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क्या वाकई 1991 के आर्थिक सुधारों के जनक थे डॉ. मनमोहन सिंह ?

1991 का आर्थिक संकट भारत के लिए एक बड़ा झटका था। इस संकट के लिए कई कारण जिम्मेदार थे, जिनमें पिछली सरकारो की गलत नीतियां, संरचनात्मक कमियां और बाहरी आघात शामिल थे। इस संकट की जड़ें 1970 और 1980 के दशक में वित्त मंत्रालय और उस समय के आर्थिक सलाहकारों की नीतियों में छिपी हुई थीं। इस दौरान उनकी भूमिका और वित्त मंत्रालय की नीतियों की विफलताओं पर चर्चा की जानी चाहिए। 1991 के आर्थिक सुधारों को लेकर डॉ. मनमोहन सिंह का महिमामंडन अक्सर किया जाता है, लेकिन यह आवश्यक है कि इस पर तथ्यात्मक और निष्पक्ष विश्लेषण किया जाए।
1970-80 के दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति लगातार बिगड़ती रही। उस दौर में डॉ. मनमोहन सिंह विभिन्न उच्च पदों पर रहे, जिनमें मुख्य आर्थिक सलाहकार, भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर और योजना आयोग के उपाध्यक्ष जैसे महत्वपूर्ण पद शामिल थे। इन पदों पर रहते हुए उन्होंने आर्थिक नीतियों को प्रभावित किया, लेकिन उन नीतियों में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं दिखाई दिया। इसके विपरीत, भारत की आयात नीतियों और संरक्षणवादी रुख ने कई घरेलू उद्योगों को कमजोर कर दिया।

यह जानना दिलचस्प है कि आपातकाल से पहले भारत में आयकर की अधिकतम दर लगभग 22% थी, जो 1973-74 में बढ़कर 97.5% से भी अधिक हो गई थी। यह दर उस समय की वित्तीय नीतियों की असफलता को दर्शाती है, जिसमें डॉ. सिंह का योगदान रहा, क्योंकि वे उस समय आर्थिक नीति निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका में थे।

पाम ऑयल आयात की अनुमति जैसे निर्णयों ने भारतीय तेल उद्योग को भारी नुकसान पहुंचाया। इसी प्रकार, अनियंत्रित आयात नीतियों के कारण 1980 से 2010 के बीच भारत में कई लघु और मध्यम उद्योग बंद हो गए। यह दौर वही था, जब डॉ. सिंह नीति-निर्धारण का हिस्सा थे। ऐसे में यह सवाल उठता है कि अगर उन्होंने 1991 में आर्थिक सुधार किए, तो उनके दशकों पुराने गलत फैसलों के लिए जिम्मेदारी कौन लेगा?

1991 के सुधारों का श्रेय अक्सर डॉ. मनमोहन सिंह को दिया जाता है, लेकिन वास्तव में यह प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव का साहसिक नेतृत्व था, जिसने भारत को दिवालियेपन से बचाया। राव ने IMF और विश्व बैंक की शर्तों को स्वीकार कर भारतीय परिस्थितियों के अनुसार आर्थिक नीतियों में बदलाव किया। डॉ. सिंह, जो वित्त मंत्री थे, बस इन नीतियों को लागू कर रहे थे।

वास्तविकता यह है कि डॉ. मनमोहन सिंह को कृत्रिम रूप से एक आर्थिक सुधारक का रूप दिया गया। उनके लिए एक पूर्व-नियोजित नैरेटिव गढ़ा गया, जिससे उन्हें भारत के आर्थिक सुधारों का “जनक” बना दिया गया, जबकि सच्चाई यह है कि वे मुख्यतः IMF और विश्व बैंक के निर्देशों को लागू करने वाले एक प्रशासनिक अधिकारी थे। यदि उन्हें सुधारों का श्रेय दिया जाता है, तो उनके पूर्व की विफल नीतियों की जिम्मेदारी भी उन्हीं को लेनी चाहिए

यह भी उल्लेखनीय है कि डॉ. मनमोहन सिंह कभी भी सिविल सेवा परीक्षा पास करके नौकरशाही में नहीं आए, बल्कि उन्हें लैटरल एंट्री के तहत सीधे उच्च पदों पर नियुक्त किया गया। 

 

आने वाले लेख में, हम भारत में लैटरल एंट्री सिस्टम के तहत नियुक्त लोगों की सूची और उनके प्रदर्शन का विश्लेषण करेंगे, ताकि यह स्पष्ट हो सके कि इन नियुक्तियों ने देश की प्रगति में कितना योगदान दिया और कितनी बार ये निर्णय विदेशी दबावों और राजनीतिक स्वार्थ के कारण लिए गए

हालांकि, 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री पी.वी. नरसिम्हा राव के नेतृत्व में भारत ने व्यापक आर्थिक सुधारों की शुरुआत की, जिससे देश को एक नई दिशा मिली। उस समय वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह थे, जो राव के निर्देशानुसार सुधार नीतियों को लागू कर रहे थे।

1991 संकट की जड़ें: मनमोहन सिंह की पूर्ववर्ती नीतियाँ

1970-80 के दशक की गलतियाँ:

  • मनमोहन सिंह ने 1972-76 में मुख्य आर्थिक सलाहकार, 1982-85 में RBI गवर्नर और 1985-87 में योजना आयोग के प्रमुख के रूप में “कर-सब्सिडी आधारित अर्थव्यवस्था” को बनाए रखा। 
  • उनकी नीतियों ने विदेशी मुद्रा भंडार को 1991 तक 1.2 अरब डॉलर तक गिरा दिया, जो मात्र 3 सप्ताह के आयात के लिए पर्याप्त था। 
  • 1980 के दशक में राजीव गांधी सरकार द्वारा विदेशी कर्ज़ पर अत्यधिक निर्भरता (GDP का 8% राजकोषीय घाटा) को रोकने में विफल रहे।

लैटरल एंट्री का विवादास्पद मॉडल:

  • सिंह को 1976 में बिना सिविल सेवा परीक्षा के सीधे वित्त सचिव नियुक्त किया गया।  
  • इस पद्धति ने “अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के प्रभाव” को बढ़ावा दिया, जिससे 1991 संकट की पृष्ठभूमि तैयार हुई। 

 

पी.वी. नरसिम्हा राव: संकट प्रबंधन के वास्तुकार

रणनीतिक निर्णयों की श्रृंखला:

  1. राजनीतिक साहस:

    • अल्पमत सरकार होते हुए भी IMF/विश्व बैंक के दबाव को राष्ट्रीय हितों के साथ जोड़ा।  
    • 46 टन सोना गिरवी रखकर 60 करोड़ डॉलर जुटाए और रुपये का 17.38% अवमूल्यन किया। 

  2. नीतिगत क्रांति:

    • नई औद्योगिक नीति 1991 के माध्यम से 80% उद्योगों से लाइसेंस राज समाप्त किया।  
    • FDI सीमा 51% तक बढ़ाकर “वैश्वीकरण का मार्ग” प्रशस्त किया। 

  3. टीम प्रबंधन:

    • मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाकर “क्रियान्वयन की ज़िम्मेदारी” सौंपी, परंतु बजट का पुनर्लेखन स्वयं करवाया।  
    • 50 कांग्रेस सांसदों के विरोध के बावजूद सुधारों को राजनीतिक संरक्षण प्रदान किया। 

लैटरल एंट्री: एक विफल प्रयोग

  • 1976 की नियुक्ति का प्रभाव: सिंह के “अकादमिक दृष्टिकोण” ने नौकरशाही को व्यावहारिक नीति निर्माण से दूर किया।  
  • 1991 संकट में भूमिका: 1980 के दशक में RBI गवर्नर के रूप में विदेशी कर्ज़ प्रबंधन में विफलता ने संकट को गहराया। 

निष्कर्ष:
1991 के आर्थिक सुधारों की सफलता का मूल आधार पी.वी. नरसिम्हा राव का रणनीतिक और राजनीतिक नेतृत्व था, जबकि मनमोहन सिंह की लैटरल एंट्री के माध्यम से नौकरशाही में शामिल होकर दीर्घकालिक नीति निर्माण में भागीदारी ने 1970-80 के दशक में आर्थिक संकट की बुनियाद रख दी थी। राव ने न केवल देश को दिवालियेपन के कगार से बचाया, बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत की साख को स्थापित किया। यह ऐतिहासिक सत्य है कि राव के नेतृत्व और साहसिक निर्णयों के बिना, मनमोहन सिंह की तकनीकी कुशलता व्यर्थ होती।

1991 के आर्थिक सुधारों में दोनों की भूमिकाएं स्पष्ट रूप से अलग थीं। नीति निर्माण के स्तर पर राव ने IMF और विश्व बैंक के सुझावों को भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप ढालकर साहसिक निर्णय लिए, जबकि सिंह की भूमिका मुख्यतः तकनीकी क्रियान्वयन तक सीमित थी। राजनीतिक जोखिम उठाने में भी राव अग्रणी थे—उन्होंने संसदीय विरोध और आलोचनाओं का सामना करते हुए सुधारों को आगे बढ़ाया, जबकि सिंह विवादों से बचते हुए केवल वित्तीय नीतियों को लागू करने पर केंद्रित रहे।

दीर्घकालिक प्रभाव के रूप में, राव के नेतृत्व में भारत की GDP वृद्धि दर 5.6% से बढ़कर 7.5% हो गई, जबकि मनमोहन सिंह के वित्तीय प्रशासन के दौरान (1970-80 के दशक में) औसत वृद्धि दर मात्र 3.5% थी। 1991 में राव सरकार के नेतृत्व में बुनियादी ढांचे में निवेश बढ़ाया गया, कृषि सुधारों पर ध्यान दिया गया और लाइसेंस राज को समाप्त कर भारत को वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार किया गया।

इस प्रकार, 1991 के आर्थिक संकट का समाधान और सुधारों की सफलता का श्रेय मुख्य रूप से प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव के राजनीतिक साहस, निर्णायक नेतृत्व और दूरदर्शी नीतियों को जाता है।

धन्यवाद,

सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक, इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री
जयपुर, राजस्थान
suneelduttgoyal@gmail.com

 

About Rtn. Suneel Dutt Goyal

Rtn. Suneel Dutt Goyal, a distinguished leader and visionary, has made significant contributions to Trade, Commerce, Industry, and Community service. Born and raised in Alwar and now based in Jaipur, Rajasthan, he is the Founder & Director General of the Imperial Chamber of Commerce and Industry (ICCI) since 2017. His leadership extends to key roles in the PHD Chamber of Commerce & Industry, the Confederation of Indian Industry (CII), and the Rotary Club Jaipur Round Town.

With over four decades of experience, Suneel has served as Co-Chairman of the Rajasthan Chapter of the PHD Chamber, Secretary, President and Zone Coordinator of the Rotary Club Jaipur Round Town, and Chairman, Treasurer and National Councillor for the Indian Institute of Material Management (IIMM). His dedication to community service is evident in his role as Patron of the Indian Red Cross Society and as a Life Member of the Indian National Trust for Art and Cultural Heritage (INTACH).

As Managing Partner of Goyal and Company, Suneel provides expert consultancy in SME IPOs, project financing, investments, and strategic business issues. He has played a pivotal role in the promoting & development of the Jaipur Stock Exchange Ltd., serving as its youngest Director and Vice-President, and has contributed to the formation of the Federation of Indian Stock Exchange Ltd.

Rtn. Suneel Dutt Goyal's expertise also spans corporate dairy farming and agriculture, where he drives innovation and sustainability. His multifaceted career and unwavering commitment to excellence make him a prominent figure in both the business and social sectors.