया, बल्कि उन्हें सह-अस्तित्व का स्थान भी दिया। परंतु पिछले कुछ दशकों में एक ऐसी प्रवृत्ति ने समाज के भीतर गहरी दरार डालनी शुरू की है — संगठित और योजनाबद्ध धर्मांतरण की प्रक्रिया, जो अब केवल धार्मिक या सामाजिक नहीं रही, बल्कि भू-राजनीतिक रणनीति का भी हिस्सा बन चुकी है।

भारत में धर्मांतरण की बढ़ती प्रक्रिया

स्वतंत्रता के बाद से लेकर आज तक, भारत ने कई बार धार्मिक असंतुलन की झलक देखी है। 1951 की जनगणना में देश में हिंदू जनसंख्या 84.1% थी, जबकि 2011 तक यह घटकर 79.8% रह गई। दूसरी ओर, मुस्लिम जनसंख्या 9.8% से बढ़कर 14.2% और ईसाई जनसंख्या 2.3% से बढ़कर 2.8% तक पहुँची।
यह परिवर्तन स्वाभाविक जनसंख्या वृद्धि का परिणाम भर नहीं है; कई राज्यों में संगठित मिशनरी गतिविधियों, विदेशी फंडिंग और स्थानीय प्रशासन की लापरवाही ने इस असंतुलन को गति दी है।

सबसे अधिक प्रभावित राज्य हैं —
छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, मध्य प्रदेश, असम, नगालैंड, मणिपुर, मिज़ोरम, केरल और तमिलनाडु।
इन राज्यों में या तो आदिवासी जनसंख्या अधिक है, या फिर आर्थिक रूप से पिछड़े समुदायों में धार्मिक सहायता और सामाजिक सेवाओं के नाम पर परिवर्तन की प्रक्रिया तेज़ी से चल रही है।

 

आदिवासी और ग्रामीण क्षेत्रों में मिशनरियों की पकड़

धर्मांतरण का सबसे गंभीर पक्ष यह है कि यह सीधे सामाजिक-आर्थिक असमानता का उपयोग करता है।
जहाँ सरकार की कल्याणकारी योजनाएँ नहीं पहुँच पातीं, वहाँ मिशनरी संस्थाएँ ‘सेवा’ के नाम पर घर-घर पहुँचती हैं। स्वास्थ्य केंद्र, स्कूल और मुफ्त राशन जैसी सुविधाओं के माध्यम से धीरे-धीरे धार्मिक पहचान बदलने की प्रेरणा दी जाती है।

उदाहरण के लिए, छत्तीसगढ़ और झारखंड के बस्तर, सरगुजा और गुमला जिले इस गतिविधि के प्रमुख केंद्र बन चुके हैं। स्थानीय भाषा और संस्कृति को अपनाने वाले प्रचारक आदिवासी समुदायों को यह विश्वास दिलाते हैं कि उनकी मूल पहचान ‘हिंदू धर्म’ से अलग है — जबकि वास्तविकता में वे सदियों से भारत की सांस्कृतिक धारा का अभिन्न अंग रहे हैं।

दक्षिण और उत्तर-पूर्व भारत में बढ़ती सक्रियता

केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे राज्यों में शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में चर्च-संचालित संस्थाओं की जड़ें बहुत गहरी हैं।
इनके माध्यम से न केवल समाजसेवा, बल्कि धार्मिक प्रचार-प्रसार भी एक समानांतर शक्ति बन चुका है।
वहीं पूर्वोत्तर भारत, विशेषकर नगालैंड, मिज़ोरम और मेघालय, अब लगभग पूरी तरह से ईसाई-बहुल समाज बन चुके हैं।
1950 में जहाँ ईसाई जनसंख्या नगालैंड में 15% थी, आज वह 90% से अधिक है। यह परिवर्तन केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और राजनीतिक पहचान का भी पुनर्गठन है।

राजस्थान में स्थिति

जब हम “धर्मांतरण” की बात करते हैं, तो यह विषय केवल दूर के आदिवासी इलाकों या राज्यों तक सीमित नहीं रहा। राजस्थान, हमारा अपना राज्य, इस विषय के केंद्र में आ गया है; यहाँ के अनुभव, घटनाएँ और सरकारी कार्रवाई हमें यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि हमारी सांस्कृतिक एकता और सामाजिक समझ कितनी मज़बूत है।

स्थानीय घटनाएँ जहाँ “धर्म परिवर्तन” का आरोप लगा
उदाहरण के लिए, दौसा जिले में “अगापे फैलोशिप चर्च” को आरोपों का सामना करना पड़ा कि वहाँ धर्मांतरण की गतिविधियाँ हो रही थीं। स्थानीय लोगों के विरोध और मीडिया रिपोर्ट्स के बाद प्रशासन ने जाँच शुरू की।  एक और मामला बांसवाड़ा का है, जहाँ एक नाबालिग लड़की ने आरोप लगाया कि प्रेम जाल और प्रेग्नेंसी के बाद उस पर जबरन धर्म परिवर्तन का दबाव बनाया गया। पुलिस ने मामले को दर्ज किया है। 

मीडिया रिपोर्ट्स में “प्रलोभन” या “प्रलोभन द्वारा धर्म परिवर्तन” के आरोप अक्सर सामने आते हैं, लेकिन जांच की प्रगति, न्यायालयिक कार्यवाही या दोष सिद्धि की दर बहुत कम पायी जाती है।

धर्मांतरण विरोधी बिल पास और केसों की संख्या
सितंबर 2025 में राजस्थान विधानसभा ने Rajasthan Prohibition of Unlawful Religious Conversion Bill, 2025 पारित किया। इस बिल के बाद सरकार ने स्वीकार किया है कि पिछले पाँच वर्षों में राज्य में केवल 13 धर्मांतरण मामले दर्ज हुए हैं। सरकार का दावा है कि “love jihad” नाम से कोई मामला दर्ज नहीं हुआ है। यह संख्या अपेक्षाकृत कम है, जो दिखाती है कि व्यापक, हिंसात्मक या जबरन धर्मांतरण की कथित घटनाएँ (जो अक्सर मीडिया या राजनीति में बड़ी बातें बन जाती हैं) वास्तविक घटनाओं की तुलना में कम हों। 

कानून की सख्ती और दंड का प्रावधान
नया कानून “प्रत्येक अनौचित या जबरन धर्मांतरण” को अपराध मानता है। यदि विवाह केवल धर्मांतरण के उद्देश्य से किया गया हो, तो विवाह को अवैध माना जाएगा। बल, प्रलोभन, छल आदि के माध्यम से किए गए परिवर्तन पर 7-14 साल जेल और ₹5-10 लाख जुर्माना जैसे प्रावधान हैं। मास / समूह धर्मांतरण की स्थिति में सजा और भी ज़्यादा है, और विशेष रूप से अनुसूचित जाति / जनजाति / नाबालिगों की सुरक्षा के लिए कठोर प्रावधान हैं।

नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश और इंडोनेशिया के उदाहरण

भारत के पड़ोसी देशों में भी यह रुझान दिखाई देता है।

  • नेपाल: जहाँ कभी हिंदू राष्ट्र की पहचान थी, वहाँ 2015 में नया संविधान “धर्मनिरपेक्ष” घोषित किया गया, और इसके बाद से मिशनरियों की गतिविधियों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई।
  • श्रीलंका: तमिल-बहुल इलाकों में चर्च नेटवर्क का विस्तार हुआ, जिसने स्थानीय सामाजिक ढाँचे को प्रभावित किया।
  • बांग्लादेश: 1971 के बाद से इस्लामीकरण की नीति ने हिंदू जनसंख्या को 20% से घटाकर 8% से भी कम कर दिया।
  • इंडोनेशिया: यहाँ मुस्लिम बहुल शासन व्यवस्था के बीच ईसाई प्रचार पर नियंत्रण के बावजूद बाहरी NGO फंडिंग से कुछ क्षेत्रों में जनसंख्या संतुलन बदलने के प्रयास हुए हैं।
  • लेबनान: कभी एक ईसाई, आधुनिक, उदार और सांस्कृतिक रूप से जीवंत मध्य – पूर्वी देश हुआ करता था — सन् 1970 तक वहाँ का समाज धार्मिक सहिष्णुता और सामाजिक खुलापन का प्रतीक माना जाता था। उस दौर में मुस्लिम शरणार्थियों को पनाह देने वाला लेबनान, धीरे-धीरे कट्टरपंथ और बाहरी राजनीतिक हस्तक्षेप का शिकार बन गया। परिणाम स्वरूप ईसाईयों को अपना देश छोड़ना पड़ा और आज यह आतंकवादियों का पसंदीदा देश है।
  • काबुल: इसी तरह, सन् 1990 से पहले का काबुल भी एक आज़ाद और आधुनिक शहर था — जहाँ महिलाएँ आधुनिक वस्त्र पहनकर सड़कों पर बेझिझक घूमती थीं, विश्वविद्यालयों में शिक्षा लेती थीं, और कला-संस्कृति का माहौल गहराई से बसा था। इतना ही नहीं, उस समय बॉलीवुड की कई फिल्मों की शूटिंग भी इन देशों में होती थी। लेकिन कुछ ही वर्षों में ये सभी शहर कट्टर विचारधारा, विदेशी फंडिंग और धार्मिक राजनीति के केंद्र बन गए — और आज वहाँ की स्थिति हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि अगर समाज समय रहते नहीं चेता, तो सभ्यता के केंद्र भी कट्टरता की गिरफ्त में आ सकते हैं। 

इन सभी देशों में एक समानता है — धर्मांतरण को भू-राजनीतिक शक्ति के रूप में प्रयोग करना, ताकि सांस्कृतिक पहचान को कमजोर कर राजनीतिक और रणनीतिक प्रभाव स्थापित किया जा सके।

अंतर्राष्ट्रीय राजनीति और भारत की चुनौती

धर्मांतरण अब केवल धार्मिक परिवर्तन का विषय नहीं रहा। यह एक वैश्विक सॉफ्ट-पावर टूल बन चुका है।
अमेरिका, यूरोप और कुछ अंतरराष्ट्रीय NGO नेटवर्क, “रिलीफ एंड फेथ बेस्ड डेवलपमेंट” के नाम पर भारत में अरबों डॉलर की विदेशी सहायता भेजते हैं।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, FCRA (Foreign Contribution Regulation Act) के तहत 2022-23 में भारत में कुल ₹23,000 करोड़ से अधिक विदेशी चंदा आया, जिसमें से धर्म आधारित NGO को सबसे अधिक हिस्सा मिला।

मेरा केंद्र सरकार के प्रति सुझाव है कि सभी ट्रस्ट, एनजीओ और सोसाइटीज़ जो कानून के तहत पंजीकृत हैं, उनकी आय‑कर विभाग द्वारा नियमित और आवश्यक स्क्रूटिनी की जानी चाहिए। इस तरह सरकार को पता चलेगा कि पैसा किस स्रोत से आ रहा है, किस उद्देश्य के लिए प्राप्त किया गया है और क्या वह देश की अखंडता के लिए खतरा बनता है। साथ ही यह भी जांचा जाना चाहिए कि प्राप्त धन का अंतिम उपयोग किस प्रकार से हो रहा है।

इन फंडों का दीर्घकालिक उद्देश्य सांस्कृतिक प्रभाव क्षेत्र का विस्तार करना होता है।
यही कारण है कि कई बार इन गतिविधियों के परिणामस्वरूप स्थानीय भाषाएँ, परंपराएँ और लोक-आस्था धीरे-धीरे समाप्त होती जाती हैं — और उसके स्थान पर पश्चिमी या अरबी प्रभाव वाला जीवन-दर्शन पनपता है।

सांस्कृतिक असंतुलन और सामाजिक तनाव

धर्मांतरण केवल धार्मिक आँकड़ों का विषय नहीं है। यह समाज में सांस्कृतिक असंतुलन और आपसी अविश्वास की जड़ें बोता है।
जब एक ही गाँव, परिवार या समुदाय के लोग अलग-अलग धार्मिक पहचान अपना लेते हैं, तो पीढ़ियों की एकता टूट जाती है।
यह विभाजन राजनीतिक लाभ का साधन बनता है — स्थानीय चुनावों में “धर्म आधारित मतदाता ध्रुवीकरण” के रूप में।

असम, झारखंड और छत्तीसगढ़ में कई बार देखा गया कि जहाँ धर्मांतरण तेज़ हुआ, वहीं सांप्रदायिक टकराव, हिंसा और जनसंख्या असंतुलन के खतरे भी बढ़े।
कुछ जिलों में स्थानीय आदिवासी अब खुद को हिंदू न कहकर “मूल निवासी” या “सरना” पहचान से जोड़ रहे हैं — जिसे अलग धर्म घोषित करने की मांग भी उठ रही है।
यह स्थिति भारत की सांस्कृतिक एकता के लिए गंभीर संकेत है।

आने वाले दशकों की दिशा

यदि यह प्रवृत्ति इसी गति से चलती रही, तो आने वाले 30-40 वर्षों में कई क्षेत्रों में धार्मिक जनसांख्यिकी पूरी तरह बदल सकती है।
भारत में धर्मांतरण के विरुद्ध कई राज्य जैसे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, उत्तराखंड पहले ही कड़े कानून बना चुके हैं।
परंतु इन कानूनों के प्रभाव को धरातल पर लागू करना अब भी चुनौती है — क्योंकि गतिविधियाँ अब डिजिटल, आर्थिक और अंतरराष्ट्रीय रूप में फैली हुई हैं।

आवश्यक उपाय और आत्म-पुनरावलोकन

स्थानीय डेटा संग्रह और पारदर्शिता
जिले-स्तर पर मामलों की संख्या, पुलिस रिपोर्ट, आरोपों की प्रकृति (प्रलोभन, विवाह, बल आदि) सार्वजनिक रूप से उपलब्ध होनी चाहिए। यह मीडिया या सामाजिक संगठनों की रिपोर्ट पर निर्भर नहीं होना चाहिए, बल्कि सरकारी रिकॉर्ड और न्यायालयीन प्रकरणों से समर्थित होना चाहिए।

 

पुलिस और न्यायालयीन प्रक्रिया में त्वरितता और निष्पक्षता
स्थानीय पुलिस को ऐसे मामलों में तेजी से कार्रवाई करनी चाहिए; पीड़ितों को न्यायालयीन प्रक्रिया में सुरक्षा और कानूनी मदद सुनिश्चित हो; झूठे आरोपों की जाँच हो; झूठे मामलों में कानूनी निष्कर्ष तक पहुँचने की संभावनाएँ हों।

 

सामाजिक सेवाओं का क्षेत्रीकरण
शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक न्याय कार्यक्रमों की पहुँच उन स्थानों पर जहाँ आर्थिक-शैक्षिक पिछड़ापन अधिक है, जैसे आदिवासी इलाकों, पिछड़े ब्लॉकों में। यदि लोगों को शिक्षा या स्वास्थ्य सुविधा के कारण धर्म परिवर्तन करना पड़ता है, यह संकेत है कि मूल आवश्यकता पूरी नहीं हो रही।

 

कानूनी सुरक्षा और अधिकारों की रक्षा
नया कानून प्रभावी है, पर इसे लागू करते समय धार्मिक स्वतंत्रता, संविधान की आस्था-स्वतंत्रता की गारंटी, और निजी जीवन की रक्षा का ध्यान रखना चाहिए। साथ ही इस तरह के कानूनों के दुरुपयोग की आशंका को कम करने के लिए शपथ पत्र, गवाह, दस्तावेज़ आदि की सख़्त जाँच हो।

 

समुदाय आधारित जागरूकता अभियान
लोकतांत्रिक होने के नाते हमें गाँवों, मोहल्लों, स्कूलों में इस विषय पर संवाद खोलना चाहिए — धर्म परिवर्तन के आरोपों की सच्चाई क्या है, अधिकार क्या हैं, कानूनी चुनौतियाँ क्या हैं। धार्मिक नेतृत्व (ग्राम धर्मगुरु, पुजारी, मौलवियों) को इस संवाद में शामिल करना चाहिए ताकि समाज के विश्वास टूटने से पहले संबोधन हो सके।

यह विषय केवल सरकार या सुरक्षा एजेंसियों के लिए नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए आत्मचिंतन का प्रश्न है।
हमें यह समझना होगा कि धर्मांतरण की जड़ें केवल बाहर से नहीं आतीं — वे वहीं उगती हैं जहाँ गरीबी, असमानता, शिक्षा और स्वास्थ्य की कमी है।
यदि हम इन बुनियादी समस्याओं का समाधान नहीं करेंगे, तो कोई भी कानून इस प्रवृत्ति को नहीं रोक सकेगा।

हमें शिक्षा और सेवा के क्षेत्र में अपने स्वयंसेवी संगठनों को सशक्त बनाना होगा।
गाँवों, पहाड़ी और जनजातीय इलाकों में ऐसे प्रयास होने चाहिए जो धर्म नहीं, बल्कि मानवता के आधार पर सेवा दें।
सांस्कृतिक जागरूकता को आधुनिक तकनीक के साथ जोड़ना, युवा पीढ़ी को अपनी जड़ों से परिचित कराना – यही इस चुनौती का स्थायी उत्तर है।

भारत की ताकत उसकी विविधता और सहिष्णुता में है, परंतु यह तभी टिक सकती है जब उसकी जड़ें मज़बूत रहें।
धर्मांतरण की यह बढ़ती लहर हमें यह सोचने पर विवश करती है कि क्या हम अपनी सांस्कृतिक आत्मा की रक्षा कर पा रहे हैं?
यह समय है आत्मपरीक्षण का — धर्म के आधार पर नहीं, बल्कि उस सभ्यतागत चेतना के आधार पर जिसने भारत को सदियों तक एकता में बाँधे रखा है।

 

धन्यवाद,


रोटेरियन सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक, इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री
पूर्व उपाध्यक्ष, जयपुर स्टॉक एक्सचेंज लिमिटेड
जयपुर, राजस्थान
suneelduttgoyal@gmail.com

About Rtn. Suneel Dutt Goyal

Rtn. Suneel Dutt Goyal, a distinguished leader and visionary, has made significant contributions to Trade, Commerce, Industry, and Community service. Born and raised in Alwar and now based in Jaipur, Rajasthan, he is the Founder & Director General of the Imperial Chamber of Commerce and Industry (ICCI) since 2017. His leadership extends to key roles in the PHD Chamber of Commerce & Industry, the Confederation of Indian Industry (CII), and the Rotary Club Jaipur Round Town.

With over four decades of experience, Suneel has served as Co-Chairman of the Rajasthan Chapter of the PHD Chamber, Secretary, President and Zone Coordinator of the Rotary Club Jaipur Round Town, and Chairman, Treasurer and National Councillor for the Indian Institute of Material Management (IIMM). His dedication to community service is evident in his role as Patron of the Indian Red Cross Society and as a Life Member of the Indian National Trust for Art and Cultural Heritage (INTACH).

As Managing Partner of Goyal and Company, Suneel provides expert consultancy in SME IPOs, project financing, investments, and strategic business issues. He has played a pivotal role in the promoting & development of the Jaipur Stock Exchange Ltd., serving as its youngest Director and Vice-President, and has contributed to the formation of the Federation of Indian Stock Exchange Ltd.

Rtn. Suneel Dutt Goyal's expertise also spans corporate dairy farming and agriculture, where he drives innovation and sustainability. His multifaceted career and unwavering commitment to excellence make him a prominent figure in both the business and social sectors.